वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-1▼
प्रश्न 1. “जीव-जन्तुओं और प्राकृतिक वनस्पतियों में गहन सम्बन्ध है।” इस कथन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : किसी प्रदेश के जीव-जन्तुओं और प्राकृतिक वनस्पतियों में गहन सम्बन्ध होता है। प्राकृतिक वनस्पति से जीव-जन्तुओं को न केवल भोजन ही प्राप्त होता है, अपितु सुरक्षित प्राकृतिक आवास भी सुलभ होता है। वास्तव में, ये जीव-जन्तु जहाँ पर भी अपना रैन बसेरा बना लेते हैं, वहाँ के पारितन्त्र में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यद्यपि जीव-जन्तु एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्वतन्त्र विचरण करते हैं, परन्तु जीव-जन्तुओं की प्रत्येक जाति जलवायु-दशाओं में सीमित परिवर्तनों को ही सहन कर सकती है। उनकी शारीरिक संरचना, रंग-रूप, भोजन की आदतें आदि सभी उनके प्राकृतिक पर्यावरण के अनुरूप होते हैं। पर्यावरणीय दशाओं में परिवर्तन हो जाने से जीव-जन्तु स्वयं को उनके अनुसार कुछ सीमा तक ढाल लेते हैं अथवा वहाँ से प्रवास कर जाते हैं। पक्षियों का मौसमी प्रवास महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कुछ वन क्षेत्रों में तो जीव-जन्तुओं की नवीन प्रजातियाँ विकसित हो
जाती हैं। उदाहरण के लिए रेण्डियर टुण्ड्रा एवं टैगा वनस्पति का वन्य प्राणी है जो विषुवतीय सदाबहार वनस्पति के क्षेत्रों में अपना प्राकृतिक आवास निर्मित नहीं कर सकता। इसी प्रकार विषुवतीय वन प्रदेशों का स्थूलकाय प्राणी हाथी, टुण्ड्रा एवं टैगा प्रदेशों में अपना आवास नहीं बना सकता है।
इस प्रकार जीव-जन्तु और प्राकृतिक वनस्पति परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं।
प्रश्न 2. पारिस्थितिक तन्त्र किसे कहते हैं? वन एवं वन्य जीर्वों के लिए इसका क्या महत्त्व है?
उत्तर : पेड़-पौधे (वनस्पति), जीव-जन्तु, सूक्ष्म जीवाणु तथा भौतिक पर्यावरण मिलकर पारितन्त्र की रचना करते हैं। इसे पारिस्थितिक तन्त्र (Ecosystem) भी कहते हैं। “पारिस्थितिकी जीवविज्ञान का वह भाग है जिसके द्वारा हमें जीव तथा पर्यावरण की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं का बोध होता है।” इस प्रकार विभिन्न जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों द्वारा पुनः उनका भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धों का अध्ययन पारिस्थितिक विज्ञान (Ecology) कहलाता है। जीव और उसका पर्यावरण प्रकृति के जटिल तथा गतिशील घटक हैं। पर्यावरण अनेक कारकों द्वारा निर्धारित होता है। ये कारक जीवों को प्रभावित करते रहते हैं। जीव भी अपनी वृद्धि, व्यवहार तथा जीवन-वृत्त के पारस्परिक प्रभाव से पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। किसी क्षेत्र में रहने वाले जीव-जन्तु एवं पादप एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, परन्तु उनमें परस्पर तथा भौतिक पर्यावरण के साथ पदार्थों एवं ऊर्जा का विनिमय होता रहता है। निरन्तर पारस्परिक क्रियाओं के कारण पारितन्त्र भी उतना ही गतिशील हो जाता है जितना कि भौतिक पर्यावरण। विभिन्न प्रकार के जीव भौतिक पर्यावरण में होने वाले किसी भी परिवर्तन के अनुसार स्वयं को ढाल लेते हैं अर्थात् वे भौतिक पर्यावरण का अपनी आवश्यकतानुसार अनुकूलन कर लेते हैं।
प्रश्न 3. जैव विविधता का अर्थ व मानव-जीवन के लिए इसका महत्त्व बताइए। [2020, NCERT EXERCISE]
उत्तर :जैव विविधता का अर्थ–
जैव विविधता जीवमण्डलों में पाए जाने वाले जीवों की विभिन्न जातियों में पायी जाने वाली विविधता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैव विविधता वनस्पति एवं प्राणियों में पाए जाने वाले जातीय विभेद को प्रकट करती है। भू-पृष्ठ पर वर्तमान जैव विविधता अरबों वर्षों से हो रहे जीवन के सतत विकास की प्रक्रिया का परिणाम है। पर्यावरण हास के कारण जैव-विविधता का क्षय हुआ है। जीवों की अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं तथा कई संकटग्रस्त हैं।
मानव जीवन के लिए महत्त्व–
मानव अपने उत्पत्तिकाल से ही विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति जीव जगत से ही करता चला आ रहा है। मानव को भोजन, आवास एवं परिवेश सम्बन्धी विभिन्न आवश्यकताओं और अपने अस्तित्व के लिए जैव विविधता पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जैव विविधता के उपभोग की दृष्टि से ही मानव ने अधिक उपयोगी प्राणियों और पौधों का पालतूकरण किया। कृषि एवं पशुपालन इसी आवश्यकता का परिणाम है।
प्रश्न 4. भारत में वानस्पतिक विविधता क्यों पायी जाती है?
उत्तर : प्राकृतिक वनस्पति राष्ट्र की अमूल्य निधि है। देश की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए प्राकृतिक वनस्पति का सर्वोपरि स्थान है। भारत की प्राकृतिक वनस्पति पर धरातलीय संरचना, जलवायु आदि का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। भारत में अपनी विशालता के कारण देश के उच्चावच, जलवायु, वार्षिक वर्षा की मात्रा और मृदा संरचना में पर्याप्त भिन्नता और विविधता पायी जाती है। वनस्पति की विविधता भी उपर्युक्त तथ्यों में ही छिपी है। इन तथ्यों का प्रत्यक्ष प्रभाव वनस्पति-जगत पर पड़ता है। भारत मानसूनी जलवायु वाला देश है, जहाँ वर्षा ग्रीष्म ऋतु में होती है। अतः यहाँ सदाबहार वनों के स्थान पर मानसूनी अथवा पर्णपाती वन उगते हैं। अधिकांश भागों में 100 से 200 सेमी के मध्य वर्षा होती है जिस कारण ग्रीष्मकाल की शुष्कता सहन करने के लिए वसन्त ऋतु में वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इन वनों में घास केवल वर्षा ऋतु में उगती है जो बाद में सूख जाती है। हिमालय पर्वतीय प्रदेश में ऊँचाई एवं वर्षा की मात्रा के आधार पर सदाबहार वनस्पति से लेकर टुण्ड्रा वनस्पति तक उगती है। 200 सेमी से अधिक वर्षा वाले हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों तथा पश्चिमी घाट पर सदाबहार वन उगते हैं। थार के मरुस्थल में 25 सेमी से भी कम वार्षिक वर्षा के कारण कँटीली झाड़ियों एवं कैक्टस के रूप में प्राकृतिक वनस्पति उगती है।
इस प्रकार भारत में छोटी-छोटी झाड़ियों से लेकर सघन वन और ध्रुवीय (टुण्ड्रा) वनस्पति से लेकर उष्ण कटिबन्धीय वनस्पति तक उगती है।
प्रश्न 5. मानव क्रियाएँ किस प्रकार प्राकृतिक वनस्पतिजात और प्राणिजात के ह्रास की कारक हैं? [NCERT EXERCISE]
उत्तर : मानव ने अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रकृति के अनेक पदार्थों को संसाधनों में परिवर्तित कर लिया है। इसी कारण मानव ने वन एवं वन्य जीवों को भारी नुकसान पहुँचाया है। भारत में वनों एवं वन्य जीवों की सबसे अधिक हानि उपनिवेश काल में रेललाइन, कृषि व्यवसाय, वाणिज्य, वानिकी और खनन क्रियाओं में वृद्धि से हुई है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जैसे-जैसे जनसंख्या में वृद्धि हुई, जैव विविधता का विनाश और भी अधिक तीव्र गति से हुआ। कृषि के अतिरिक्त मानव ने बड़े बाँध और आवास भी बनाए हैं। भूमि के इस उपयोग से भी जैव विविधता का ह्रास हुआ है। अतः मानव अन्य सभी कारकों की अपेक्षा जैव विविधता के ह्रास एवं विनाश के लिए अपेक्षाकृत अधिक उत्तरदायी है।
प्रश्न 6. वे प्रतिकूल कारक कौन-से हैं जिससे वनस्पतिजात और प्राणिजात का ऐसा भयानक ह्रास हुआ है?
