जय सुभाष खण्डकाव्य
(लखनऊ, हरदोई, सहारनपुर, फैजाबाद, बादां एवं झांसी जिलों के लिए)
प्रश्न 1. ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य के सभी सर्ग का सारांश लिखिए।
उत्तर- ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य में अमर स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस का संक्षिप्त जीवन-परिचय है। विनोदचन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’ द्वारा रचित इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित की गई है। इसका सारांश निम्नलिखित है-
प्रथम सर्ग
इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग के अन्तर्गत सुभाषचन्द्र बोस के जन्म से लेकर उनके द्वारा शिक्षा ग्रहण करने तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। २३ जनवरी, 1897 की तिथि इतिहास में अत्यन्त विशिष्ट है, क्योंकि इसी दिन महान् सेनानायक सुभाषचन्द्र बोस का कटक में जन्म हुआ था। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस तथा माता श्रीमती प्रभावती देवी दोनों इस पुत्र-रत्न को पाकर धन्य हुए। सुभाष के रूप में तेजस्वी, सुन्दर और सलोना बालक पाकर घर और बाहर चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सुभाष की बाल-क्रीड़ाएँ देख-देखकर उनके माता-पिता हर्षित होते रहते थे। सुभाष के पिता एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। उनकी माता एक धर्मपरायण, उदार तथा साध्वी महिला थी। सुभाष के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से पड़ा। बचपन में उनकी माता ने उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप, महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की कहानियाँ सुनाकर उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार भर दिए। इस प्रकार महापुरुषों के जीवन से उन्हें महान् बनने की प्रेरणा मिली। सुभाष के पिता चाहते थे कि वह पढ़-लिखकर उच्च शिक्षा ग्रहण करे। इसलिए पढ़ाई में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा दिखाई और मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। उनमें सेवा भाव भी कूट-कूटकर भरा हुआ था। एक बार जाजपुर में भयानक रोग फैला तो उन्होंने दिन-रात रोगियों की सेवा की। मातृभूमि की सेवा के लिए ही उन्होंने सुरेश बनर्जी के सम्पर्क में आने के बाद आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी विवेकानन्द का आख्यान सुनकर वह सत्य की खोज में भी गए, लेकिन उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई और पुनः आकर पढ़ाई करने लगे। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वहाँ ‘ओटन’ उन्हें पढ़ाता था। वह भारतीयों का अपमान करता था, जिससे आहत होकर सुभाष ने उसे तमाचा जड़ दिया। इस पर उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, परन्तु उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु इस पद को त्याग कर वे भारत लौट आए और मातृभूमि के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो गए।
द्वितीय सर्ग
सुभाष के पिता चाहते थे कि सुभाष आई.सी.एस. बनकर कुल का नाम रोशन करें, परन्तु जिस समय सुभाष स्वदेश लौटे, उस समय अंग्रेज़ों का अत्याचार चरम पर था। जनता में भारी रोष था। यह देखकर मातृभूमि की सेवा का व्रत ले चुके सुभाष ने आई.सी.एस. के पद से त्यागपत्र देकर देशबन्धु चितरंजनदास के नेतृत्व में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। देशबन्धुजी ने उन्हें नेशनल कॉलेज का प्राचार्य नियुक्त किया, तो उन्होंने छात्र-छात्राओं में भी स्वतन्त्रता का भाव जगा दिया।
सुभाष के ओजस्वी भाषणों ने नई पीढ़ी को स्वतन्त्रता आन्दोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनकी इन गतिविधियों से भयभीत होकर ब्रिटिश सरकार ने देशबन्धुजी के साथ-साथ उन्हें भी बन्दी बना लिया।
