राष्ट्र का स्वरूप : वासुदेवशरण अग्रवाल
गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर
1.भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनन्त काल से है। उसके भौतिक रूप, सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आवश्यक कर्त्तव्य है। भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी। यह पृथ्वी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है, जो राष्ट्रीय पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ी, वह निर्मूल होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथ्वी में जितनी गहरी होंगी, उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा। इसलिए पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की आद्योपान्त जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा को पहचानना आवश्यक धर्म है।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र के प्रथम महत्त्वपूर्ण तत्त्व ‘भूमि’ के रूप, उपयोगिता एवं महिमा के प्रति सचेत रहने तथा भूमि को समृद्ध बनाने पर बल दिया है।
व्याख्या प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का मानना है कि भूमि अनन्तकाल से है, जिसका निर्माण देवताओं ने किया है। इस भूमि के भौतिक स्वरूप, उसके सौन्दर्य एवं उसकी समृद्धि के प्रति सतर्क रहना, उसके प्रति जानकारी रखना हमारा महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है। लेखक का कहना है कि भूमि के पार्थिव (भौतिक) स्वरूप के प्रति हम जितना अधिक जागरूक रहेंगे, हमारी राष्ट्रीयता की भावना उतनी ही बलवती होगी।
हमारी समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी वस्तुतः यह पृथ्वी ही है। कोई भी राष्ट्रीयता यदि अपनी भूमि से नहीं जुड़ी है, तो वह राष्ट्रीयता की भावना निराधार है, निर्मूल है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीयता की जड़ें जितनी अधिक पृथ्वी से जुड़ी होंगी, उस राष्ट्र की राष्ट्रीयता की भावनाओं का अंकुर (बीज) उतना ही अधिक फलेगा-फूलेगा। कहने का अर्थ यह है कि यदि हमें अपनी जन्मभूमि से लगाव नहीं है, उसके प्रति प्रेम नहीं है, तो हमारे अन्दर राष्ट्रीयता की भावना कभी भी दृढ़ नहीं हो सकती। हमें अपने देश की धरती से प्रेम रखना चाहिए।
यदि हमारे अन्दर अपने राष्ट्र के प्रति लगाव है, तो हमें अनिवार्य रूप से अपनी जन्मभूमि के प्रति भी लगाव होगा अन्यथा राष्ट्रीयता की यह भावना खोखली होगी। लेखक का मानना है कि पृथ्वी अर्थात् जन्मभूमि की आरम्भ से अन्त तक जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता एवं महिमा को पहचानना आदि हमारे लिए न केवल आवश्यक है, बल्कि अपरिहार्य है, क्योकि यह हमारा धर्म है, हमारा
कर्त्तव्य है।
साहित्यिक सौन्दर्य
- (i) भाषा सरल, सुबोध, परिष्कृत, परिमार्जित एवं संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है तथा वाक्य विन्यास सुगठित है।
- (ii) शैली गम्भीर एवं विवेचनात्मक है।
- iii) शब्द शक्ति अभिधा है। (
- (iv) विचार सौष्ठव पृथ्वी को ही राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी मानकर, उसके गौरवपूर्ण अस्तित्व को बचाए रखने के लिए सचेत किया गया है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) राष्ट्र भूमि के प्रति हमारा आवश्यक कर्त्तव्य क्या है?-
उत्तर राष्ट्र भूमि के प्रति हमारा आवश्यक कर्त्तव्य यह है कि इस भूमि के भौतिक स्वरूप, उसके सौन्दर्य एवं समृद्धि के प्रति हमें सतर्क एवं जागरूक रहना चाहिए।
(ii) किस प्रकार की राष्ट्रीयता को लेखक ने निर्मूल कहा है?
उत्तर जो राष्ट्रीयता अपनी धरती से नहीं जुड़ी हो, उसे लेखक ने निर्मूल कहा है, क्योंकि राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी पृथ्वी यानी धरती है।
(iii) यह पृथिवी सच्चे अर्थों में क्या है?