उत्तर : वे प्रतिकूल कारक जिनसे वनस्पतिजात और प्राणिजात का तीव्र गति से ह्रास हुआ निम्नलिखित हैं-
(1) उपनिवेश काल में रेलवे लाइनों का विस्तार, (2) वनों को नष्ट करके कृषि-भूमि का विस्तार, (3) वाणिज्य वानिकी, (4) खनन क्रियाएँ, (5) बड़ी विकास परियोजनाओं का निर्माण, (6) पशुचारण व ईंधन के लिए कटाई, (7) आखेट, तथा (8) पर्यावरणीय प्रदूषण या विषाक्तीकरण।
प्रश्न 7. ‘चिपको आन्दोलन’ क्या है? [2020]
उत्तर: ‘चिपको आन्दोलन’ पर्यावरण रक्षा का एक आन्दोलन है। यह आन्दोलन भारत के उत्तराखण्ड (तब उत्तर प्रदेश) में किसानों ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। वे राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उन पर अपना परम्परागत अधिकार मानते थे। यह आन्दोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में सन् 1970 में प्रारम्भ हुआ। इसके प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी थे।
वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-2
प्रश्न 1. वन संरक्षण का अर्थ बताइए तथा इसके संरक्षण की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : वन संरक्षण
वन संरक्षण का अर्थ है- वनों का विवेकपूर्ण उपयोग और वन क्षेत्र में वृद्धि करना। वन क्षेत्रों का अभाव हो जाने से पर्यावरण असन्तुलन के अनेक दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। वर्तमान में सरकार ने भी इस ओर ध्यान दिया है तथा राष्ट्रीय वन नीति, 1952 और संशोधित राष्ट्रीय वन नीति, 1988 घोषित की है. जिसके अनुसार कुल भूमि के एक-तिहाई भाग पर वन होने चाहिए। वन महोत्सव और सामाजिक वानिकी कार्यक्रम इसी दिशा में हमारे बढ़ते कदम हैं।
वन संरक्षण की आवश्यकता–
वस्तुतः वन सम्पदा हमारी अमूल्य धरोहर है, हमें इसे नष्ट नहीं करना चाहिए। हमारा कर्त्तव्य होना चाहिए कि हम इसमें वृद्धि कर आगे आने वाली पीढ़ियों को दें। वन संरक्षण की आवश्यकता के निम्नलिखित कारण महत्त्वपूर्ण है-
- (1) लगभग 50 टन भार का एक सामान्य वृक्ष स्वाभाविक रूप से अपने अन्त तक पर्यावरण में ऑक्सीजन देकर, मृदा क्षरण को रोककर, प्रदूषण कम करके प्रोटीन तथा अन्य उत्पादों के माध्यम से लगभग 15 लाख 70 हजार रुपये का लाभ मानव समाज को देता है।
- (2) वनों का अन्धाधुन्ध कटाव सभ्य समाज का अविवेकपूर्ण कृत्य है। ऐसा करके हम विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
- (3) वनों का शोषण बाढ़ के साथ ही सूखे और भू-क्षरण के लिए भी उत्तरदायी है। देश के लगभग 25 लाख हेक्टेयर भू-भाग का बाढ़ग्रस्त होना तथा 140 लाख हेक्टेयर भू-भाग में मृदा क्षरण की समस्या का मूल कारणं वनों की अन्धाधुन्ध कटाई ही है।
- (4) पृथ्वी के बढ़ते ताप से मौसम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसी कारण देश के हिम क्षेत्रों का निरन्तर पीछे हटना और विलुप्त होना भावी संकट का संकेत है जिसका मूल कारण वनों का विनाश ही है।
- (5) अनियन्त्रित आखेट , पनबिजली परियोजनाओ, खानों (खनन कार्य) और खेतिहर भूमि के विस्तार के कारण जंगलों का भारी विनाश हुआ है, जिस कारण वन्य जीवों की बहुत-सी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं।
प्रश्न 2. वन और वन्य जीव संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों पर एक निबन्ध लिखिए। [NCERT EXERCISE]
उत्तर : भारत में प्रकृति एवं उसके तत्त्वों के प्रति आस्था-पूजा सदियों पुरानी परम्परा रही है। शायद इन्हीं विश्वासों के कारण विभिन्न वनों को मूल एवं कौमार्य रूप में आज भी बचाकर रखा है, जिन्हें पवित्र पेड़ों के झुरमुट या देवी-देवताओं के वन कहते हैं।
भारतीय समाज में विभिन्न संस्कृतियाँ हैं और प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति और इसकी कृतियों को संरक्षित करने के अपने-अपने पारम्परिक तरीके हैं। आमतौर पर झरनों, पहाड़ी चोटियों, पेड़ों और पशुओं को पवित्र समझकर उनके सम्मान और संरक्षण के लिए एक रिवाज बना दिया गया है। कुछ समाज कुछ विशेष पेड़ों जैसे पीपल, बरगद, महुआ, बेल आदि की पूजा करते हैं। तुलसी और पीपल के वृक्ष देव-निवास समझे जाते हैं। विभिन्न धार्मिक आयोजनों में इनका विभिन्न रूपों में उपयोग किया जाता है। छोटा नागपुर क्षेत्र में मुण्डा और संथाल जनजातियाँ महुआ और कदम्ब के पेड़ों की पूजा करते हैं। ओडिशा और बिहार की जनजातियाँ शादी के समय इमली और आम के पेड़ की पूजा करती हैं। इसी प्रकार गाय, बन्दर, लंगूर आदि की लोग उपासना करते हैं। राजस्थान में विश्नोई समाज के गाँवों के आस-पास काले हिरण, चिंकारा, नीलगाय और भौरों के झुण्ड हैं जो वहाँ के अभिन्न अंग हैं यहाँ इनको कोई नुकसान नहीं पहुँचता तथा इनका संरक्षण किया जाता है। अतः हिन्दू एवं विभिन्न जातीय समुदायों द्वारा ऐसी अनेक धार्मिक परम्पराएँ हैं जिनके द्वारा वन और वन्य जीव संरक्षण में रीति-रिवाज सहयोग प्रदान करते हैं।