कारागार से बाहर आने पर अंग्रेज़ों से लोहा लेने की उनकी भावना और भी बलवती हो गई। उसी समय बंगाल में भयानक बाढ़’ आई, तब सुभाष एक बार फिर आम जनता की सेवा में लग गए। कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी वे निरन्तर भाग लेते रहे। उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु चितरंजनजी के साथ मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी में प्रवेश किया। कलकत्ता की महापालिका के चुनावों में सुभाष ने कई प्रतिनिधियों को जितवाया। चुनाव जीतने पर देशबन्धुजी को नगर-प्रमुख बनाया गया तथा सुभाष को अधिशासी अधिकारी नियुक्त किया गया। उन्होंने सिर्फ आधे वेतन पर काम करके दीन-दुःखियों और श्रमिक जनों के कष्टों को दूर करना आरम्भ किया। धीरे-धीरे सुभाष की ख्याति बढ़ने लगी।
ब्रिटिश सरकार यह सहन न कर सकी। उन्हें अकारण ही अलीपुर जेल भेज दिया गया। वहाँ से बरहपुर और फिर माण्डले जेल भेजा गया। माण्डले जेल में उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा तो चारों ओर से उनकी रिहाई की माँग तेज़ हो गई। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा और सुभाष आज़ाद हुए, लेकिन मातृभूमि के लिए सभी कष्टों को सहने वाले सुभाष पहले के समान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते रहे।
तृतीय सर्ग
इस सर्ग में वर्ष 1928 में कलकत्ता में आयोजित किए गए कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका का वर्णन किया गया है। इस अधिवेशन के आयोजन का सारा भार सुभाष पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। इस आयोजनं’ पर देश के कोने-कोने से लाखों नर-नारी कलकत्ता पहुँचे थे। लोगों में अपार उत्साह उमड़ रहा था। बोस के नेतृत्व में स्वयं सेवकों का दल सारी व्यवस्था सँभाल रहा था। इस अधिवेशन में पण्डित मोतीलाल नेहरू को अध्यक्ष चुना गया। वे भी सुभाष से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
उन्होंने सुभाष को पुत्र समान कहकर उनकी प्रशंसा की तथा स्वयं को देश-सेवा के लिए समर्पित कर दिया। अधिवेशन की सफलता ने सुभाष की प्रसिद्धि में और भी वृद्धि की। उन्हें कलकत्ता का मेयर नियुक्त किया गया। यहाँ भी वे निष्ठापूर्वक कार्य करके लोगों की सेवा करते रहे। इसी बीच एक जुलूस निकाला गया। इसमें उन्होंने पुलिस की लाठियाँ भी हँसते-हँसते झेलीं।
सरकार ने एक बार फिर उनको जेल भेज दिया। नौ महीने के पश्चात् अलीपुर जेल से उनको रिहा किया गया, लेकिन वह कभी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुए। उन्होंने देश के नवयुवकों में स्वतन्त्रता की चिंगारी सुलगा दी। सुभाष के ओज से डरी-सहमी विदेशी सरकार ने उनको पुनः सिवत्नी जेल में भेज दिया, जहाँ उनका स्वास्थ्य गिर गया। वहाँ से उनको भुगली भेजा गया, परन्तु स्वास्थ्य में कोई सुधार न हुआ। व्याकुल जनता ने अपने नायक को जेल से आज़ाद करने की माँग की, तो फिर उन्हें रिहा किया गया। इस बार सुभाष स्वास्थ्य सुधारने के लिए यूरोप चले गए। पश्चिम के वैभव को देखकर उनके मन में पराधीनता का रोष और भी बढ़ गया। इसी दौरान उनके पिताजी चल बसे।
सुभाष निरन्तर अपने कर्त्तव्य पथ पर चलते रहे। वे वियना गए, जहाँ उन्होंने ‘इण्डियन स्ट्रगल’ नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक को भारत में प्रतिबन्धित कर दिया गया। विदेश में रहकर भी सुभाष ने देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन किया। वर्ष १९३६ में सुभाष भारत लौटे, लेकिन आते ही उन्हें जेल में डाल दिया गया। जब वह फिर से बीमार पड़े, तो क्रूर सरकार को झुकना पड़ा। वह फिर यूरोप चले गए। इसके पश्चात् वह पूर्ण स्वस्थ होकर पुनः भारत लौटे।
चतुर्थ सर्ग
इस सर्ग में ताप्ती नदी के किनारे हुए कांग्रेस के इक्यावनवें अधिवेशन के आयोजन का वर्णन किया गया है। विट्ठल नगर में आयोजित किए गए इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष इक्यावन बैलों के रथ में सवार होकर पधारे थे। वे इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने विनम्र होकर सबका धन्यवाद किया और नवयुवकों को देशभक्ति के लिए प्रेरित किया। उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर सभी जोश और उत्साह से भर गए। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को मिलकर रहने एवं गाँधीजी का साथ देने का अनुरोध किया।