उत्तर यह पृथ्वी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है अर्थात् हमारी सभी विचारधाराओं का जन्म पृथ्वी से ही होता है।
(iv) पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत पाठ का शीर्षक ‘राष्ट्र का स्वरूप’ है और लेखक का नाम ‘डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल’ है।
2. माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर बसने वाले जन बराबर हैं। उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृभूमि के उदय के साथ जुड़ा हुआ है, वह समान अधिकार का भागी है। पृथ्वी पर निवास करने वाले जनों का विस्तार अनन्त है- नगर और जनपद, पुर और गाँव, जंगल और पर्वत नाना प्रकार के जनों से भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले और अनेक धर्मों के मानने वाले हैं, फिर भी ये मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण उनका सौहार्द्र भाव अखण्ड है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक-दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनका जो सम्बन्ध है उसमें कोई भेद-भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथ्वी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिए समान क्षेत्र है। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अंगों का विवेचन किया है तथा यह स्पष्ट किया है कि समानता का व्यवहार करते हुए हमें अपनी धरती माता की निःस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए।
व्याख्या प्रस्तुत गद्यांश में स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक माता अपने सभी पुत्रों को समान भाव से प्यार करती है। वह सबके दुःख में दुःखी और सुख में आनन्द का अनुभव करती है। इसी प्रकार पृथ्वी भी हमारी माता है और वह अपने सभी छोटे-बड़े प्राणियों को प्यार देती है तथा प्राणी भी उस पर अपना समान अधिकार रखते हैं। इसी प्रकार इस पृथ्वी की सन्तानों के बीच भी ऊँच-नीच का भाव नहीं होना चाहिए। धरती माता अपने सभी पुत्रों को समान सुविधाएँ प्रदान करती है। मातृभूमि की सीमाएँ अनन्त हैं। इसके निवासी अनेक नगरों, शहरों, जनपदो, गाँवों, जंगलों एवं पर्वतों में बसे हैं। अलग-अलग स्थानों पर रहने वाले व्यक्ति अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं, अलग-अलग धर्मों को मानते हैं; लेकिन वे सभी एक ही धरती माता के पुत्र हैं।
इसलिए ये सब पारस्परिक प्रेम, सहयोग एवं बन्धुता के साथ रहते हैं। भाषा, धर्म एवं रीति-रिवाज़ इनकी एकता में बाधा उत्पन्न नहीं करते। विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले भारतीय सभ्यता एवं जीवन-शैली की दृष्टि से भले ही समान नहीं हैं, लेकिन इससे अपनी मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम एवं समर्पण की भावना में कोई भेदभाव नहीं आता। व्यक्ति अमीर हो या गरीब, प्रगतिशील हो या पिछड़ा, सभी में मातृभूमि के लिए समान प्रेम होता है। संसार के समस्त प्राणियों को प्रगति व उन्नति करने के लिए मातृभूमि समान अवसर प्रदान करती है तथा इनकी समन्वय भावना ही राष्ट्र की उन्नति का आधार होती है।
साहित्यिक सौन्दर्य
- (i) भाषा संस्कृतनिष्ठ, बोधगम्य एवं प्रवाहयुक्त है तथा वाक्य विन्यास सुगठित है।
- (ii) शैली गम्भीर और विवेचनात्मक है।
- (iii) शब्द शक्ति अभिधा है।
- (iv) विचार सौष्ठव ‘समन्वययुक्त जीवन राष्ट्र के अस्तित्व एवं सुख का आधार है। इस तथ्य को लेखक ने अत्यन्त प्रभावकारी ढंग से व्यक्त किया है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(1) प्रस्तुत गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत है।
(ii) “प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है”-पंक्ति का क्या आशय है?
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति का आशय यह है कि व्यक्ति अमीर हो या गरीब, प्रगतिशील हो या पिछड़ा, सभी में मातृभूमि के लिए समान प्रेम-भाव होता है। संसार के समस्त प्राणियों को प्रगति व उन्नति करने के लिए मातृभूमि समान अवसर प्रदान करती है तथा इनकी समन्वय की भावना ही राष्ट्र की उन्नति व प्रगति का आधार होती है।
(iii)गद्यांश में मातृभूमि की सीमाओं को अनन्त क्यों कहा गया है?
उत्तर गद्यांश में मातृभूमि की सीमाओं को अनन्त इसलिए कहा गया है, क्योंकि इसके निवासी अनेक नगरों, शहरों, जनपदों, गाँवों, जंगलों एवं पर्वतों में बसे हुए हैं। भिन्न-भिन्न स्थानों पर रहने वाले व्यक्ति अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं तथा विभिन्न धर्मों को मानने वाले हैं, परन्तु वे सभी एक ही धरती माता के पुत्र हैं।
(iv) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से क्या सन्देश मिलता है?
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अंगों का विवेचन करते हुए हमें सन्देश दिया है कि समानता का व्यवहार करते हुए हमें अपनी धरती माता की निःस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए।
3. जन का प्रवाह अनन्त होता है। सहस्रों वर्षों से भूमि के साथ राष्ट्रीय जन ने तादात्म्य प्राप्त किया है। जब तक सूर्य की रश्मियाँ नित्य प्रातःकाल भुवन को अमृत से भर देती हैं तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर है। इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव पार करने के बाद भी राष्ट्र-निवासी जन नई उठती लहरों से आगे बढ़ने के लिए अजर-अमर है। जन का संततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक घाटों का निर्माण करना होता है।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने धरती माता के लिए सभी प्राणियों को समान बताया है, सभी प्राणियों का धरती पर समान अधिकार है तथा जन जीवन की तुलना नदी के प्रवाह से की है जो कभी समाप्त नहीं होता है।
व्याख्या जन का प्रवाह अनन्त होता है, क्योकि राष्ट्र के निवासियों की जीवन श्रृंखला निरन्तर चलती रहती है। हजारों वर्षों से राष्ट्र के निवासियों ने अपनी भूमि के साथ तादात्म्य स्थापित किया है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरन्तर आगे बढ़ती रहती है। सूर्य की रश्मियों से पृथ्वी अमृत रस से परिपूर्ण हो जाती है अर्थात् जब तक पृथ्वी में सूर्य की किरणें विद्यमान रहेंगी तब तक राष्ट्र के निवासियों का जीवन भी अमर रहेगा। मानव पीढ़ियों से अपने राष्ट्र से जुड़ा है। इसी कारण शताब्दियों से उसका तालमेल अपनी भूमि से बना हुआ है। मनुष्य के जीवन का सुदृढ़ आधार राष्ट्र है, क्योंकि राष्ट्र की प्रगति पर ही मानव जीवन की प्रगति निर्भर करती है।
इतिहास के अनुसार अनेक उन्नति और अवनति के पश्चात् भी मनुष्य का जीवन चलायमान है। राष्ट्र के लोगों ने नवीन शक्ति का निर्माण करते हुए हर प्रकार के उतार-चढ़ावों को सहन किया और वर्तमान में भी वे हर प्रकार की परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार हैं। राष्ट्र के जन का जीवन नदी की भाँति सदैव गतिमान रहता है जिस प्रकार नदी का प्रवाह जहाँ भी जाता है वहाँ विकास उत्पन्न होता है उसी प्रकार मानव को भी अपने कर्म व श्रम द्वारा विकास के चिह्नों को छोड़ते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) राष्ट्रीय जन ने किसके साथ तादात्म्य प्राप्त किया है?
उत्तर राष्ट्रीय जन ने अपनी भूमि के साथ तादात्म्य प्राप्त किया है। मानव पीढ़ियों से अपने राष्ट्र से जुड़ा हैं। इसी कारण शताब्दियों से उसका तालमेल अपनी भूमि से बना हुआ है।
(ii) राष्ट्रीय जन का जीवन भी कब तक अमर है?
उत्तर जब तक प्रकृति में सूर्य की किरणें चमकती रहेंगी, तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर रहेगा।
(iii) जन का संततवाही जीवन किस तरह है?
उत्तर जन का संततवाही जीवन नदी की तरह है। जिस प्रकार एक नदी निरन्तर गतिशील रहकर बीच-बीच में डेल्टा का निर्माण करती जाती है, उसी प्रकार राष्ट्र के लोग अपने कार्य एवं श्रम के माध्यम से प्रगति व उन्नति के अनेक पड़ावों का निर्माण करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहते हैं।
(iv) दिए गए गद्यांश का शीर्षक एवं लेखक का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश का शीर्षक ‘राष्ट्र का स्वरूप’ तथा लेखक का नाम ‘वासुदेव शरण अग्रवाल’ है।
4. राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्ध मात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। भूमि पर बसने वाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं। जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ इस युक्ति को निश्चित करती है और उससे प्रेरित संस्कृति का विकास करती है। इस दृष्टि से प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावना के अनुसार पृथक् पृथक् संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल-आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने संस्कृति की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय संस्कृति के स्वरूप को रेखांकित किया है।
व्याख्या प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भूमि एवं जन के बाद राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति को बताया है। लेखक का मानना है कि मनुष्य ने युगों-युगों से जिस सभ्यता का निर्माण किया है, वह राष्ट्र के निवासियों के लिए जीवन की श्वास की तरह है अर्थात् जिस प्रकार किसी जीव के लिए श्वास महत्त्वपूर्ण होता है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र के लिए संस्कृति एवं सभ्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इसके अभाव में राष्ट्र के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग सकता है। बिना संस्कृति के, जन की कल्पना नहीं की जा सकती। वास्तव में संस्कृति मनुष्य के मस्तिष्क से निर्मित वह व्यवस्था है, जिसके आधार पर आपस में सह अस्तित्व रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं, मूल्यो, रीति-रिवाजों आदि का एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान होता है, जिससे सामूहिक जीवन सम्भव हो पाता है। संस्कृति ही हमें व्यवहार एवं आचरण करने का मार्ग बताती है, जिससे हम एक-दूसरे के साथ, समाज के सदस्य अन्य सदस्यों के साथ कुशलतापूर्वक रह सकते हैं। संस्कृति का विकास एवं अभ्युदय का अर्थ है उस राष्ट्र के लोगों के मस्तिष्क का विकास और तभी राष्ट्र की वृद्धि एवं उन्नति सम्भव हो पाती है।
राष्ट्र के निर्माण में भूमि एवं जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का इतना महत्त्वपूर्ण स्थान है कि यदि भूमि एवं जन को संस्कृति से अलग कर दिया जाए, तो राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। संस्कृति वस्तुतः जीवनरूपी वृक्ष का पुष्प है। संस्कृति की सुन्दरता एवं सौरभ से ही राष्ट्र की सुन्दरता एवं उसके सौरभ में वृद्धि होती है। संस्कृति के सौन्दर्य एवं सौरभ में ही राष्ट्र के जन-जीवन का सौन्दर्य एवं यश निहित है। वास्तव में ज्ञान एवं कार्य या कर्त्तव्य के पारस्परिक मेल का, इन दोनों के मिलन से उत्पन्न प्रकाश का नाम ही संस्कृति है।
वस्तुतः लेखक यहाँ कहना चाहता है कि किसी भी राष्ट्र के लिए संस्कृति उसकी जीवनधारा है। उसके बिना राष्ट्र अपना अस्तित्व ही नहीं बना सकता। संस्कृति के अन्तर्गत मौलिक एवं अमौलिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्ष शामिल रहते हैं। अनेक विद्वान् संस्कृति को अमूर्त स्तर पर व्याख्यायित करते हैं। उनके अनुसार संस्कृति लोगों की गतिविधियो, व्यवहार एवं क्रियाकलाप में स्पष्ट रूप से दिखती है। इसका अनिवार्य सम्बन्ध विचारधारा या विचारों से रहता है। इस तरह, कहा जा सकता है कि संस्कृति वास्तव में ज्ञान एवं कार्य दोनों का मिश्रित रूप है।
साहित्यिक सौन्दर्य
- (i) भाषा शुद्ध साहित्यिक, परिमार्जित एवं अलंकृत खड़ी बोली में तत्सम प्रधान शब्दों का प्रयोग किया गया है तथा वाक्य विन्यास सुगठित है।
- (ii) शैली भावात्मक एवं विवेचनात्मक है।
- (iii) शब्द शक्ति अभिधा है।
- (iv) विचार सौष्ठव संस्कृति की भावात्मक व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी देश की उन्नति उसकी संस्कृति पर ही निर्भर करती है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
(ii) संस्कृति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर संस्कृति मनुष्य के मस्तिष्क से निर्मित वह व्यवस्था है, जिसके आधार पर परस्पर सह-अस्तित्व रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं, मूल्यों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं का एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान होता है तथा सामूहिक जीवन सम्भव हो पाता है।
(iii)राष्ट्र की उन्नति में संस्कृति का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर राष्ट्र की उन्नति एवं विकास में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि संस्कृति के विकास एवं अभ्युदय के फलस्वरूप राष्ट्र के लोगों के मस्तिष्क का विकास होता है, जिससे राष्ट्र की उन्नति एवं वृद्धि सम्भव हो पाती है।
(iv)’जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति का आशय यह है कि जिस प्रकार वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा उसके पुष्प में ही निहित होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के जीवन रूपी वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा, सौरभ संस्कृति रूपी पुष्प में निहित होता है। जीवन के गौरव, चिन्तन, मनन और सौन्दर्य बोध में संस्कृति ही प्रतिबिम्बित होती है।
5. साहित्य, कला, नृत्य, गीत, अमोद-प्रमोद अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनन्द-भाव है वह इन विविध रूपों में साकार होता है। यद्यपि बाह्य रूप की दृष्टि से संस्कृति के ये बाहरी लक्षण अनेक दिखायी पड़ते हैं, किन्तु आन्तरिक आनन्द की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनंदित होता है।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश मे लेखक ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि किसी भी राष्ट्र के सुखद जीवन का आधार पारस्परिक सौहार्द एवं एकता की भावना होती है।
व्याख्या राष्ट्र में रहने वाले सभी समुदायों की संस्कृतियाँ भिन्न हैं। इन संस्कृतियों को साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद आदि रूपों में देखा जा सकता है। इन सभी संस्कृतियों के लक्षण बाह्य रूप से भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ते हैं, किन्तु इनके अन्दर मूल रूप से एकसूत्रता विद्यमान होती है। सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के सकारात्मक भाव को ग्रहण करता है और आनन्दित होता है। इसी प्रकार सभी संस्कृतियाँ एकसूत्र में बंध जाती हैं और वह सम्पूर्ण राष्ट्र की संस्कृति कहलाती हैं। किसी भी राष्ट्र की प्रगति व अस्तित्व हेतु एकसूत्रता आवश्यक है।
साहित्यिक सौन्दर्य
- (1) भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है तथा वाक्य विन्यास सुगठित है।
- (ii) शैली विवेचनात्मक है।
- (iii) शब्द शक्ति अभिधा है।
- (iv) विचार सौष्ठव लेखक ने राष्ट्र की प्रगति व अस्तित्व को बने रहने के लिए सांस्कृतिक एकसूत्रता को आवश्यक माना है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) राष्ट्रीय जन अपने मनोभावों को किन रूपों में प्रकट करते हैं?
उत्तर राष्ट्रीय जन अपने मनोभावों को साहित्य, कला, नृत्य, आमोद-प्रमोद आदि रूपों में प्रकट करते हैं।
(ii) प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को कौन स्वीकार करता है?
उत्तर प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को सहृदय व्यक्ति स्वीकार करता है और आनन्दित होता है।
(iii) ‘विश्वव्यापी’ और ‘आन्तरिक आनन्द’ का क्या अर्थ है?
उत्तर ‘विश्वव्यापी’ का अर्थ है, जो सारे संसार में व्याप्त हो अर्थात् परमात्मा तथा ‘आन्तरिक आनन्द’ का अर्थ है हृदय को प्राप्त होने वाला सुख।
(4) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत पाठ का शीर्षक ‘राष्ट्र का स्वरूप’ तथा लेखक का नाम ‘वासुदेवशरण अग्रवाल है।
6. धरती माता की कोख में जो असमूल्य निधियाँ भरी हैं जिनके कारण वह वसुन्धरा कहलाती है उससे कौन परिचित न होना चाहेगा? लाखों-करोड़ों वर्षों से अनेक प्रकार की धातुओं को पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है। दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथ्वी की देह को सजाया है। हमारे भावी आर्थिक अभ्युदय के लिए इन सब की जाँच-पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है। पृथ्वी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कुशल।
शिल्पियों से सँवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। नाना भाँति के अनगढ़ नग विन्ध्य की नदियों के प्रवाह में सूर्य की धूप से चिलकते रहते हैं, उनको जब चतुर कारीगर पहलदार कटाव पर लाते हैं तब उनके प्रत्येक घात से नयी शोभा और सुन्दरता फूट पड़ती है, वे अनमोल हो जाते हैं।
सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ में संकलित डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र के निर्माण में पृथ्वी यानी भूमि के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि इस धरती माता के विविध पक्षों से हम जितना अधिक परिचित होंगे, हमारी राष्ट्रीयता की भावना उतनी ही अधिक बलवती होगी।
व्याख्या लेखक धरती माता अर्थात् पृथ्वी के गर्भ में भरी पड़ी अमूल्य निधियों की चर्चा करते हुए कहता है कि इन निधियों के कारण ही पृथ्वी को वसुन्धरा कहा जाता है।
इन अमूल्य निधियों के बारे में सभी को पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। अनेक धातुएँ इस धरती माता की कोख में लाखों-करोड़ों वर्षों से मौजूद हैं। इन धातुओं को, अमूल्य निधियों को पृथ्वी के गर्भ में पोषण प्राप्त होता है। निरन्तर बहने वाली नदियाँ पहाड़ों की चट्टानों को तोड़कर उन्हें अत्यन्त महीन कणों में परिवर्तित कर मिट्टी का रूप दे देती हैं और इसी मिट्टी से पृथ्वी की, अर्थात् धरती माता की देह सजती है अर्थात् यह धरती फलती-फूलती तथा उपजाऊ बनती है। इनके बारे में खोजबीन करना, इनकी समस्त जानकारी प्राप्त करना हमारी आर्थिक उन्नति के लिए आवश्यक है। इन पत्थरों को नदियों में उपस्थित जड़-पत्थर पेड़ व तरल पदार्थों द्वारा प्राकृतिक रूप से तराशें जाने पर इनकी सुन्दरता देखते ही बनती है। पहाड़ों से टूटे हुए छोटे पत्थर नदियों के प्रवाह के साथ बहते हुए किनारे पर लग जाते हैं, जो सूर्य की धूप से चमकते रहते हैं। ये पत्थर किसी कुशल कारीगर द्वारा सृजित किए गए स्वरूप एवं आकार के दिखाई देते हैं।
साहित्यिक सौन्दर्य
- (i) भाषा गद्यांश की भाषा परिष्कृत एवं परिमार्जित शुद्ध खड़ी बोली है, जिसमें तत्सम शब्दों का बहुलता से प्रयोग हुआ है।
- (ii) शैली इसकी शैली गम्भीर विवेचनात्मक ढंग की है।
- (iii) शब्द शक्ति अभिधा है।
- (iv) विचार सौष्ठव धरती के विभिन्न रहस्यों की खोज करके ही हम अपने राष्ट्र को समृद्धशाली बना सकते हैं।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) अमूल्य निधियाँ कहाँ भरी हैं?
उत्तर अमूल्य निधियाँ पृथ्वी के गर्भ में भरी हैं अर्थात् धरती के नीचे बहुत से रत्न तथा घातुएँ दबी हुई हैं, जोकि मूल्यहीन हैं।
(ii) पृथ्वी को वसुन्धरा क्यों कहते हैं?
उत्तर पृथ्वी को वसुधा इसलिए कहते हैं, क्योंकि पृथ्वी के गर्भ में अमूल्य निधियों का भण्डार है, जो लाखों-करोड़ों वर्षों से मौजूद है। इन निधियों को पृथ्वी के गर्भ में पोषण प्राप्त होता है।
(iii) पृथ्वी की देह को किसने सजाया है?
उत्तर पृथ्वी की देह को नदियों ने सजाया है। दिन-रात निरन्तर बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीस कर उन्हें मिट्टी में परिवर्तित कर देती हैं। इन अनेक प्रकार की मिट्टियों से पृथ्वी की देह को सजाया गया है।
(iv) पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर पाठ का शीर्षक ‘राष्ट्र का स्वरूप’ तथा लेखक का नाम ‘वासुदेवशरण अग्रवाल’ है।
Ok