तेजस्वी मन के सम्पादित अंश : ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर
1. मैं खासतौर से युवा छात्रों से ही क्यों मिलता हूँ? इस सवाल का जवाब तलाशते हुए मैं अपने छात्र-जीवन के दिनों के बारे में सोचने लगा। रामेश्वरम् के द्वीप से बाहर निकल कर यह कितनी लम्बी यात्रा रही। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो विश्वास नहीं होता। आखिर वह क्या था, जिसके कारण यह संभव हो सका? महत्वाकांक्षा? कई बातें मेरे दिमाग में आती हैं। मेरा ख्याल है कि सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि मैंने अपने योगदान के मुताबिक ही अपना मूल्य आँका। बुनियादी बात जो आपको समझनी चाहिए वह यह है कि आप जीवन की अच्छी चीजों को पाने का हक रखते हैं, उनका जो ईश्वर की दी हुई हैं। जब तक हमारे विद्यार्थियों और युवाओं को यह भरोसा नहीं होगा कि वे विकसित भारत के नागरिक बनने के योग्य हैं तब तक वे जिम्मेदार और ज्ञानवान नागरिक भी कैसे बन सकेंगे।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक गद्य-गरिमा में संकलित डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा लिखित ‘तेजस्वी मन के सम्पादिश अंश’ नामक लेख सेउद्धृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक अपने छात्र जीवन के विषय में सोचते हुए प्रगति के लिए स्वयं के महत्त्व को पहचानने पर बल देता है।
व्याख्या लेखक स्वयं की युवा छात्रों से मिलने की प्रवृत्ति पर प्रश्न अंकित करते हुए सोचता है कि वह मुख्य रूप से युवा छात्रों से ही क्यों मिलता है। इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए वह अपने छात्र जीवन के विषय में सोचने लगता है कि रामेश्वरम् द्वीप से बाहर निकलकर जीवन में प्राप्त की गई उपलब्धियों की यात्रा कितनी लम्बी रही। वह अपनी इन उपलब्धियों पर आश्चर्य प्रकट करता है, उसे इन पर विश्वास नहीं होता। इन उपलब्धियों को प्राप्त करने के मूल में क्या कारण था जिसके द्वारा वह इन्हे प्राप्त कर पाया इस प्रश्न के विषय में विचार करता है। मनुष्य का जीवन में बड़ा बनने का मूल कारण उसकी महत्त्वाकांक्षा है। मनुष्य इसी महत्त्वाकांक्षा के बल पर ही अपने जीवन में आगे बढ़ पाता है। लेखक महत्त्वाकांक्षा की प्रवृत्ति पर विचार-विमर्श करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि उसके द्वार समाज के प्रति दिए गए योगदान के अनुसार अपना मूल्यांकन करना ही महत्त्वपूर्ण था। वह कहता है कि जो मुख्य बात हमें समझनी चाहिए वह यह है कि मनुष्य को ईश्वर द्वारा प्रदत्त सभी वस्तुओं का उपभोग करने का अधिकार है। जब तक युवाओं और विद्यार्थियों को यह विश्वास नहीं होगा कि वे स्वयं विकसित राष्ट्र के नागरिक बनने के योग्य हैं, तब तक वे राष्ट्र के विकास एवं उन्नति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकते, क्योंकि राष्ट्र के विकास के लिए उन्हें स्वयं जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपना योगदान देना होगा।
साहित्यिक सौन्दर्य
- भाषा सहज, सरल व परिष्कृत है। वाक्य विन्यास सुगठित है।
- शैली विवेचनात्मक है।
- शब्द शक्ति अभिधा शब्द शक्ति है।
- विचार सौष्ठव लेखक द्वारा छात्र जीवन के विषय में सोचते हुए प्रगति के लिए स्वयं के महत्त्व को पहचानने पर बल दिया गया है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक युवा छात्रों से ही क्यों मिलता है?
उत्तर लेखक युवा छात्रों से ही इसलिए मिलता है, क्योंकि उसे युवा छात्रों से बातें करना अत्यधिक रुचिकर लगता था।
(ii) आप किन चीजों को पाने का हक रखते हैं?
उत्तर आप जीवन की अच्छी चीजों को पाने का हक रखते हैं, जो ईश्वर की दी हुई हैं।
(iii) उक्त पंक्तियों से आपको क्या प्रेरणा मिलती है?
