वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-1
प्रश्न 1. लोकतन्त्र में औपचारिक तथा अनौपचारिक रूप से मतभेदों की अभिव्यक्ति की विधि अथवा तरीकों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : लोकतन्त्र में औपचारिक रूप से असन्तोष की अभिव्यक्ति को संवैधानिक संस्थाओं- संसद अथवा राज्य विधानमण्डलों में अपनी असम्मति अथवा राजनीतिक मतभेदों के रूप में व्यक्त किया जा सकता है लेकिन अनौपचारिक रूप से लोकतन्त्र में मतभेदों की अभिव्यक्ति अनेक जनसंचार के साधनों जैसे रेडियो, दूरदर्शन, समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, सिनेमा आदि द्वारा की जाती है। इसके लिए धरना, प्रदर्शनों, सभाओं तथा हड़तालों का भी सहारा लिया जाता है।
प्रश्न 2. महत्त्वपूर्ण लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
उत्तर : महत्त्वपूर्ण लोकतान्त्रिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- (1) कानून सवर्वोपरि होता है। यह कानून के शासन में विश्वास करता है।
- (2) कानून निर्माताओं तथा निर्णयकर्ताओं की जनता के प्रति जवाबदेही होती है। यह उत्तरदायी शासन का समर्थन करता है।
- (3) सभी व्यक्तियों को न्यायपालिका तथा राष्ट्र के संविधान के प्रति आस्था तथा विश्वास को बनाए रखना चाहिए।
- (4) स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व तथा सामाजिक न्याय की धारणाएँ लोकतान्त्रिक व्यवस्था की आत्मा है।
- (5) लोकतन्त्र में धर्मनिरपेक्षता, जनकल्याणकारी नीतियों तथा कार्यक्रमों पर विशेष बल दिया जाता है।
प्रश्न 3. लोकतन्त्र की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर : लोकतन्त्र की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- प्रतिनिधित्व का आधार लौकिक- लोकतन्त्र में जनता का प्रतिनिधित्व होता है। इसमें प्रतिनिधित्व का आधार दैवी न होकर लौकिक होता है।
- सार्वजनिक हितों का संरक्षक- शासन की अन्य प्रणालियों की अपेक्षा लोकतन्त्र जनता के सार्वजनिक हितों का संरक्षण करता है। इस शासन-व्यवस्था में जनता स्वयं अपने हितों को अपनी सरकार के संरक्षण में दे देती है और सरकार उनकी रक्षा करती है।
- उत्तरदायित्व की भावना – लोकतन्त्र में सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। सरकार को जनता के हितों की सुरक्षा और उसकी उन्नति सम्बन्धी अपने कर्त्तव्य का पालन आवश्यक रूप से करना होता है। यदि वह ऐसा नहीं करती है तो उसे जनता द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है।
- लिखित संविधान – लोकतन्त्र की एक विशेषता यह है कि राज्य का संविधान लिखित होना चाहिए। यद्यपि इंग्लैण्ड में संविधान के अलिखित होने पर भी लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली सफलतापूर्वक कार्य कर रही है, परन्तु यह एक अपवाद है।
- वयस्क अथवा सार्वभौमिक मताधिकार – लोकतन्त्र की यह भी एक विशेषता है कि इसमें वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त का पालन किया जाता है। वयस्क मताधिकार का अभिप्राय यह है कि राज्य में सभी व्यक्तियों को एक निश्चित आयु प्राप्त होने पर स्वतः ही मत देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। उपर्युक्त विशेषताएँ लोकतन्त्र को मजबूत आधार प्रदान करती है।
प्रश्न 4. सत्ता की साझेदारी क्यों आवश्यक है?
उत्तर : सत्ता की साझेदारी निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है-
- टकराव को रोकने के लिए – सत्ता की साझेदारी आवश्यक है क्योंकि यह सामूहिक समूहों के मध्य संघर्ष की सम्भावना को कम करती है। सामाजिक टकराव, आगे चलकर अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है। इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है।
- लोकतन्त्र की आत्मा – सत्ता की साझेदारी प्रजातन्त्र का आधार है, यह इसके विकास के लिए आवश्यक है। आधुनिक प्रजातन्त्र में शक्ति जनता के हाथों में निहित रहती है। इसका प्रयोग जनता निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा करती है। इस प्रकार समस्त समूह सत्ता में भागीदारी के माध्यम से शासन व्यवस्था में जुड़े रहते हैं।
वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-2▼
प्रश्न 1. आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अलग-अलग तरीके क्या हैं? इनमें से प्रत्येक का एक उदाहरण भी दें।
अथवा ‘सत्ता की साझेदारी जनतन्त्र की आत्मा है।’ बेल्जियम तथा श्रीलंका का उदाहरण देकर विवेचना कीजिए।
उत्तर : आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी सत्ता की साझेदारी को जनतन्त्र की आत्मा कहा गया है। आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओ में सत्ता की साझेदारी के प्रमुख रूप निम्नलिखित है-
1. शासन के तीनों अंगों द्वारा सत्ता की साझेदारी– सामान्यतया शासन के तीन अंग होते हैं-
- कार्यपालिका,
- विधायिका,
- न्यायपालिका।
शासन के इन तीनों अंगों में सत्ता की साझेदारी होती है।
2. जातीय (नस्लीय) अथवा भाषायी समूहों में सत्ता की साझेदारी–
