(गोरखपुर, मुरादाबाद,, शाहजहाँपुर, लखीमपुर, खीरी, मैनपुरी व मुजफ्फरनगर जिलों के लिए)
प्रश्न 1. ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य की कथावस्तु अपने शब्दों में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- ‘मातृभूमि के लिए’ नामक खण्डकाव्य ‘डॉ. जयशंकर त्रिपाठी’ द्वारा रचित है। महान् स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ के जीवनचरित पर आधारित यह खण्डकाव्य तीन सर्गों में विभाजित है। इसका कथासार निम्नलिखित है-
प्रथम सर्ग (संकल्प)
15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व हमारा देश अंग्रेज़ों का गुलाम था। अंग्रेज़ अपने देश ब्रिटेन को समृद्ध करने के लिए हमारे देश की सम्पदा लूट रहे थे। देश के सभी उद्योग-धन्धे, व्यापार आदि नष्ट कर दिए गए थे। राजा-महाराजा अंग्रेज़ो के अनुयायी बनकर भोग-विलास में लिप्त थे। अंग्रेज़ों के अत्याचारों और अन्याय से त्रस्त जनता ने तब स्वयं ही उनका प्रतिकार करने की ठानी। अपनी स्वतन्त्रता एवं अधिकारों को प्राप्त करने के लिए देश के अनेक वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी आदि जैसे महान् नेताओं के नेतृत्व में जनता अंग्रेज़ी सरकार का डटकर सामना कर रही थी। जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का आह्वान किया तो जनता ने उसमें बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया, लेकिन अंग्रेज़ी सरकार का दमन चक्र चलता रहा। उसी समय महान् स्वतन्त्रता सेनानी और क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम प्रकाश में आया। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म झावरा ग्राम के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस छोटे से गाँव में मुसलमानों और भीलों का आधिक्य था। बड़ा होने पर चन्द्रशेखर को विद्याध्ययन के लिए काशी भेजा गया। बालक चन्द्रशेखर स्वभाव से अत्यन्त सुशील था, परन्तु अंग्रेज़ों के अत्याचार सुन-सुनकर उसका रोष बढ़ता जाता था। तब भारत में रौलेट एक्ट लाया गया। रौलेट द्वारा बनाए गए इस एक्ट में राष्ट्रभक्तों पर राजद्रोह का अभियोग चलाकर दण्ड देने का प्रावधान था तथा उनके लिए जमानत का कोई विकल्प नहीं था।
इसमें सन्देह के आधार पर ही सारी कानूनी कार्यवाही करने का नियम था। कहने के लिए यह जनता के हितों की रक्षा करने के लिए था, परन्तु इसमें ब्रिटेन में बैठी विदेशी सरकार का ही हित निहित था। इस रौलेट एक्ट का देशभर में विरोध किया गया। जगह-जगह सभाएँ आयोजित की गई। पंजाब में व्यापक स्तर पर जनता का रोष उभरकर सामने आया। वर्ष 1919 के अप्रैल माह में वैशाखी का उत्सव था। इस दिन जलियाँवाला बाग में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। इसका उद्देश्य रौलेट एक्ट का विरोध करना था। इसमें महिलाओं, पुरुषों, बच्चों, वृद्धों आदि ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। नेताओं ने भाषण दिए और विदेशी सरकार की निन्दा की। इन सारी गतिविधियों पर अंग्रेज़ी सरकार नज़र रखे हुए थी। सभा अभी चल रही थी कि अचानक गोलियों की बरसात होने लगी।
जनरल डायर के कहने पर लगभग 50 सैनिकों ने जलियाँवाला बाग में एकत्रित लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलाई। इस नर-संहार में हज़ारों लोग मारे गए। इस घटना को इतिहास की क्रूरतम घटनाओं में से एक माना जाता है, लेकिन अंग्रेज़ी सरकार के प्रतिनिधि जनरल डायर को इससे सन्तोष न हुआ। उसने अमृतसर में मार्शल लॉ लगाकर क्रूरता की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। वहाँ 150 गज लम्बी एक गली थी। उस गली में दमन के विरोध में एक महिला पर हमला हुआ था। डायर के आदेशानुसार उस गली से गुजरने के लिए भारतवासियों को पेट के बल रेंगते हुए उसे पार करना पड़ता था। छोटा हो या बड़ा, नर हो या नारी, बूढ़ा हो या जवान सभी के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था।
ये अमानुषिक खबरें अखबारों में छपीं। चन्द्रशेखर को अखबार पढ़ने की आदत थी। जब उन्होंने रोज की तरह अखबार पढ़ा, तो अंग्रेज़ों द्वारा दी जाने वाली इन यातनाओं को पढ़कर उनका खून खौल उठा। उन्होंने तभी निश्चय कर लिया कि वे अपने देश को स्वतन्त्र कराकर रहेंगे। वे अपना अध्ययन छोड़कर गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इस आन्दोलन का दमन करने के लिए अंग्रेज़ों ने फिर क्रूर रास्ता अपनाया, पर जनता को उनकी लाठियों की चिन्ता नहीं थी। अनेक नेताओं के साथ बालक चन्द्रशेखर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सजा देने के लिए चन्द्रशेखर को मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया गया। मजिस्ट्रेट ने जब चन्द्रशेखर से उनका नाम पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘आज़ाद’। उन्होंने अपने पिता का नाम स्वाधीन बताया। मजिस्ट्रेट ने कुपित होकर उनको सोलह वेतों की सजा दी। उस समय उनकी आयु केवल पन्द्रह वर्ष थी। उनकी आयु को देखते हुए सोलह वेतों की सजा बहुत अधिक थी। सजा पाकर चन्द्रशेखर बाहर आए तो जनता ने उनको सिर आँखों पर बैठाया। फूल-मालाओं से उनका स्वागत किया गया। इसी घटना के पश्चात् उनका नाम ‘आज़ाद’ पड़ गया।
द्वितीय सर्ग (संघर्ष)
इस घटना के पश्चात् आज़ाद ने ठान लिया था कि अब तन-मन-धन से मातृभूमि की सेवा करनी है-
“आज़ाद हुआ आज़ाद पुनः सब बन्धन से
बँध गया एक ही बन्धन में, निज जीवन में
वह राष्ट्र-भक्ति का बन्धन था, सौभाग्य बड़ा
जीवन का होता जो त्रिकाल में, त्रिभुवन में।”
आज़ाद ने देश के युवाओं में क्रान्ति की ज्वाला भड़का दी। उनके नाम को सुनकर ही युवक स्वतन्त्रता की खातिर लड़ने को तैयार हो जाते थे। उनके शौर्य और साहस पर मानो प्रकृति भी मोहित हो गई थी। असहयोग आन्दोलन जब मन्द पड़ गया तो आज़ाद-शस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गए। आज़ाद सब कुछ छोड़कर ब्रिटिश शासन से टक्कर लेने लगे, उन्होंने अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए पिस्तौल और • बमों का निर्माण भी करवाया।
इनके लिए जब धन की आवश्यकता हुई तो आज़ाद ने सरकारी खजानों को लुटवाना आरम्भ कर दिया। आज़ादी की खातिर उन्होंने ड्राइवरी सीखी और पैसे की खातिर एक मठाधीश के शिष्य बने। उन्होंने काकोरी में सरकारी खजाने को लूटा था, जो एक बड़ा कदम था। इस प्रकरण में रोशन, अशफाक और रामप्रसाद विस्मिल को फाँसी की सजा मिली। बख्शी को आजीवन कारावास मिला तथा अन्य पन्द्रह को तीन वर्ष की कठोर जेल की सजा मिली। आज़ाद और भगतसिंह बच निकले थे। उनके हृदय में क्रान्ति की ज्वाला भड़क रही थी। वे अन्य क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर आगे की योजनाओं पर कार्य कर रहे थे। वर्ष 1928 में साइमन कमीशन भारत आया, जो भारत के झगड़ों व समस्याओं पर विचार करने आया था। उस दल के सारे सदस्य अंग्रेज़ थे। अतः साइमन कमीशन का भारी विरोध हुआ। देशभर में जहाँ-जहाँ साइमन कमीशन गया, उसका भारी विरोध हुआ।
“फिर जहाँ कमीशन गया वहाँ ही तीव्र रोष था वहिष्कार अपमान और जन-रोष मिला,
लाठियाँ पुलिस बरसाती, होती जयकारें, शासन की सारी शान और सब जोश हिला।”
स्वयं सेवकों ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया, इसका विरोध करने पर लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू लाठियों के प्रहार से घायल हुए। उधर लाहौर में लाला लाजपत राय पर भी लाठियाँ पड़ीं।
“था पुलिस ऑफिसर वहाँ स्काट करके इंगित निर्मम प्रहार करवाता रहा खड़े होकर, पंजाब केसरी प्रयोवृद्ध ने सहन किया मन से, तन से योगी सम परम परे होकर।”
किन्तु बाद में उनका घायल अवस्था में देहान्त हो गया, उनकी मृत्यु से देशभर मे शोक छा गया। उस समय पूर्वी भारत में चन्द्रशेखर आज़ाद क्रान्ति की लौ जला रहे थे और पंजाब तथा दिल्ली में सरदार भगतसिंह। चन्द्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह ने संयुक्त रूप से दिल्ली के फिरोजशाह मेले में क्रान्तिकारियों का सम्मेलन आयोजित किया। इस क्रान्तिकारी सम्मेलन में आजाद, बटुकेश्वर, यतीन्द्र, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि सभी देशभक्त क्रान्तिकारी आए। उन सबका एक ही लक्ष्य था-अंग्रेज़ी शासन को जड़ सहित उखाड़ फेंकना, इन्होंने मिलकर ‘सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य’ की स्थापना की।
आज़ाद इस संगठन के नेता चुने गए। इस संगठन के सभी सदस्य स्वतन्त्रता सेनानी थे, किन्तु यह सारी कार्यवाही अत्यन्त गुप्त रूप से हुई थी। एक दिन लाहौर के पुलिस कार्यालय से एक गोरा अफसर निकला। सरदार भगतसिंह और राजगुरु ने उसे लक्ष्य बनाकर गोलियाँ दागी। अफसर लहूलुहान होकर नीचे गिर पड़ा और मर गया। भगतसिंह और राजगुरु तत्काल वहाँ से भागे, परन्तु पुलिस का एक सिपाही भगतसिह के पीछे लग गया। आज़ाद उस समय वहीं थे।
उन्होंने उसे देख लिया था। आज़ाद ने उसी क्षण उसे अपनी गोली का निशाना बनाकर ढेर कर दिया। मारा गया गोरा अफसर साण्डर्स था। इस घटना से भयभीत 15 होकर विदेश। सरकार ने असेम्बली में ‘जनता-रक्षा बिल लाने की तैयारी की। सरकार की ओर से दो बार यह बिल पेश किया गया, लेकिन विट्ठलभाई की अध्यक्षता में दोनों वार यह बिल पारित न हो सका। उधर अंग्रेज़ी शासन दिनोदिन
बढ़ती देशभक्ति की ज्वाला से भयभीत हो रहा था।
इसी बीच 8 अप्रैल को असेम्बली में बम धमाका हुआ। सारा भवन धुएँ से भर गया। बम धमाके की गूंज के साथ-साथ भारत माता की जय-जयकार के स्वर भी सुनाई दे रहे थे। जयकारे लगाने वाले दो वीर, सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त थे। दोनों को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया। पहले उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया, परन्तु बाद में लाहौर काण्ड का अभियुक्त भी बनाकर उन्हें राजद्रोह के अपराध में फाँसी की सजा दी गई। अब संगठन का सारा कार्यभार आज़ाद पर आ गया था।
“भारत-माता का मस्तक अब गवोंन्त था। पर आँखें थीं आँसू के जल में भीग गई, ये लाल चढ़ गए बलिवेदी पर और इधर था स्वतन्त्रता-रण शेष अभी होना विजयी।”
तृतीय सर्ग (बलिदान)
इस सर्ग का आरम्भ चन्द्रशेखर आज़ाद और उनके मित्र रुद्र के मध्य हो रहे वार्तालाप से आरम्भ होता है। वे दोनों इस समय सातार नदी के किनारे बैठे हुए हैं। आज़ाद चिन्तामग्न होकर रुद्र से कहते हैं कि आखिर हमारी पावन भूमि कब तक गुलाम रहेगी। तब रुद्र उन्हें समझाते हैं कि हमारे काफी मित्र पकड़े गए हैं, कहीं तुम भी अत्याचारी अंग्रेज़ों की गिरफ्त में न आ जाओ। अतः इस समय तुम्हें स्वयं को बचाए रखना चाहिए और संगठन की सक्रियता से दूरी बनाकर रखो। शक्ति-संचय करके अकस्मात् ही विस्फोट करना उचित होगा। इससे अंग्रेज़ दहल उठेंगे । आज़ाद गम्भीर होकर उसकी बातें सुन रहे थे।
आज़ाद उसकी बातें सुनकर अधीर हो गए। सूर्य की लालिमा में गुस्से से उनका मुख और भी लाल हो गया। वे कहने लगे, “अंग्रेज़ों ने अब तक हमे पीड़ा ही दी है। मैं अंग्रेज़ों का शासन समाप्त करके ही रहूँगा। बिस्मिल, अशफाक, खुदीराम बोस, रोशन, यतीन्द्र, बादशाह जफर के बेटे आदि को उन्होंने मार दिया। भगतसिंह और राजगुरु को भी मृत्युदण्ड मिला है और अभी कैद में हैं। इनका बदला लेने के लिए और भारत माता को स्वतन्त्र कराने के लिए मैं निश्चय ही मज़बूत होकर लडूंगा। मुझे सेना के युवको को संगठित करना होगा। मैं हाल ही में चटगाँव के सूर्यसेन से मिलकर लौटा हूँ। हमारा देश स्वतन्त्र होकर रहेगा।” तभी उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ दो वर्ष पूर्व हुई मुलाकात ध्यान में आती है। रुद्र को बताते हुए वे कहते है कि कानपुर राष्ट्रसेवकों की संगम स्थली है। वहाँ ‘प्रताप’ समाचार पत्र का कार्यालय, जिसके सम्पादक विद्यार्थी जी हैं. क्रान्तिकारियों का आश्रय स्थल है। एक बार फूलबाग में एक सभा हो रही थी। नेता का भाषण हो रहा था। मैं भी श्रोता बनकर सब कुछ सुन रहा था। विद्यार्थी जी को सन्देह हुआ कि नेता की अहिंसा और असहयोग की बातें सुनकर मुझे रोष न आ जाए तथा मैं सभा भंग न कर दूँ। इसलिए वे मुझे नेता की बातों पर ध्यान न देने की सलाह देते हैं, लेकिन उनका यह विचार भ्रम था। मुझे अपनी रक्षा का ध्यान था। जैसे ही लोगों को पता चला कि मैं उस सभा में उपन्थित हूँ, मैंने तत्काल ही सभा से प्रस्थान कर गया। सबको मुझ पर अटल विश्वान्न और श्रद्धा है। इसलिए मुझे बीती बातों से शिक्षा लेकर संगठन को फिर से खड़ा करना है। वह आगे कहते हैं कि मैं प्रयाग जाकर जवाहरलाल से मिलना चाहता हूँ। फिर कानपुर जाकर पार्टी की सुध लूँगा। प्रयाग में जाकर इस संकट को दूर करने का उपाय सोचूँगा।
अगले दृश्य में चन्द्रशेखर आज़ाद प्रयाग में स्थित अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्रों के साथ गम्भीर वार्तालाप कर रहे थे। वह पार्क दिन-रात सूना पड़ा रहता था। शायद वे अपने मित्रों के साथ वहाँ किसी का इन्तजार कर रहे थे, परन्तु अवधि बीत जाने पर उसके न आने पर वहाँ से निकलने वाले थे। उन्हें लगा कि उनके साथ गद्दारी हुई है, तभी पुलिस की गाड़ी वहाँ आकर रुकी। उनका शक सही निकला। उन्होंने उसी क्षण मित्रों को विदा किया और बन्दूक में गोलियाँ भरकर मोर्चा सँभाल लिया। पहली ही गोली में उन्होंने एक देशी अफसर का जबड़ा उड़ा दिया, जिसे देखकर एस.पी. नाटबावर सकते में आ गया। एक घण्टे तक पुलिस और आज़ाद के बीच भयंकर युद्ध हुआ।
“यह एक दण्ड का युद्ध महा विस्मयकारी भयकारी था। इतिहास लगा कहने, ऐसा न लड़ा राघव वनचारी था।”
आज़ाद का साहस देखकर पुलिस बल सहम गया था। लड़ते-लड़ते नाटबावर की कलाई भी आज़ाद की गोली से उड़ गई थी।
“भारत की कोटि-कोटि जनता का मुक्ति-सिपाही एकाकी, लड़ता था, साहस था असीम, सीमा थी शासन सत्ता की।”
आस-पास का सारा वातावरण गोलियों की आवाज़ से गूंज उठा, लेकिन उधर आज़ाद के पास गोलियाँ खत्म हो गई। जब एक गोली शेष रह गई तो वह असमंजस में पड़ गए कि क्या पुलिस के हाथों जीवित पकड़ा जाऊँ? परन्तु कुछ क्षण बाद आज़ाद ने पिस्तौल अपनी कनपटी पर तानकर स्वयं को ही गोली मार ली। उनकी इस विस्मयकारी और साहसिक मुत्यु पर अंग्रेज़ अधिकारी नाटबावर को सन्देह था। इसलिए उसने आज़ाद के मृत शरीर के पास पहुँचकर उनके पैर पर गोली मारकर यह परखा कि कहीं वह जिन्दा तो नहीं है। उनकी मृत्यु ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। अपने इस महान् नायक को खोकर जनता की आँखें गीली थीं। आज भी साधारण जन आज़ाद के नाम को बड़ी श्रद्धा से याद करता है और उनके शौर्य की गाथा गाता है।
“मरने पर भी डर रहा, जनरल बन कर क्षुद्र। वन्दनीय तुम राष्ट्र के, साहस शौर्य समुद्र। गाकर तेरा चरित यह, मिटता हर्ष-विषाद। राष्ट्र-प्रेम जगता प्रबल, शौर्य-मूर्ति ‘आज़ाद’।”
प्रश्न 2. ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर –‘ मातृभूमि के लिए’ नामक खण्डकाव्य के नायक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हैं। डॉ. जयशंकर त्रिपाठी कृत इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय उनका ही जीवन-चरित्र है। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन वे केवल अपने गाँव तक ही सीमित नहीं रहे। उनके ओजस्वी एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व ने पूरे भारतवर्ष को उनका दीवाना बना दिया था। इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की सभी घटनाओं को शामिल न करते हुए संक्षिप्त में ही उनका जीवन परिचय दिया है। कवि ने उनके जीवन के प्रेरणादायी प्रसंगों को अवश्य ही पर्याप्त स्थान दिया है। उनके चरित्र का वर्णन कर आज की युवा पीढ़ी के मन में राष्ट्र एवं राष्ट्रभक्तों के प्रति सम्मान, श्रद्धा तथा प्रेम का भाव जगाना ही इस खण्डकाव्य के रचयिता का उद्देश्य है। आज़ाद, भारत के अमर शहीद क्रान्तिकारियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न हो जाने वाले आज़ाद ने निःस्वार्थ भाव से देश-सेवा की। उनका केवल एक ही लक्ष्य था- अपने देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराना। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक रिश्ते-नातों का भी पूरी तरह से त्याग कर दिया था। उनका पूरा जीवन मातृभूमि के लिए ही था। इस प्रकार ‘मातृभूमि के लिए’ जीने-मरने वाले इस वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य अनुपम है। अतः इस खण्डकाव्य के केन्द्रीय भाव को स्पष्ट करने वाला इसका शीर्षक ‘मातृभूमि के लिए’ पूरी तरह से सार्थक एवं उपयुक्त है। चन्द्रशेखर आज़ाद का पूरा जीवन ही प्रेरणादायी है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने अंग्रेजी सरकार से लोहा लिया और अन्त में लड़ते हुए वीरोचित गति पाई, वह अत्यन्त मार्मिक है। उनका असीम साहस, त्याग, बलिदान और देश-प्रेम हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को हमेशा उनसे प्रेरणा मिलती रहेगी। चन्द्रशेखर आज़ाद के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से ही लिखा गया है और अपनी इस उद्देश्य पूर्ति में इसे एक सफल कृति माना जा सकता है।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 3. ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य के आधार पर चन्द्रशेखर आज़ाद का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य के मुख्य पात्र का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर- डॉ. जयशंकर त्रिपाठी द्वारा रचित ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य अमर स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर आज़ाद को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। वे इस खण्डकाव्य के नायक हैं। उनके चरित्र की प्रमुख अनुकरणीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- प्रभावशाली व्यक्तित्व ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आज़ाद का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। ‘वह राष्ट्रभक्त अति बाँका था।’ कहकर कवि ने उनके शारीरिक सौन्दर्य की छवि प्रस्तुत की है। इसके अतिरिक्त, व्यावहारिक रूप से भी उनका व्यक्तित्व चुम्बक के समान आकर्षक था। उनके एक आह्वान पर हज़ारों युवक स्वतन्त्रता की खातिर अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तैयार हो जाते थे।
- महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद बचपन से ही क्रान्तिकारी स्वभाव के थे। जलियाँवाला बाग और 150 गज लम्बी गली को पेट के बल रेंगकर पार करने की घटनाओं ने उनके भीतर सोए हुए क्रान्तिकारी को जगा दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे काशी में अध्ययन को छोड़कर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। बाद में उन्होंने क्रान्तिकारी दल ‘सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य’ नामक दल की स्थापना की। उन्होंने बम फैक्ट्री की स्थापना भी की थी। उनके नेतृत्व में सरकारी खजाने लूटे गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला भी उन्हीं की प्रेरणा से लिया गया था।
- साहसी एवं निर्भीक चन्द्रशेखर आज़ाद के साहस की तुलना किसी अन्य वीर से करना बेईमानी होगी। मात्र 15 वर्ष की उम्र में मिली सोलह बेतों की सजा को भी उन्होंने हँसते-हँसते झेला था। मजिस्ट्रेट द्वारा नाम पूछने पर उन्होंने अपना नाम ‘आज़ाद’ और पिता का नाम ‘स्वाधीन’ बताया था। उनकी इस निर्भयता से कुपित होकर ही मजिस्ट्रेट ने उनको सोलह बेतों का कड़ा दण्ड दिया था। उनके साहस से अंग्रेज़ी सरकार भी सदा आतंकित रहती थी
“जननी का एक लाल इसमें, सागर-सी वाणी जिसकी थी, सुन करके जिसका उग्र रोष, सरकार ब्रितानी काँपती थी।”
अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने से पूर्व उन्होंने अकेले ही अंग्रेज़ सैनिकों से टक्कर ली। अंग्रेज़ों में उनका खौफ था कि वे आज़ाद के मृत शरीर के पास आने की हिम्मत भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाए थे।
- महान् देशभक्त एवं स्वतन्त्रता सेनानी आज़ाद में देशभक्ति की भावना बहुत प्रवल थी। वह अपनी मातृभूमि के प्रति अगाध स्नेह रखते थे और इसे स्वतन्त्र कराने के प्रति दृढ़ निश्चयी थे। देश को स्वतन्त्र कराने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी थी। स्वतन्त्रता संग्राम में पड़ने वाली ज़रूरत को देखते हुए ही उन्होंने ड्राइवरी भी सीखी। मात्र 25 वर्ष की आयु में ही शहीद हो जाने वाले आज़ाद अन्त तक मातृभूमि के प्रति अपने कर्त्तव्य को निभाते रहे। उनका कथन था
“उनके हित कमर करूँगा मैं, अंग्रेज़ों पर बरसूँगा मैं, करके स्वतन्त्र भारत-माँ को, जननी की गोद बसूँगा मैं।”
- त्यागी एवं बलिदानी आज़ाद ने मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया था, इसके लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया था और अन्त में मातृभूमि के लिए लड़ते
हुए ही वीरगति को प्राप्त हुए। “माता थी पड़ी गाँव में, भाई-पिता कहीं,
‘आज़ाद’ राष्ट्र की बलिवेदी पर खड़े हुए भारत की ब्रिटिश हुकूमत की आँखों में थे जीवन जीये थे भल्ल-नोक से अड़े हुए।”
- संगठन की अद्भुत शक्ति चन्द्रशेखर आज़ाद में एक नेता के सभी गुण विद्यमान थे। ‘सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य’ दल की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। इस संगठन का मुखिया भी उन्हें ही चुना गया। इस दल के सभी कार्य उन्हीं की देख-रेख में होते थे। भगतसिंह ने भी आज़ाद से ही प्रेरणा पाई थी।
“संगठन शक्ति का, पैसे का, वे करते थे व्यक्तित्व खींचता था चुम्बक-सा अमृत-सा ‘तुम’ पण्डित जी से मिलो, राह आज़ादी की बतलाएँगे हर युवक बोलता निश्चित-सा।”
वीर एवं स्वाभिमानी वीरता का गुण चन्द्रशेखर आज़ाद में जन्म से ही था। सोलह बेतों की सजा मिलने पर भी उनके मुख से ‘भारत माता की जय’ के नारे निकलते रहे। सरकार उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी, लेकिन परम स्वाभिमानी आज़ाद को यह कभी भी स्वीकार्य नहीं था। अपने और अपनी मातृभूमि के स्वाभिमान की रक्षा हेतु उन्होंने अन्तिम गोली स्वयं को ही मारकर वीरगति पाई। उनकी वीरता के किस्से सुनकर सरकार भी उनसे सहमी-सहमी रहती थी।
“जिसके साहस का लोहा अब इतिहास बन गया धरती पर ‘आजाद’ वीर ने शेष एक गोली ली तान कनपटी पर।”
चन्द्रशेखर आज़ाद के इन गुणों से स्पष्ट होता है कि वे एक उत्कट (महान्) देश-प्रेमी थे। त्याग, बलिदान, साहस, शौर्य, राष्ट्र-प्रेम, संघर्षशीलता आदि उनके चरित्र के अनुकरणीय गुण हैं। इस दृढ़-संकल्पी महान् क्रान्तिकारी से हमें मातृभूमि से प्रेम करने एवं उसके लिए अपना सब कुछ समर्पित करने की प्रेरणा मिलती है। वे आज भी हर हिन्दुस्तानी के हृदय पर राज करते हैं।