सुमित्रानन्दन पन्त का जीवन परिचय-
पद्यांश 1-
चींटी को देखा ?वह है पिपीलिका पाँति !
वह सरल, विरल, काली रेखा
देखो ना, किस भाँति
तम के तागे सी जो हिल-डुल, काम करती वह सतत !
चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल कन-कन कनके चुनती अविरत !
शब्दार्थ– सरल-सीधी; विरल-पतली, जो घनी न हो, तम अन्धकार, लघुपद-छोटे-छोटे कदम, पिपीलिका-चींटियाँ, सतत निरन्तरः अविरत-बिना रुके।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रकृति के सुकुमार कवि ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित ‘युगवाणी’ काव्य संग्रह में शामिल तथा हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में शामिल शीर्षक ‘चींटी’ से उधृत है।
प्रसंग– इन पंक्तियों में कवि ने चीटी जैसे तुच्छ प्राणी की निरन्तर गतिशीलता का निर्भय होकर विचरण करने, कभी हार न मानने जैसी प्रवृत्ति का वर्णन किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? वह अत्यन्त सरल और सीधी है। वह पतली और काली रेखा की भाँति, काले धागे की भाँति हिलती-डुलती हुई, अपने छोटे-छोटे पैरों से प्रत्येक क्षण चलती है। वे सब एक पंक्ति में आगे-पीछे अर्थात् मिलकर होती हुई चलती हैं तथा देखने में काले धागे की रेखा-सी दिखती है।
कवि चींटी की गतिशीलता और निरन्तर परिश्रम करते रहने की विशेषता का वर्णन करते हुए कहता है कि वह पंक्तिबद्ध होकर निरन्तर अपने मार्ग पर बढ़ती चली जाती है। देखो ! वह किस प्रकार बिना रुके काम करती रहती है, एक-एक कण एकत्रित करती है और अपने घर तक ले जाती है अर्थात् वह कभी हार नहीं मानती तथा लगातार अपने श्रम से, अपने परिवार के लिए भोजन को एकत्र करने के काम में लगी रहती है। चींटी श्रम की साकार व सजीव मूर्ति है, यद्यपि वह अत्यन्त लघु प्राणी है।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने चींटी के माध्यम से निरन्तर गतिशील रहने की प्रेरणा दी है।
- भाषा– साहित्यिक खड़ीबोली
- शैली– वर्णनात्मक
- गुण– ओज
- रस– वीर
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘हिल-डुल’, ‘पिपीलिका पाँति’ और ‘कन-कन कनके’ में क्रमशः ‘ल’, ‘प’, ‘क’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- उपमा अलंकार-‘तम के तागे सी’ और ‘काली रेखा’ यहाँ उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार- ‘पल-पल’ और ‘कन-कन’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 2-
चन्द्रलोक में प्रथम बार,
मानव ने किया पदार्पण,
छिन्न हुए लो,देश काल के,
दुर्जय बाधा बंधन !
