रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना, (2) प्रदूषण का अर्थ, (3) विभिन्न प्रकार के प्रदूषण (क) वायु-प्रदूषण, (ख) जल-प्रदूषण, (ग) रेडियोधर्मी प्रदूषण, (घ) ध्वनि प्रदूषण, (ङ) रासायनिक प्रदूषण, (4) प्रदूषण पर नियन्त्रण, (5) उपसंहार।
प्रस्तावना –
चौदहवीं शताब्दी में मुहम्मद तुगलक के जीवनकाल में इस्लामी दुनिया का प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता भारत आया था। अपने संस्मरणों में उसने गंगाजल की पवित्रता और निर्मलता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मुहम्मद तुगलक ने जब दिल्ली छोड़कर दौलताबाद को अपनी राजधानी बनाया तो उसकी अन्य प्राथमिकताओं में अपने लिए गंगा के जल का प्रबन्ध भी सम्मिलित था। गंगाजल को ऊँट, घोड़े और हाथियों पर लादकर दौलताबाद पहुँचाने में डेढ़-दो महीने लगते थे। कहा जाता है कि गंगाजल तब भी साफ और मीठा बना रहता था। तात्पर्य यह है कि गंगाजल हमारी आस्थाओं और विश्वासों का प्रतीक इसी कारण बना था; क्योंकि वह सभी प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त था, किन्तु अनियन्त्रित औद्योगीकरण, हमारे अज्ञान एवं लोभ की प्रवृत्ति ने देश की अन्य नदियों के साथ गंगा को भी प्रदूषित कर दिया है। वैज्ञानिकों का विचार है कि तन-मन की सभी बीमारियों को धो डालने की उसकी ओषधीय शक्तियाँ अब समाप्त होती जा रही हैं। यदि प्रदूषण इसी गति से बढ़ता रहा तो गंगा के शेष गुण भी शीघ्र ही नष्ट हो जाएँगे और तब ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ वाली उक्ति निरर्थक हो जाएगी।
प्रदूषण का अर्थ-
प्रदूषण वायु, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं में होनेवाला वह अवांछनीय परिवर्तन है, जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक दूसरे जन्तुओं, पौधों, औद्योगिक संस्थानों तथा दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुंचाता है।
जीवधारी अपने विकास और व्यवस्थित जीवनक्रम के लिए एक सन्तुलित वातावरण पर निर्भर करते हैं। सन्तुलित वातावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहते हैं। कभी-कभी वातावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा कम अथवा अधिक हो जाया करती है या वातावरण में कुछ हानिकारक घटको का प्रवेश हो जाता है; परिणामतः वातावरण दूषित हो जाता है, जो जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है। इसे ही प्रदूषण कहते हैं।
विभिन्न प्रकार के प्रदूषण-
प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक एवं रासायनिक कचरे ने जल ही नहीं, वायु और पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है। भारत जैसे देशों में तो घरेलू कचरे और गन्दे जल की निकासी का प्रश्न ही विकराल रूप से खड़ा हो गया है। विकसित और विकासशील सभी देशों में विभिन्न प्रकार के प्रदूषण विद्यमान हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
(क) वायु-प्रदूषण-
वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। जीवधारी अपनी क्रियाओं द्वारा वायुमण्डल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बनाए रखते हैं। अपनी श्वसन प्रक्रिया द्वारा हम ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। हरे पौधे प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन निष्कासित करते रहते हैं। इससे वातावरणमें ऑक्सीजन और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का सन्तुलन बना रहता है, किन्तु मानव अपनी अज्ञानता औरआवश्यकता के नाम पर इस सन्तुलन को बिगाड़ता रहता है। इसे ही वायु-प्रदूषण कहते हैं।
वायु-प्रदूषण का मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे श्वास सम्बन्धी बहुत-से रोग हो जाते हैं। इनमें फेफड़ों का कैंसर, दमा और फेफड़ों से सम्बन्धित दूसरे रोग सम्मिलित हैं। वायु में विकिरित अनेक धातुओं के कण भी बहुत-से रोग उत्पन्न करते हैं। सीसे के कण विशेष रूप से नाड़ीमण्डल सम्बन्धी रोग उत्पन्न करते हैं। कैडमियम श्वसन-विष का कार्य करता है, जो रक्तदाब बढ़ाकर हृदय सम्बन्धी बहुत-से रोग उत्पन्न कर देता है। नाइट्रोजन ऑक्साइड से फेफड़ों, हृदय और आँखों के रोग हो जाते हैं। ओजोन नेत्र-रोग, खाँसी एवं सीने की दुःखन उत्पन्न करती है। इसी प्रकार प्रदूषित वायु एग्जीमा तथा मुँहासे आदि अनेक रोग उत्पन्न करती है।
(ख) जल-प्रदूषण-
सभी जीवधारियों के लिए जल बहुत महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है। पौधे भी अपनाभोजन जल के माध्यम से ही प्राप्त करते हैं। यह भोजन पानी में घुला रहता है। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्त्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं। यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाते हैं तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है केन्द्रीय जल-स्वास्थ्य इंजीनियरिंग अनुसन्धान संस्थान’ के अनुसार भारत में प्रति 1,00,000 व्यक्तियों में से 360 व्यक्तियों की मृत्यु आन्त्रशोथ (टायफॉइड, पेचिश आदि) से होती है, जिसका कारण अशुद्ध जल है। शहरों में भी शत-प्रतिशत निवासियों के लिए स्वास्थ्यकर पेयजल का प्रबन्ध नहीं है। देश के अनेक शहरों में पेयजल किसी निकटवर्ती नदी से लिया जाता है और प्रायः इसी नदी में शहर के मल-मूत्र और कचरे तथा कारखानों से निकलनेवाले अवशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित कर दिया जाता है, परिणामस्वरूप हमारे देश को अधिकांश नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है।