उन्होंने नवयुवकों से स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने का आह्वान किया। इस अधिवेशन में नेताजी ने पट्टाभि सीतारमैया को हराया था और वे अध्यक्ष पद के लिए चुने गए थे, परन्तु सीतारमैया की हार को गाँधीजी ने अपनी हार बताया। सुभाष नहीं चाहते थे कि कांग्रेस आपस के मतभेदों के कारण दो धड़ों में बॅट जाए। अतः उन्होंने गाँधीजी के रोष प्रकट करने पर स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया और ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नाम के अलग दल की स्थापना की। उनकी सभाओं में बच्चे, नर-नारी व वृद्ध सभी शामिल होने लगे। वे सभी के प्रिय नेता बन चुके थे। इसके पश्चात् सुभाष ने कलकत्ता में बने हुए एक अंग्रेज़ी स्मारक को हटवाने के लिए आन्दोलन किया, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। स्मारक तोड़ दिया गया और नेताजी जेल से छूट भी गए, लेकिन जेल से बाहर आने पर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें उनके घर में ही नज़रबन्द कर दिया। सरकार उन्हें अपने लिए एक बड़ी चुनौती समझती थी।
पंचम सर्ग
ब्रिटिश सरकार ने सुभाष को नज़रबन्द कर दिया था, जिससे वे बाहरी जगत् से लगभग पूरी तरह कट गए थे। उन तक बाहर का कोई भी समाचार नहीं पहुँच पाता था। यहाँ तक कि उन्हें अपने सम्बन्धियों से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। पुलिस दिन-रात उन पर कड़ा पहरा रखती थी। मातृभूमि का सपूत इस प्रकार हाथ-पर-हाथ रखकर नहीं बैठ सकता था। अतः उन्होंने वहाँ से बाहर निकलने की योजना बनाई। अवसर पाकर उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली और 15 जनवरी, 1941 की आधी रात को मौलवी का वेश धारण कर नज़रबन्दी का पहरा तोड़ कर भाग निकले। कलकत्ता से वे पेशावर होते हुए काबुल गए और अपने मित्र उत्तमचन्द्र के यहाँ ठहरे। उत्तमचन्द्र ने सच्चे मित्र की भाँति सुभाषचन्द्र का साथ दिया और उन्हें देश से बाहर भेजने में सहायता की। छिपते-छिपात वे जर्मनी पहुँचे। वहाँ नेताजी ने ‘आज़ाद हिन्द फौज’ का गठन किया। विदेशों में बसे हुए भारतीयों ने नेताजी का हर प्रकार से साथ दिया। फिर वे जापान होते हुए सिंगापुर भी गए, जहाँ रासविहारी वोस ने उनका स्वागत किया। दोनों ने मिलकर आज़ाद हिन्द सेना को संगठित किया। इस सेना में सभी वर्गों और धर्मों के नर-नारी शामिल थे।
इस सेना में नेहरू, गाँधी, बोस और आज़ाद नामक चार ब्रिगेड थे। नेताजी के मज़बूत नेतृत्व में इस सेना का हर सिपाही देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तैयार था। भिन्न-भिन्न धर्मों के सैनिक होते हुए भी इस सेना में सभी परस्पर प्यार और भाईचारे से मिलजुल कर रहते थे।
षष्ठ सर्ग
सुभाष की सेना अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर शत्रु पर आक्रमण करने के लिए कमर कस चुकी थी। सिंगापुर में नेताजी ने अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा, “दो तुम रक्त मुक्ति दूँ तुमको”। दिल्ली के लालकिले पर तिरंगा झण्डा फहराना ही इस सेना का लक्ष्य था, उन्होंने अपनी सेना में अतीत का गौरव और भविष्य के प्रति आशा भरते हुए कहा-
“विजय-श्री है तुम्हे बुलाती, वीरों! बढ़ते जाओ।”
नेताजी के इन वचनों का सेना पर गहरा प्रभाव पड़ा और हर सैनिक उत्साह से भर गया। ‘जय भारत’, ‘जय सुभाष’, ‘जय गाँधी’ का नारा लगाते हुए सुभाष के नेतृत्व में आज़ाद हिन्द सेना आगे बढ़ने लगी और अंग्रेज़ों से लोहा लेने लगी। 18 मार्च, 1944 को आज़ाद हिन्द सेना ने कोहिमा पर अधिकार कर लिया और ‘मोराई टिड्डिम’ आदि स्थानों पर से भी अंग्रेज़ों को खदेड़ते हुए अराकान पर अपनी विजय पताका फहरा दी। अपने विजित क्षेत्रों की रक्षा करते हुए आज़ाद हिन्द फौज के सैनिको ने उत्साहपूर्वक नए वर्ष 1945 का स्वागत किया।
सप्तम सर्ग
सप्तम सर्ग ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य का अन्तिम सर्ग है। कवि कहता है कि जय-पर जय, उन्नति-अवनति, सुख-दुःख, उठने-गिरने का क्रम संसार में सदा चलता रहता है। दुर्भाग्य से आज़ाद हिन्द फौज भी शत्रुओं से पराजित होने लगी। रंगून पर अंग्रेज़ों ने पुनः अधिकार कर लिया।
इसी बीच अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बम गिरा दिए। इस नरसंहार को देखकर जापान ने जनहित को देखते हुए अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इससे आज़ाद हिन्द सेना के सैनिक व्याकुल हो उठे। सुभाष भी समझ गए कि इस समय युद्ध करना उनके पक्ष में नहीं है। उन्होंने आज़ाद हिन्द सेना के सैनिकों को अनुकूल समय की प्रतीक्षा करने के लिए कहकर उनसे विदा ली। सैनिकों ने गीले नयनों से अपने सेनानायक को विदा किया।
वे जहाज पर सवार होकर जापान के प्रधानमन्त्री हिरोहितों से मिलने जा रहे थे कि 18 अगस्त, 1945 को उनका जहाज ताइहोक में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जापानी रेडियो ने सबसे पहले यह समाचार दिया कि नेताजी अव इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन भारत में इस समाचार को सत्य नहीं माना गया। आज भी जन-जन में यह चर्चा होती रहती है कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में मारे नहीं गए थे।
यह सच है कि नेताजी कभी मर नहीं सकते। वे हमेशा हमारे दिलों में प्रेरणा का दीपक बनकर जलते रहेंगे। उनके यश की गाथा भारत का इतिहास सदा सुनाता रहेगा। रंगून, सिंगापुर और भारत की माटी सदा उन्हें स्मरण करेगी। यद्यपि सुभाष अंग्रेज़ों पर पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर पाए, लेकिन भारत की आज़ादी में उनके योगदान को सदा याद किया जाएगा।
नेताजी जैसे युग-पुरुष बहुत कम होते हैं। देश के हर नागरिक को उन पर गर्व है। वीरता और असाधारण प्रतिभा के धनी सुभाषचन्द्र बोस हमें देश के लिए जीने और देश के लिए मरने का सन्देश देते हैं।
प्रश्न 2. ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य का उद्देश्य सप्रमाण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- कवि विनोदचन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’ द्वारा लिखित ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य का मुख्य प्रतिपाद्य विषय महान् स्वतन्त्रता सेनानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन-चरित्र है। इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की प्रमुख घटनाओ का संक्षिप्त रूप में वर्णन करते हुए उनके व्यक्तित्व की छवि प्रस्तुत की है।
नेताजी के चरित्र में स्वाभिमान, सेवा-भाव, मातृभूमि के प्रति प्रेम, राष्ट्रीयतः, स्वतन्त्रता, दया, सहनशीलता, बौद्धिक प्रतिभा, युद्ध निपुणता, त्याग भावना आदि का अद्भुत समन्वय था। इस खण्डकाव्य में राय बहादुर जानकीनाथ, प्रभावती देवी, वेनीमाधव, महात्मा गाँधी, चितरंजनदास, मोतीलाल नेहरू, रासबिहारी बोस आदि महापुरुषों का नाम भी आया है, परन्तु यहाँ उनकी चर्चा सुभाषचन्द्र बोस के व्यक्तित्व को उभारने के सन्दर्भ में ही हुई है। सुभाषचन्द्र ही इस खण्डकाव्य के नायक है। अतः इसका केन्द्रबिन्दु वही हैं।
‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य के माध्यम से स्वतन्त्रता के अग्रणी नायक रहे सुभाषचन्द्र बोस को याद करना, उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा उनकी गौरवगाथा कहकर भारत के प्रत्येक नागरिक को देश-प्रेम की सीख देना ही कवि का उद्देश्य है। कवि ने कहा भी है-
“वीर सुभाष अनन्त काल तक, शुभ आदर्श रहेंगे। युग-युग तक भारत के वासी, उनकी कथा कहेंगे।।”
नेताजी सुभाष के चरित्र चित्रण द्वारा कवि भारत की युवा पीढ़ी को देश-प्रेम. मानवता, स्वाभिमान, परोपकार आदि उदात्त गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित. करना चाहता है। उनका चरित्र प्रत्येक दृष्टि से अनुकरणीय है। अतः कवि हर भारतीय में उनकी चारित्रिक विशिष्टताओं को देखना चाहता है। सरल भाषा, किन्तु ओजपूर्ण शैली में लिखा यह खण्डकाव्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति में काफी हद तक सफल रहा।
प्रश्न 3. ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य के उन प्रमुख पात्रों का संक्षिप्त परिचय दीजिए, जिन्होंने सुभाष को विशेष रूप से प्रभावित किया।
उत्तर- ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य महान् स्वतन्त्रता सेनानी और नेता, सुभाषचन्द्र बोस के संक्षिप्त जीवन-परिचय पर आधारित है। सुभाष जी जीवन पर्यन्त अंग्रेजो के विरुद्ध खड़े रहे। उनके जीवन में कुछ ऐसे अवसर भी आए, जिनमें उस समय के कुछ प्रमुख व्यक्तित्वों ने उन्हें प्रभावित किया। उन्हें प्रभावित करने वाले व्यक्तियों में सर्वप्रथम उनके माता-पिता ही थे। इनकी माता श्रीमती प्रभावती देवी एक धर्म-परायण, उदार तथा साध्वी महिला थीं तथा सुभाष जी के पिता श्री जानकीनाथ बोस एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। सुभाष जी के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से पड़ा। बचपन में उनकी माता उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप, महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की कहानियाँ सुनाती थीं, जिससे उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार आ गए।
इसी प्रकार सुभाषजी अपने जीवन में अनेक महापुरुपों से प्रभावित हुए और उनका अनुकरण करते रहे। सुरेश बनर्जी के सम्पर्क में आने के पश्चात् उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी विवेकानन्द के आख्यानों को सुनकर वे मथुरा, हरिद्वार, वृन्दावन, काशी व हिमालय की कन्दराओं में गए। अपने राजनैतिक गुरु देशबन्धु चितरंजनदास के सम्पर्क में आने के पश्चात् उन्होंने उनके नेतृत्व में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित गतिविधियों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। जर्मनी पहुँचने पर वे रासबिहारी बोस से मिले। वहाँ उन दोनों ने मिलकर आजाद हिन्द सेना का संगठन किया। इस सेना में सभी वर्गों के तथा सभी धर्मों के नर-नारी शामिल थे।
इसी प्रकार सुभाषचन्द्र बोस जीवनभर अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानियों के सान्निध्य में रहे और भारत माता की सेवा में रत रहकर उसे गुलामी की जंजीरों से आजादी दिलाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे।
प्रश्न 4. ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य के आधार पर सप्रमाण स्पष्ट कीजिए कि सुभाष ‘स्वतन्त्रता के जन्मदाता’ के रूप में स्तुत्य हैं।
उत्तर इस प्रश्न के उत्तर के लिए प्रश्न संख्या 1 के सप्तम सर्ग का कथानक देखें।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 5. ‘जय सुभाष’ के प्रधान पात्र (सुभाषचन्द्र बोस ) का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर- ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य के रचयिता विनोदचन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’ हैं। इसके नायक महान् स्वतन्त्रता सेनानी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस है, उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- असाधारण प्रतिभा के धनी सुभाषचन्द्र बोस प्रखर प्रतिभाशाली और बुद्धिमान थे। उनकी कुशाग्र बुद्धि का परिचय बाल्यकाल से ही मिलना आरम्भ हो गया था। उनकी योग्यता एवं उपलब्धियों से उनके माता-पिता और शिक्षकगण सभी प्रभावित थे। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके सभी को विस्मित कर दिया। इसके पश्चात् बी.ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। उन्होंने अपने पिता की इच्छा का मान रखते हुए आई.सी.एस. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। उस समय आई.सी.एस. की परीक्षा में सफल होना भारतीयों के लिए अत्यन्त कठिन था।
- समाज सेवक सुभाषचन्द्र बोस ने बचपन में ही अपने गुरु बेनीमाधव के प्रभाव में आकर समाज-सेवा का सद्गुण अपना लिया था। वह दीन, दुखियों और असहायों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बचपन में जब जाजपुर ग्राम में महामारी फैली तो सुभाष रोगियों की सेवा में दिन-रात जुटे रहे और जाजपुर के रोग-मुक्त होने पर ही घर लौटे। इस प्रकार जब बंगाल प्रान्त में भयंकर बाढ़ आई, तो उन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना पीड़ितों को हर सम्भव सहायता पहुँचाई। उनके लिए कवि ने कहा है-
“सेवा करने में सुभाष को, मिलता था सुख भारी। बने रहे वह आजीवन ही, पर-सेवा व्रत-धारी।।” - परम देशभक्त और स्वाभिमानी सुभाषचन्द्र बोस में देशभक्ति और स्वाभिमान की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। एक बार कॉलेज में उन्होंने अपने शिक्षक को इसलिए तमाचा जड़ दिया था कि वह भारत और भारतवासियों का अपमान करता रहता था। इसके लिए उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, किन्तु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। देशभक्ति की भावना के कारण ही उन्होने आई.सी.एस. के पद से त्याग-पत्र दे दिया था। वह जीवनभर अंग्रेज़ों से लोहा लेते रहे। उन्होंने देश-विदेश में रहकर भारत को स्वतन्त्र कराने के सराहनीय प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना भी की।
- ओजस्वी वक्ता एवं लोकप्रिय नेता सुभाषचन्द्र बोस एक ओजस्वी वक्ता थे। उनके भाषण सुनकर बच्चे, बूढ़े, युवक, युवतियाँ सभी जोश और उत्साह से भरकर देश-सेवा के लिए समर्पित हो जाते थे। अपने ओजस्वी भाषणों से उन्होंने छात्रों से लेकर आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को प्रेरित किया। उनके द्वारा दिए गए नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ को सुनकर आज भी लोग देशभक्ति की भावना से भर जाते हैं।
वे साधारण जनता में अत्यन्त लोकप्रिय थे। वह जहाँ भी जाते थे, वहीं भीड़ जुट जाती थी। उनकी एक आवाज़ पर ही हज़ारों युवक आज़ाद हिन्द फौज में शामिल हो गए थे। जन साधारण का उनके प्रति प्रेम देखकर सरकार को कई वार झुकना पड़ा और उन्हें कैद से रिहा करना पड़ा।
- नीति-कुशल एवं महान् स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस बुद्धिमान होने के साथ-साथ नीति-कुशल भी थे। उनकी नीति-कुशलता केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं थी, वरन् युद्ध में भी दिखाई पड़ती है, उन्होंने विदेश में रहकर भी भारत को स्वतन्त्रता दिलवाने के लिए अनेक प्रयत्न किए। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना इसी का परिणाम था। उनके कुशल नेतृत्व में इस सेना ने मेघालय को स्वतन्त्र भी करा लिया था। देश को स्वतन्त्र कराने के लिए वह अनेक बार जेल भी गए। अतः वे एक महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे, यह स्वयं सिद्ध है।
- आदर्श नायक सुभाषचन्द्र बोस एक आदर्श नायक थे, उनके चरित्र से हमें सहनशीलता, त्याग-भावना, राष्ट्रीयता, सेवा-भाव आदि की प्रेरणा मिलती है। वह दीन-दुखियों के लिए जितने कोमल हैं, शत्रुओं के लिए उतने ही कठोर हैं। वह भाषण देने में माहिर हैं, तो लड़ने में भी निपुण हैं। उन्होंने ‘दि इण्डियन स्ट्रगल’ पुस्तक लिखकर सिद्ध किया कि वे कलम और बन्दूक दोनों के सिपाही हैं। अतः उनका चरित्र हर दृष्टि से आदर्श चरित्र है।
“यों तो हुए देश में अगणित स्वतन्त्रता सेनानी। पर उनमें नेता सुभाष-सी कम की दिव्य कहानी।।”
वीर नायक सुभाषचन्द्र बोस की वीरता, साहस, त्याग, उत्साह से सब लोग विस्मित थे। अंग्रेज़ प्रायः उनसे भयभीत रहते थे। अनेक बार उन्हें जेल में बन्द किया गया। जेल से मुक्त होने के पश्चात् उन्हें अपने घर पर ही नज़रबन्द रखा गया। उनके घर पर शासन का हमेशा पहरा लगा रहता था, पर वे कब चुप बैठने वाले थे। वे अपनी दाढ़ी बढ़ाकर तथा मौलवी का वेश धारण करके वहाँ से भाग निकले। जापान जाकर उन्होंने ‘आज़ाद हिन्द फौज’ का गठन किया, उन्होंने अपने भाषणों से वहाँ की जनता में नवचेतना जगाई। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस एक वीर नायक थे।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस त्याग, अदम्य साहस, संघर्ष और नेतृत्व क्षमता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनकी ये सभी विशेषताएँ युगों-युगों तक देशवासियों को प्रेरित करती रहेंगी। उनमें एक नायक के सारे गुण विद्यमान थे। अतः इस खण्डकाव्य का शीर्षक ‘जय सुभाष’ सर्वथा उचित है।