उत्तर उक्त पंक्तियों से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि समाज के प्रति दिए गए योगदान के अनुसार अपना मूल्यांकन करना चाहिए। साथ ही राष्ट्र के विकास के लिए स्वयं जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपना योगदान देना चाहिए।
(iv) पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर पाठ का शीर्षक ‘तेजस्वी मन के सम्पादित अंश’ है तथा लेखक का नाम ए. पी. जे. अब्दुल कलाम है।
2. मैं यह नहीं मानता कि समृद्धि और अध्यात्म एक-दूसरे के विरोधी हैं या भौतिक वस्तुओं की इच्छा रखना कोई गलत सोच है। उदाहरण के तौर पर, मैं खुद न्यूनतम वस्तुओं का भोग करते हुए जीवन बिता रहा हूँ, लेकिन में सर्वत्र समृद्धि की कद्र करता हूँ, क्योंकि यह अपने साथ सुरक्षा तथा विश्वास लाती है, जो अन्ततः हमारी आजादी को बनाए रखने में सहायक है। आप आस-पास देखेंगे, तो पाएँगे कि खुद प्रकृति भी कोई काम आधे-अधूरे मन से नहीं करती। किसी बगीचे में जाइए। मौसम में आपको फूलों की बहार देखने को मिलेगी अथवा ऊपर की तरफ ही देखें, यह ब्रह्माण्ड आपके अनन्त तक फैला दिखाई देगा, आपके यकीन से भी परे।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक गद्य-गरिमा में संकलित डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा लिखित ‘तेजस्वी मन के सम्पादिश अंश’ नामक लेख सेउद्धृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने समृद्धि तथा अध्यात्म दोनों को मनुष्य के लिए आवश्यक बताते हुए समृद्धि यानी भौतिक प्रगति के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या लेखक यह नहीं मानता कि समृद्धि (भौतिकता) और अध्यात्म एक-दूसरे के विरोधी हैं। वे समृद्धि और अध्यात्म दोनों को ही समन्वयात्मक रूप से जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। यह सत्य है कि हम इस संसार में भौतिक दृष्टि से सफल होकर ही बेहतर जीवन व्यतीत करने में सफल हो सकते हैं। सभी प्रकार से सुखी व्यक्ति ही अध्यात्म की ओर आकृष्ट हो सकता है। अभावग्रस्त व्यक्ति अध्यात्म के विषय में सोच नहीं सकता। इसी कारण वे कहते हैं कि भौतिक वस्तुओं की इच्छा रखना किसी भी प्रकार से गलत नहीं है और न ही अध्यात्म विरोधी कार्य है। वे स्वयं का उदाहरण देते हुए न्यूनतम वस्तुओं का उपभोग करने की अपनी प्रवृत्ति के विषय में बताते हैं। उन्होंने आरम्भ से ही कम-से-कम वस्तुओं का उपभोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत किया, फिर भी वे आर्थिक समृद्धि का सम्मान करते हुए उसे व्यक्ति के जीवन में नितान्त आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार आर्थिक समृद्धि सुरक्षा तथा सम्मान लाती है। जब हम आर्थिक रूप से सम्पन्न होंगे तो हम सभी दृष्टियों से स्वयं को सुरक्षित महसूस करेंगे। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने पर हमारे मन में अपनी प्रगति, उन्नति, सुरक्षा के प्रति विश्वास बढ़ेगा। इसके माध्यम से हम अपनी आजादी एवं अस्तित्व को बनाए रखने में सफल हो सकेंगे। यदि हम अपने आस-पास के बगीचे में जाकर देखेंगे तो हमें पता चलेगा कि प्रकृति भी अपना कोई काम अधूरे मन से नहीं करती। बल्कि प्रसन्न होकर अपना काम करती दिखाई देती है। बगीचे में फूल अपनी डालियों पर खिले हुए नजर आएँगे यदि हम ऊपर आकाश की ओर देखेंगे तो ब्रह्माण्ड चारों ओर फैला दिखाई देगा। वह इतनी दूर तक और व्यापक रूप से फैला हुआ दिखाई देता है कि हम उसके व्यापक होने पर विश्वास भी नहीं कर सकते।
साहित्यिक सौंदर्य
- भाषा सहज, सरल व परिष्कृत है। वाक्य विन्यासे सुगठित है।
- शैली वर्णनात्मक है।
- शब्दशक्ति अभिधा शब्दशक्ति है।
- विचार सौष्ठव लेखक द्वारा समृद्धि तथा अध्याय दोनों को मनुष्य हेतु आवश्यक बताते हुए भौतिक प्रगति के महत्त्व को उजागर किया गया है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश ‘तेजस्वी मन के सम्पादित अंश’ से लिया गया है। इसके लेखक ‘ए. पी. जे. अब्दुल कलाम’ हैं।
(ii) लेखक अध्यात्म एवं भौतिकता को एक-दूसरे के समान मानने के विषय में क्या तर्क देता है?
उत्तर लेखक अध्यात्म एवं भौतिकता को एक-दूसरे के समान मानने के विषय में तर्क देते हैं कि समृद्धि अर्थात् धन, वैभव व सम्पन्नता को अध्यात्म के समान महत्त्व देते हुए उन्हें एक-दूसरे का विरोधी मानने से इनकार करते हैं तथा साथ ही वे भौतिकतावादी मानसिकता रखने वालों को गलत मानने के पक्षधर नहीं हैं।
(iii) भौतिक समृद्धि के महत्त्व के विषय में लेखक का मत स्पष्ट कीजिए।
उत्तर लेखक मनुष्य के जीवन में धन-वैभव, सम्पन्नता आदि को महत्त्वपूर्ण मानते हुए स्पष्ट करते हैं कि भौतिक सुख-सुविधाएँ मनुष्य में सुरक्षा एवं विश्वास का भाव उत्पन्न करती हैं, जो उनकी स्वतन्त्रता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं तथा मनुष्य में आत्मबल का संचार करती हैं।
(iv) लेखक के अनुसार मनुष्य को जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक वस्तुओं को किस प्रकार स्वीकार करना चाहिए?