(ग) रेडियोधर्मी प्रदूषण –
परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणु परीक्षण के फलस्वरूप जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण निरन्तर बढ़ता जा रहा है। यह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं, वरन् आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा। विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमण्डल की बदा परतों में प्रवेश कर जाते हैं, जहाँ पर वे ठण्डे होकर संघनित अवस्था में बूँदों का रूप ले लेते हैं और बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु के झोंकों के साथ समस्त संसार में फैल जाते हैं। द्वितीय महायुद्ध में नागासाकी तथा हिरोशिमा में हुए परमाणु बम के विस्फोट से बहुत-से मनुष्य अपंग हो गए थे। प्रकार के प्रभावित क्षेत्रों की भावी भावी स सन्तति भी अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त होती है।
(घ) ध्वनि-प्रदूषण-
अनेक प्रकार के वाहन जैसे मोटरकार, बस, जेट विमान, ट्रैक्टर, लाउड्स्पीकर, बाजे एवं कारखानों के सायरन व विभिन्न प्रकार की मशीनों आदि से ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है। ध्वनि को लहरें जीवधारियों की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य के सुनने की शक्ति का हास होता है और उसे ठीक प्रकार से नींद भी नहीं आती। यहाँ तक कि ध्वनि प्रदूषण के प्रभावस्वरूप स्नायुतन्त्र पर कभी-कभी इतना दबाव पड़ जाता है कि पागलपन का रोग उत्पन्न हो जाता है।
(ङ) रासायनिक प्रदूषण-
प्रायः कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक, शाकनाशक और रोगनाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइड्स का अन्धाधुन्ध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचा रहा है। जब ये रसायन वर्षा के जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो ये समुद्री जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं किसी-न-किसी रूप में मानव शरीर भी इनसे प्रभावित होता है।
प्रदूषण पर नियन्त्रण-
पर्यावरण में होनेवाले प्रदूषण को रोकने व उसके समुचित संरक्षण के लिए विगत कुछ वर्षों से समस्त विश्व में एक नई चेतना उत्पन्न ई है। औद्योगीकरण से पूर्व हुई यह समस्या इतनी गम्भीर कभी नहीं हुई थी और न इस परिस्थिति की ओर वैज्ञानिकों व अन्य लोगों का उतना ध्यान ही गया था, किन्तु औद्योगीकरण और जनसंख्या दोनों ही की वृद्धि ने संसार के सामने प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न कर दी है ।
प्रदूषण को रोकने के लिए व्यक्तिगत और सरकारी दोनों ही स्तरों पर प्रयास आवश्यक हैं। जल-प्रदूषण के निवारण एवं नियन्त्रण के लिए भारत सरकार ने सन् 1974 ई० से ‘जल-प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम’ लागू किया है। इसके अन्तर्गत एक ‘केन्द्रीय बोर्ड’ व सभी प्रदेशों में ‘प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड’ गठित किए गए हैं। इन बोडों ने प्रदूषण नियन्त्रण की योजनाएँ तैयार की हैं तथा औद्योगिक कचरे के लिए भी मानक निर्धारित किए हैं।
उद्योगों के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए भारत सरकार ने हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय यह लिया है कि नए उद्योगों को लाइसेंस दिए जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था तथा पर्यावरण विशेषज्ञों से स्वीकृति भी प्राप्त करनी होगी। इसी प्रकार उन्हें धुएँ तथा अन्य प्रदूषणों के समुचित ढंग से निष्कासन और उसकी व्यवस्था का भी दायित्व लेना होगा।
वनों की अनियन्त्रित कटाई को रोकने के लिए कठोर नियम बनाए गए हैं। इस बात के प्रयास किए जा रहे है कि नए वनक्षेत्र बनाए जाएँ और जनसामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता से ही हम आनेवाले समय में और अधिक अच्छा एवं स्वास्थ्यप्रद जीवन व्यतीत कर सकेंगे और आनेवाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे।
उपसंहार-
जैसे-जैसे मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का विकास करता जा रहा है, प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। विकसित देशों द्वारा वातावरण का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ रहा है। यह एक ऐसी समस्या है; जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बाँधकर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है, इसलिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति पाने में सहायक हो सकता है।