गीत : महादेवी वर्मा
पद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
गीत-1
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना ! जाग तुझको दूर जाना! अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले, या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले; आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया, जाग या विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले ! पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना ! जाग तुझको दूर जाना ! बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले ? पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?. विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन, क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले? तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना जाग तुझको दूर जाना !
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-1’ शीर्षक कविता से उधृत है, जो उनके काव्य संग्रह ‘सान्ध्यगीत’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवयित्री अपने साधना-पथ में तनिक भी आलस्य नहीं आने देना चाहती हैं तथा इस पथ पर निरन्तर धैर्य के साथ आगे बढ़ते रहने के लिए अपने प्राणों को सम्बोधित कर रही हैं। महादेवी वर्मा ने साधना मार्ग में उत्पन्न होने वाली विभिन्न बाधाओं व कठिनाइयों का उल्लेख किया है।
व्याख्या कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे प्राण! निरन्तर जागरूक रहने वाली आँखें आज नींद से भरी अर्थात् आलस्ययुक्त क्यों हैं? तुम्हारा वेश आज इतना अव्यवस्थित क्यों है? आज अलसाने का समय नहीं। आलस्य एवं प्रमाद को छोड़कर अब तुम जाग जाओ, क्योकि तुम्हें बहुत दूर जाना है।
तुम्हें अभी बहुत बड़ी साधना करनी है। चाहे आज दृढ़ हिमालय कम्पित हो जाए या फिर आकाश से प्रलयकाल की वर्षा होने लगे अथवा घोर अन्धकार प्रकाश को निगल जाए या चाहे चमकती और कड़कती हुई बिजली में से तूफान बोलने लगे, तो उस विनाश वेला में भी तुम्हें अपने चिह्नों को छोड़ते चलना है और किसी भी परिस्थिति में साधना-पथ से विचलित नहीं होना है। महादेवी जी पुनः अपने प्राणों को उद्बोधित करती हुई कहती हैं कि हे प्राण! तुझे साधना-पथ पर चलते हुए लक्ष्य प्राप्त करना है। अब तू जाग जा, क्योंकि तुझे बहुत दूर जाना है।
कवयित्री कहती हैं कि हे प्राण। क्या मोम के समान शीघ्र नष्ट (पिघलना) हो जाने वाले अस्थिर, परन्तु सुन्दर सांसारिक बन्धन तुम्हें बाँधकर साधना मार्ग में बाधा उत्पन्न कर देंगे? क्या तितलियों के पंखों के समान यह रंगीन संसार का आकर्षण तुम्हारे मार्ग में बाधा बन जाएगा? क्या सांसारिक क्रन्दन या रूदन की ध्वनि भौरे की मधुर गुंजार को सुनने में बाधा उत्पन्न करेगी अर्थात् तुम्हारे साधना मार्ग को अवरुद्ध करेगी? क्या पुष्पों (फूलों) की पंखुड़ियों पर पड़ी हुई मोतीरूपी ओस की बूंदों का सौन्दर्य तुम्हें स्वयं में लिप्त करके या डुबोकर साधना-पथ से विचलित कर देगा?
कवयित्री अपने प्राण (प्रिय) को प्रेरित करते हुए कहती है, तुम इन बातों से विमुख रहो। यह समी बातें निरर्थक हैं, इनमें से कुछ भी तुम्हारे साधना मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर सकते। तुम अपनी प्रतिछाया को अपना बन्धन मत बनाना अर्थात् संसार के विविध आर्क्सण तो तुम्हारे छाया मात्र हैं। अतः उन आकर्षणों के माया-जाल के बन्धन में बैंधकर तुम अपने वास्तविक लक्ष्य (साधना मार्ग) को भूल न जाना। महादेवी जी पुनः अपने प्राणों को उद्बोधित करती हुई कहती हैं कि हे प्राण! आलस्य त्याग कर अब तू जाग जा, क्योंकि तुझे बहुत दूर जाना है तथा साधना मार्ग के अनेक चरणों (सोपानों) को पार करके अपने लक्ष्य (ईश्वर प्राप्ति) को प्राप्त करना है।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
- (1) प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने साधना के मार्ग में आने वाली विविध बाधाओं का प्रतीकात्मक शब्दावली में उल्लेख किया है।
- (ii) प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने अपने प्रिय को उद्घोधित करते हुए लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ने के लिए अभिप्रेरित किया है।
- (iii) रस वीर एवं शान्त
कला पक्ष
- भाषा शुद्ध एवं साहित्यिक खड़ीबोली
- शैली गीतात्मक, प्रतीकात्मक
- छन्द मुक्त
- अलंकार मानवीकरण, रूपक एवं अनुप्रास
- गुण ओज, प्रसाद एवं माधुर्य
- शब्द शक्ति लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
. (1) प्रस्तुत पद्यांश की कवयित्री व शीर्षक का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर पद्यांश की कवयित्री छायावादी रचनाकार महादेवी वर्मा हैं तथा शीर्षक ‘गीत’ है।
(ii) कवयित्री साधना पथ पर चलते हुए कौन-कौन सी कठिनाइयों के आने की बात कहती हैं?
उत्तर कवयित्री कहती हैं कि साधना-पथ पर चलते हुए दृढ़ हिमालय कम्पित हो जाए, आकाश से प्रलयकारी वर्षा होने लगे, घोर अन्धकार प्रकाश को निगल जाए या चाहे चमकती और कड़कती हुई बिजली से तूफान आने लगे, लेकिन तुम अपने पथ से विचलित मत होना और आगे बढ़ते रहना।
(3) “बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले” पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवयित्री अपने प्रिय से प्रश्न करती है कि क्या मोम के समान शीघ्र नष्ट हो जाने वाले अस्थिर, अस्थायी, परन्तु सुन्दर एवं अपनी ओर आकर्षित करने वाले ये सांसारिक बन्धन तुम्हें तुम्हारे पथ से विचलित कर देंगे?
(4) प्रस्तुत पद्यांश की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश की ‘हिमगिरि के हृदय में कम्प’, व्योम का रोना; ‘तिमिर का डोलना’, ‘तूफानों का बोलना’ आदि के माध्यम से प्रकृति का मानवीकृत रूप में वर्णन किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
गीत-2
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला ! घेर ले छाया अमा बन, आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले वह घिरा घन; और होंगे नयन सूखे, तिल बुझे औ पलक रूखे, आर्द्र चितवन में यहाँ शत विद्युतों में दीप खेला! अन्य होंगे चरण हारे, और हैं जो लौटते, दे शूल की संकल्प सारे; दुःखव्रती निर्माण उन्मद यह अमरता नापते पद, बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला !
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-2’ शीर्षक कविता से उद्धृत है, जो उनके प्रमुख काव्य-संग्रह ‘दीपशिखा’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में महादेवी वर्मा ने साधना के अपरिचित पथ की कठिनाइयों का वर्णन किया है। साथ ही कवयित्री ने प्रिय के पथ के अपरिचित और अनेक प्रकार के कष्टों से भरे होने के पश्चात् भी निरन्तर आगे बढ़ते रहने का दृढ़ संकल्प किया है।
व्याख्या कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि भले ही साधना-पथ अनजान हो, उस मार्ग पर तुम्हारा साथ देने वाला भी कोई न हो, तब भी तुम्हें घबराना नहीं चाहिए, तुम्हारी स्थिति डगमगानी नहीं चाहिए। महादेवी जी कहती हैं कि मेरी छाया भले ही आज मुझे अमावस्या के गहन अन्धकार के समान घेर ले और मेरी काजल लगी आँखें भले ही बादलों के समान आँसुओं की वर्षा करने लगें, फिर भी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कठिनाइयों को देखकर जो आँखें सूख जाती हैं, जिन आँखों के तारे निर्जीव व धुँधले हो जाते हैं और निरन्तर, रोते रहने के कारण जिन आँखों की पलकें रूखी-सी हो जाती हैं, वे किसी और की होंगी। मैं उनमें से नहीं हूँ जो विघ्न-बाधाओं से घबरा जाऊँ। अनेक कष्टों के आने पर भी मेरी (गीली) आँखों में आँसू नहीं रहेंगे ही, क्योकि मेरे जीवन दीपों ने सैकड़ों विद्युतों में खेलना सीखा है। कष्टों से घबराकर पीछे हट जाना मेरे जीवन-दीप का स्वभाव नहीं है।
कवयित्री कहती हैं कि वे कोई अन्य ही चरण होंगे जो पराजय मानकर राह के काँटों को अपना सम्पूर्ण संकल्प समर्पित करके निराश व हताश होकर लौट आते हैं। मेरे चरण हताश व निराश नहीं हैं। मेरे चरणों ने तो दुःख सहने का व्रत धारण किया हुआ है। मेरे चरण नव निर्माण करने की इच्छा के कारण उन्मद (मस्ती) हो चुके हैं। वे स्वयं को अमर मानकर, प्रिय के पथ को निरन्तरता से नाप रहे हैं और इस प्रकार दूरी घटती चली जा रही है, जो मेरे और मेरे लक्ष्य अर्थात् आत्मा और परमात्मा के मध्य की दूरी थी।
मेरे चरण तो ऐसे हैं कि वे अपनी दृढ़ता से संसार की गोद में छाए हुए अन्धेरे को स्वर्णिम प्रकाश में बदल देंगे अर्थात् निराशा का अन्धकार आशारूपी प्रकाश में परिवर्तित हो जाएगा। इस प्रकार लक्ष्य प्राप्ति हो सकेगी।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
- (i) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवयित्री का वेदना-भाव भी प्रकट हुआ है। आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति की है।
- (ii) प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने दृढ़ संकल्प, साधना की दृढ़ता और अडिग
- (iii) रस करुण एवं शान्त
कला पक्ष
- शैली गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक
- भाषा शुद्ध खड़ीबोली
- अलंकार अनुप्रास, रूपक एवं भेदकातिशयोक्ति
- छन्द मुक्त
- गुण प्रसाद
- शब्द लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक काव्यांजलि में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-2’ शीर्षक कविता से उद्धृत है, जो उनके प्रमुख काव्य संग्रह दीपशिखा से लिया गया है।
(ii) महादेवी के जीवन रूपी दीप का स्वभाव कैसा नहीं है?
उत्तर महादेवी वर्मा के जीवन रूपी दीप का स्वभाव कष्टों एवं कठिनाइयों से घबराकर साधना पथ से पीछे हट जाना नहीं है, क्योंकि उनके जीवन रूपी दीप ने सैकड़ों विद्युतों रूपी कठिनाइयों को झेलते हुए आगे बढ़ना सीखा है।
(iii) ‘आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले वह घिरा घन, और होंगे नयन सूखे’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति का भाव यह है कि महादेवी वर्मा कहती हैं कि मेरी काजल लगी आँखें भले ही बादलों के समान आँसुओं की वर्षा करने लगें, फिर भी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कठिनाइयों को देखकर जो आँखे सूख जाती हैं वे किसी और की आँखें होंगी।
(iv)’और हैं जो लौटते, दे शूल की संकल्प सारे पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर ‘और हैं जो लौटते, दे शूल की संकल्प सारे’ पंक्ति में ‘स’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुसार अलंकार है।
गीत-3
पथ को न मलिन करता आना पद-चिह्न न दे जाता जाना, मेरे आगम की जग में सुख की सिरहन हो अन्त खिली ! विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली ! मैं नीर भरी दुःख की बदली!
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्याश हमारी पाठ्यपुस्तक काव्यांजलि में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-3’ शीर्षक कविता से उधृत है, जो उनके प्रमुख काव्य संग्रह दीपशिखा से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने बादल और स्वयं के जीवन में साम्य स्थापित किया है और बादल से स्वयं की तुलना करती हुई अपने जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करती है।
व्याख्या कवयित्री कहती है कि जिस प्रकार आकाश में बादल के छाने से वह मलिन नहीं होता अर्थात् उस पर किसी प्रकार का कोई कलंक नहीं लगता और न ही उसके जाने के पश्चात् अर्थात् उसके बरसने के बाद उसका कोई पद-चिह्न या निशान शेष रह जाता है, लेकिन उसके आकाश में छाने के स्मरण मात्र से ही सम्पूर्ण विश्व अर्थात् सभी लोगों में प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है। उसी प्रकार कवयित्री ने अपने सम्पूर्ण जीवन में ऐसा कोई कृत्य नहीं किया, जिससे उसके जीवनपथ पर कोई कलंक लगा हो। वह बिना कोई चिह्न छोड़े उसी प्रकार गई जैसी निष्कलंक वह आई थी। उसके इसी गुण के कारण ही जब भी उसके इस संसार में आने की स्मृतियाँ लोगों के मस्तिष्क में आती हैं, वे उनमें खुशी की सिरहन (कम्पन) पैदा कर देती हैं।
कवयित्री कहती हैं कि जिस प्रकार आकाश के अत्यधिक विस्तृत भाग में फैले हुए होने के उपरान्त भी बादल को वहाँ पर स्थायित्व प्राप्त नहीं होता और अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में इधर-उधर घूमता रहता है, उसी प्रकार मुझे भी इस विशाल भू-भाग अर्थात् संसार में स्थायित्व प्राप्त नहीं हुआ। वह आगे कहती हैं कि जैसे बादल का अस्तित्व केवल उसके निर्मित होने और बरसने तक ही होता है और वही उसकी पहचान एवं उसका इतिहास बन जाता है, उसी प्रकार कवयित्री की पहचान एवं इतिहास केवल इतना ही है कि वह कल आई थी और आज जा रही है, यही उसका सम्पूर्ण जीवन है।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
- (1) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने कहा है कि जीवन पथ को बादल के समान ही निष्कलंक बनाना चाहिए।
- (ii) यहाँ कवि ने बादल के जीवन के माध्यम से जीवन की क्षण भंगुरता को वर्णित किया है।
- (iii) रस वियोग श्रृंगार
कला पक्ष
- भाषा शुद्ध, परिष्कृत खड़ीबोली शैली गीतात्मक एवं प्रतीकात्मक
- छन्द मुक्त
- अलंकार मानवीकरण और अनुप्रास
- गुण माधुर्य
- शब्द शक्ति लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(1) प्रस्तुत पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक काव्यांजलि में संकलित महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘गीत-3’ शीर्षक कविता से उद्धृत है, जो उनके प्रमुख काव्य संग्रह दीपशिखा से लिया गया है।
(ii) कवयित्री अपने जीवन की तुलना किससे व क्यों करती हैं?
उत्तर कवयित्री आकाश में छाए बादलों से तुलना करते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार आकाश में बादलों के छाने से वह मलिन नहीं होता और न ही बरसने के पश्चात् उसका कोई पद चिह्न शेष रहता है, उसी प्रकार कवयित्री का जीवन भी निष्कलंक है। वह जैसे आई थी वैसे ही लौट रही है।
(3) “विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति से कवयित्री का आशय यह है कि जिस प्रकार इस विशाल आकाश में बादल घूमता रहता है, वहाँ पर उसे कोई स्थायित्व प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार स्वयं कवयित्री का जीवन भी है, जिसे इस विशाल जगत् में स्थायित्व प्राप्त नहीं हुआ।
(4) प्रस्तुत पद्यांश में अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर कवयित्री ने सम्पूर्ण पद्यांश में बादल को मनुष्य के रूप में प्रकट करके उसका मानवीकरण कर दिया है, जिस कारण सम्पूर्ण पद्यांश में मानवीकरण अलंकार है। इसके अतिरिक्त पद-चिह्न न दे जाता जाना, में ‘ज’ वर्ण की आवृत्ति, ‘सुख की सिहरन हो’ में ‘स’ वर्ण की आवृत्ति, व ‘परिचय इतना इतिहास यही’ में ‘इ’ वर्ण की आवृत्ति के कारण पद्यांश में अनुप्रास अलंकार भी विद्यमान है।