उत्तर लेखक के अनुसार जिस प्रकार प्रकृति अपने सभी कार्य पूरे समान भाव से करती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन में वस्तुओं को भौतिक एवं आध्यात्मिक दो वर्गों में विभाजित नहीं करना चाहिए, अपितु उन्हें सहज भाव से एक स्वरूप स्वीकारते हुए जीवन को जीना चाहिए।
3. न्यूनतम में गुजारा करने और जीवन बिताने में भी निश्चित रूप से कोई हर्ज नहीं है। महात्मा गाँधी ने ऐसा ही जीवन जिया था, लेकिन जैसा कि उनके साथ था, आपके मामले में भी यह आपकी पसन्द पर निर्भर करता है। आपकी ऐसी जीवन-शैली इसलिए है, क्योकि इससे वे तमाम जरूरतें पूरी होती हैं, जो आपके भीतर की गहराइयों से उपजी होती हैं, लेकिन त्याग की प्रतिमूर्ति बनना और जोर-जबरदस्ती से चुनने-सहने का गुणगान करना अलग बातें हैं।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक गद्य-गरिमा में संकलित डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा लिखित ‘तेजस्वी मन के सम्पादिश अंश’ नामक लेख सेउद्धृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य को सदैव अपनी इच्छानुसार जीवन-शैली को अपनाना चाहिए, क्योकि स्वेच्छा पूर्ण कार्य ही आनन्द का साधन है।
व्याख्या लेखक कहता है कि कम-से-कम साधनों में जीवन व्यतीत करने में निश्चित रूप से कोई हानि नहीं है। जीवन में भौतिकता को सदैव निम्नस्तरीय माना गया है और न्यूनतम में जीवन व्यतीत करने को श्रेयस्कर कहा जाता है। वे महात्मा गांधी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि उन्होंने कम-से-कम साधनों का उपयोग करते हुए जीवन व्यतीत किया, क्योकि यह उनकी इच्छा थी। प्रत्येक मनुष्य की पसंद पर निर्भर करता है कि वह कैसा जीवन व्यतीत करना चाहता है। इसलिए मनुष्य को सदैव अपनी इच्छानुसार जीवन जीना चाहिए, क्योंकि इससे हमारी वे सारी जरूरतें पूरी होती हैं, जो स्वयं अन्तर्मन की गहराइयों से उत्पन्न होती है। व्यक्ति को त्याग की प्रतिमूर्ति बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए। किसी चीज़ को जोर-जबरदस्ती से चुनने तथा सहने का प्रयास करना अलग बात है। अतः यहाँ स्वेच्छा से जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया गया है।
साहित्यिक सौंदर्य
- भाषा सहज, सरल व परिष्कृत है। वाक्य विन्यास सुगठित है।
- शैली वर्णनात्मक है।
- शब्दशक्ति शब्दशक्ति अभिधा है।
- विचार सौष्ठव लेखक कहता है कि मनुष्य को अपनी इच्छा के अनुसार जीवन शैली को अपनाना चाहिए, क्योकि स्वेच्छा से किया गया कार्य ही आनन्द प्रदान करता है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(1) प्रस्तुत गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक गद्य-गरिमा में संकलित डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा लिखित ‘तेजस्वी मन के सम्पादित अंश’ नामक लेख से उद्धृत है।
(ii) लेखक महात्मा गांधी के जीवन का उदाहरण देकर क्या स्पष्ट करना चाहता है?
उत्तर लेखक महात्मा गांधी के जीवन का उदाहरण देकर यह स्पष्ट करना चाहता है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए। उन्हें दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने हेतु इच्छा के विपरीत त्याग की प्रतिमूर्ति नहीं बनना चाहिए।
(iii) मनुष्य को सदैव किस प्रकार की जीवन-शैली को अपनाना चाहिए?
उत्तर मनुष्य को सदैव अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए, क्योंकि इससे हमारी वे सारी जरूरतें पूरी होती हैं, जो स्वयं हमारे अन्तर्मन की गहराइयों से निःसृत होती है अर्थात् मनुष्य को सदैव अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीवन-शैली को अपनाना चाहिए। अनावश्यक रूप से त्याग करने का प्रयास ठीक नहीं होता।
(iv)प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक क्या सन्देश देना चाहता है?
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक भौतिकता या भौतिकता रहित जीवन दोनों में से किसी एक को महत्त्व न देकर यह सन्देश देना चाहते हैं कि हमें अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए।