प्रश्न 1. मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?
अथवा मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या योगदान दिया?
उत्तर : मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में निम्न प्रकार मदद की-
(1) मुद्रण संस्कृति से भारतीय महिलाओं को लाभ हुआ। उनमें जागृति उत्पन्न हुई। कई महिलाओं ने अपनी जीवनगाथा/आत्मकथाओं को लिखा और प्रकाशित कराया। उनमें राष्ट्र के प्रति जागरूकता आई।
(2) गरीबों ने अपने प्रिय प्रवक्ताओं अम्बेडकर, पेरियार, फूले आदि के विचारों को अपने निकट पाया। सस्ती पुस्तकों के प्रकाशन से गरीब पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई।
(3) 19वीं सदी के भारतीय सुधारकों ने अपने सुधारवादी विचारों को फैलाने के लिए मुद्रण संस्कृति को सबसे कारगर माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया। मुद्रण संस्कृति ने उन्हें धार्मिक अन्धविश्वासों को तोड़ने और आधुनिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों को फैलाने का मंच प्रदान किया।
इस प्रकार मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में अत्यधिक योगदान दिया।
प्रश्न 2. उन्नीसवीं सदी में मुद्रण संस्कृति का महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा? विवेचन कीजिए।
अथवा 19वीं सदी के भारत में मुद्रण संस्कृति ने महिलाओं को किस प्रकार प्रभावित किया ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : महिलाओं की जीवनी और उनकी भावनाएँ बड़ी साफगोई और गम्भीरता से लिखी जाने लगी। इसलिए मध्यमवर्गीय घरों में महिलाओं का पढ़ना भी पहले से अधिक हो गया। उदारवादी पिता और पति अपने यहाँ औरतों को घर पर पढ़ाने लगे और उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब बड़े-छोटे शहरों में स्कूल बने तो उन्हें स्कूल भेजने लगे। कई पत्रिकाओं ने लेखिकाओं को जगह दी और उन्होंने नारी-शिक्षा की आवश्यकता को बार-बार रेखांकित किया। इन पत्रिकाओं में पाठ्यक्रम भी प्रकाशित होता था और आवश्यकतानुसार पाठ्यसामग्री भी, जिसका उपयोग घर बैठे स्कूली शिक्षा के लिए किया जा सकता था।
प्रश्न 3. बटाला ने प्रकाशन जगत को किस प्रकार ख्याति दी?
उत्तर : बंगाल में केन्द्रीय कलकत्ता का एक पूरा क्षेत्र बटाला – लोकप्रिय पुस्तकों के प्रकाशन को समर्पित हो गया। यहाँ पर आप धार्मिक गुटकों और ग्रन्थों के सस्ते संस्करण तो खरीद ही सकते थे, साथ ही जो साधारण रूप से अश्लील और सनसनीखेज साहित्य समझा जाता था, वह भी उपलब्ध था। उन्नीसवी सदी के अन्त तक, ऐसी बहुत सारी पुस्तकों पर काठ की तख्ती और लिथोग्राफी रंगों की मदद से बड़ी संख्या में तसवीरें उकेरी जा रही थीं। फेरीवाले बटाला के प्रकाशन लेकर घर-घर घूमते थे, जिससे महिलाओं को आराम के क्षणों में मनपसन्द पुस्तकें पढ़ने में सरलता हो गई।
प्रश्न 4. मार्टिन लूथर कौन था? धार्मिक बहस को प्रारम्भ करने के लिए उसने मुद्रण कला का उपयोग किस प्रकार किया?
अथवा मार्टिन लूथर ने धार्मिक क्षेत्र में मुद्रण कला का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर : (1) मार्टिन लूथर एक धर्म सुधारक था। उसने 1512 ई० में रोमन कैथोलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करते हुए अपनी ‘पिचानवे स्थापनाएँ’ लिखीं और मुद्रण कला के प्रयोग से छपवाकर प्रकाशित किया।
(2) इसकी एक प्रकाशित प्रति बिटेनबर्ग के गिरजाघर के दरवाजे पर टाँगी गई।
(3) इसमें उसने चर्च शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी थी।
(4) जल्दी ही लूथर के लेख बड़ी संख्या में छापे और पढ़े जाने लगे।
इसके परिणामस्वरूप चर्च में विभाजन हो गया और प्रोटेस्टेण्ट धर्म सुधार की शुरुआत हुई।
प्रश्न 5. अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अन्त और ज्ञानोदय होगा? [NCERT EXERCISE]
उत्तर : 18वीं सदी में यूरोप में लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए जैसे लोगों का मत था कि मुद्रण संस्कृति जनता के उत्थान और दृष्टिकोण का सबसे शक्तिशाली साधन है। इसमें निरंकुशवाद को समाप्त करने व ज्ञान के विस्तार की शक्ति है।
प्रश्न 6. कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिन्तित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण देकर समझाएँ। [NCERT EXERCISE]
उत्तर : कुछ लोग पुस्तकों की सुलभता को लेकर अत्यन्त चिन्तित थे क्योंकि –
(1) उन्हें डर था कि इनसे विद्रोह और अधार्मिक विचारों का प्रस्फुटन होगा।
(2) यूरोप में रोमन कैथोलिक चर्च ने प्रतिबन्धित पुस्तकों की सूची बनाकर उन्हें मुद्रण से रोकने का प्रयास किया।
(3) भारत में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट ने भारतीय प्रेस और बहुत-से स्थानीय समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-2▼
प्रश्न 1. प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के पश्चात् प्रकाशित पुस्तकों ने यूरोपीय समाज में क्या बदलाव किए ? [2010]
उत्तर : सत्रहवीं और अठारहवीं सदी की अवधि में यूरोप के अधिकांश भागों में साक्षरता बढ़ती रही। अलग-अलग सम्प्रदाय के चर्चों ने गाँवों में स्कूल स्थापित किए और किसानों-कारीगरों को शिक्षित करने लगे। अठारहवीं सदी के अन्त तक यूरोप के कुछ भागों में तो साक्षरता दर 60 से 80 प्रतिशत तक हो गई थी। यूरोपीय देशों में साक्षरता और स्कूलों के प्रसार के साथ लोगों में पढ़ने का जैसे जुनून उत्पन्न हो गया। लोगों को पुस्तकें चाहिए थीं, इसलिए मुद्रक अधिक-से-अधिक पुस्तकें छापने लगे।
नये पाठकों की रुचि को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न प्रकार का साहित्य छपने लगा। पुस्तक विक्रेताओं ने गाँव-गाँव जाकर छोटी-छोटी पुस्तकों को बेचने वाले फेरीवालों को काम पर लगाया। ये पुस्तकें मुख्यतः पंचांग के अलावा लोक- गाथाएँ और लोकगीतों की हुआ करती थीं। लेकिन शीघ्र ही पुस्तकें मनोरंजन- प्रधान सामग्री के रूप में साधारण पाठकों तक पहुँचने लगीं। इंग्लैण्ड में पेनी चैपबुक्स या एकपैसिया किताबें बेचने वालों को चैपमेन कहा जाता था। इन पुस्तकों को गरीब लोग भी खरीदकर पढ़ सकते थे। फ्रांस में बिब्लियोथीक ब्ल्यू का चलन था, जो सस्ते कागज पर छपी और नीली जिल्द में बँधी छोटी पुस्तकें हुआ करती थीं। इसके अलावा चार-पाँच पन्ने की प्रेम-कहानियाँ थीं और अतीत की थोड़ी गाथाएँ थीं, जिन्हें ‘इतिहास’ कहते थे। आप देख सकते हैं कि अलग-अलग उद्देश्य और रुचि के हिसाब से पुस्तकों के कई आकार-प्रकार थे।
अठारहवीं सदी के आरम्भ में पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जिनमे समसामयिक घटनाओं की खबर के साथ मनोरंजन भी परोसा जाने लगा। अखबार और पत्रों में युद्ध और व्यापार से सम्बन्धित जानकारी के अलावा दूर देशों की खबरें होती थीं।
इसी प्रकार वैज्ञानिक और दार्शनिक भी साधारण जनता की पहुँच के बाहर नहीं रहे। प्राचीन व मध्यकालीन प्रन्थ संकलित किए गए और नक्शों के साथ-साथ वैज्ञानिक खाके भी बड़ी मात्रा में छापे गए। जब आइजैक न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कार प्रकाशित करने प्रारम्भ किए तो उनके लिए विज्ञान-बोध में रुचि रखने वाला एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार हो चुका था। टॉमस पेन, वॉल्टेयर और ज्याँ जाक रूसो जैसे दार्शनिकों की पुस्तके भी अधिक संख्या में छापी और पढ़ी जाने लगीं। स्पष्ट है कि विज्ञान, तर्क और विवेकवाद के उनके विचार लोकप्रिय साहित्य में भी स्थान पाने लगे।