दिग्-विजयी मनु-सुत,
निश्चय, यह महत् ऐतिहासिक क्षण,
भू-विरोध हो शांत।
निकट आएँ सब देशों के जन
शब्दार्थ-पदार्पण-कदम रखना; दुर्जय-जो जीते नहीं जा सकते, बाधा-रुकावट, अड़चन; दिग्-विजयी-दिशाओं को जीतने वाला; मनु-सुत-मनुष्य के पुत्र, महत्-बड़ा; भू-विरोध-पृथ्वी पर दिखाई देने वाले झगड़े।
सन्दर्भ -प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के ‘काव्यखण्ड’ से ‘चन्द्रलोक में प्रथम बार’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित ‘ऋता’ काव्य संग्रह से ली गई है।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव के चन्द्रमा पर पहुँचने की ऐतिहासिक घटना के महत्त्व को व्यक्त किया है। यहाँ कवि ने उन सम्भावनाओं का वर्णन किया है, जो मानव के चन्द्रमा पर पैर रखने से साकार होती प्रतीत होती है।
व्याख्या-कवि कहता है कि जब चन्द्रमा पर प्रथम बार मानव ने अपने कदम रखे तो ऐसा करके उसने देश-काल के उन सारे बन्धनों, जिन पर विजय पाना कठिन माना जाता था, उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। मनुष्य को यह विश्वास हो गया कि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी देश और ग्रह-नक्षत्र अब दूर नहीं है। आज निश्चय ही मानव ने दिग्विजय प्राप्त कर ली है अर्थात् उसने समस्त दिशाओं को जीत लिया है। यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षण है कि अब सभी देशों के निवासी मानवो को परस्पर विरोध समाप्त कर एक-दूसरे के निकट आना चाहिए और प्रेम से रहना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व ही एक देश में परिवर्तित हो जाए तथा सभी देशों के मनुष्य एक-दूसरे के निकट आएँ, यही कवि की मंगलकामना है।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि आधुनिक व ज्ञानिक समय ने सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँध दिया है।
- भाषा- साहित्यिक खड़ी-बोली
- शैली- प्रतीकात्मक
- गुण- ओज
- रस- वीर
- छन्द- तुकान्त-मुक्त
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार- ‘बाधा बंधन’ में ‘व’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 3-
अणु-युग बने धरा जीवन हित
धरा चन्द्र की प्रीति परस्पर
स्वर्ग-सृजन का साधन,
जगत प्रसिद्ध, पुरातन,
मानवता ही विश्व सत्य
हृदय-सिन्धु में उठता
भू-राष्ट्र करें आत्मार्पण!
स्वर्गिक ज्वार देख चन्द्रानन !
शब्दार्थ-अणु-परमाणु, धरा-पृथ्वी, स्वर्ग-सृजन-स्वर्गरूपी निर्माण; आत्मार्पण-आत्मसमर्पण, हृदय-सिन्धु-मन रूपी समुद्र, चन्द्रानन-चन्द्रमा का मुख।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रकृति के सुकुमार कवि ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित ‘युगवाणी’ काव्य संग्रह में शामिल तथा हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में शामिल शीर्षक ‘चन्द्रलोक में प्रथम बार ‘ से उधृत है।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ ने अणु-युग के प्रति लोककल्याण की भावना को प्रकट किया है। कवि चाहता है कि विज्ञान का विकास मानव के कल्याण के लिए हो।
व्याख्या-कवि कामना करता है कि अणु-युग का विकास मानव जाति के कल्याण के लिए हो अर्थात् विज्ञान का प्रयोग मानव के विकास के लिए हो, जिससे यह पृथ्वी स्वर्ग के समान सुखी और सम्पन्न हो जाए। आपसी बैर-विरोध समाप्त हो जाए, भाईचारे की भावना उत्पन्न हो जाए और सब मिल-जुलकर रहें। इस संसार में केवल मानवता ही सत्य है। अतः सभी राष्ट्रों को अपनी स्वार्थ भावना का त्याग कर देना चाहिए।
कवि कहता है कि पृथ्वी और चन्द्रमा का प्रेम संसार में प्रसिद्ध हैं और यह अत्यन्त प्राचीन प्रेम-सम्बन्ध है। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रमा पहले पृथ्वी का ही एक भाग था, जो बाद में उससे अलग हो गया। आज भी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा को देखकर समुद्र के हृदय में ज्वार आता है, मानो यह पृथ्वी और चन्द्रमा के प्रेम का परिचायक हो।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि का मानना है कि विश्व की उन्नति तभी सम्भव होगी, जब हम आपसी भेदभाव भुलाकर परस्पर प्रेम से रहेंगे।
- भाषा-साहित्यिक खड़ी-बोली
- शैली-प्रतीकात्मक एवं भावात्मक
- गुण-प्रसाद
- रस– शान्त
- छन्द– तुकान्त-मुक्त
- अलंकार– अनुप्रास- अलंकार ‘स्वर्ण सृजन’ और ‘प्रीति परस्पर’ में क्रमशः ‘स’ तथा ‘प’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।