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता की साझेदारी में जातीय अथवा भाषायी समूहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत में जब प्रधानमन्त्री केन्द्र स्तर पर तथा मुख्यमन्त्री राज्य स्तर पर मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है तो वह राष्ट्र के सभी धर्मों, वगों, जातियों, भाषाओं तथा स्त्री-पुरुषों को अपने मन्त्रिपरिषद् में प्रतिनिधित्व प्रदान. करता है। उदाहरण के लिए बेल्जियम में नेतागण शासन की सत्ता को तीन भिन्न भाषायी समूहों में विभाजित करते हैं। बेल्जियम के संविधान में यह भी व्यवस्था है कि केन्द्र सरकार में डच तया फ्रांसीसी भाषा बोलने वाले मन्त्रियों की संख्या समान होगी। श्रीलंका ऐसा न कर सका। वहाँ तमिलों को अनेक संकटों का सामना करना पड़ रहा है। सिंहली समुदाय तमिलों को सत्ता में साझेदार बनाने के पक्ष में नहीं है।
3. जनसामान्य की सत्ता में साझेदारी– अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में यद्यपि सामान्य जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन की गतिविधियों में भाग लेती है परन्तु स्विट्जरलैण्ड जैसे अनेक राष्ट्रों में जनमत संग्रह, लोकनिर्णय, आरम्भक तथा रिकॉल (recall) जैसी प्रक्रियाओं को अपनाकर जनता ने प्रत्यक्ष रूप से भी शासन सत्ता में अपनी साझेदारी सुनिश्चित कर ली है। लोकतन्त्र में राजनीतिक शक्ति का स्रोत जनता होती है। नीतियों तथा निर्णयों के निर्माण एवं कार्यान्वयन में जनता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
4. विभिन्न राजनीतिक दलों, दबाव अथवा हित समूहों में सत्ता की साझेदारी- सरकार के निर्माण में राजनीतिक दलो तथा दबाव समूहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक शक्ति तथा सत्ता को नियोजित किया जाता है जिससे लोककल्याणकारी कार्यों में वृद्धि हो सके। लोकतन्त्र में सत्ताधारी दल द्वारा शासन के विभिन्न स्तरों पर सत्ता का भोग किया जाता है। लोकतन्त्र में जहाँ सत्ताधारी दल की विशिष्ट स्थिति व भूमिका होती है, वहाँ विरोधी दल को भी सत्ता में भागीदारी के विभिन्न अवसर प्रदान किए जाते हैं। जब एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता, तब विभिन्न दलो की मिली-जुली (गठबन्धन) सरकार का निर्माण किया जाता है। दवाव अथवा हित समूहों द्वारा आन्दोलनों, प्रदर्शनों, सत्याग्रहों तथा हड़तालों द्वारा अपने हितों की पूर्ति की जाती है। ये अपनी मांगों को मनवाने के लिए शासन पर निरन्तर दबाव बनाए रखते हैं।
प्रश्न 2. 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन की स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र को मजबूत करने में क्या भूमिका रही है? विवेचना कीजिए।
अथवा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तीसरे स्तर को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए भारत सरकार द्वारा 1992 में उठाए गए कदमों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : संसद में 1992 में संविधान का 73वाँ तथा 74वाँ संशोधन पारित किया गया। इन संशोधनों द्वारा स्थानीय स्वायत्त शासन संस्थाओं में ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के व्यक्तियों की प्रभावशाली भागीदारी को सुनिश्चित करने का सार्थक प्रयास किया गया है। इन संशोधनों का राजनीतिक व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। इसे निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है-
- (1) इन संशोधनों ने ग्रामीण क्षेत्र में पंचायती राज व्यवस्था तथा शहरी क्षेत्र में नगरपालिकाओं तथा नगर निगमों को व्यापक अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की हैं।
- (2) पंचायती राज व्यवस्था को अब संवैधानिक स्तर प्रदान किया गया है। अब ये संस्थाएँ राज्य सरकारों की दया पर निर्भर नहीं हैं।
- (3) इन संस्थाओं के नियत समय पर चुनाव कराने की व्यवस्था सुनिश्चित की गई है। इन संस्थाओं को अब धन केन्द्र सरकार से सीधे प्राप्त होता है।
- (4) इन संस्थाओं को कार्यों सम्बन्धी तथा वित्त सम्बन्धी स्वायत्तता भी प्रदान की गई है।
- (5) इन अधिनियमों के पारित होने के पश्चात् स्थानीय स्वायत्त सरकारों को संसद तथा विधानमण्डलों द्वारा मान्यता प्राप्त हो गई है।
- (6) 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन ने हमारे देश के लोकतन्त्र को निचले पायदान (Grass-root level) तक पहुँचा दिया है। स्थानीय स्वायत्त सरकारों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित किए गए हैं। अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी स्थान आरक्षित किए गए हैं।
- (7) प्रत्येक पाँच वर्ष के उपरान्त अनिवार्य रूप से इन सरकारों के निर्वाचन -(चुनाव) कराए जाते हैं। यदि किसी कारणवश कोई स्थान रिक्त हो जाता है तो छह महीने की अवधि में उस स्थान के लिए चुनाव कराया जाता है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन की स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र को मजबूत करने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।