वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-1
प्रश्न 1. किन्हीं दो प्रावधानों का वर्णन कीजिए जो भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाते हैं।
उत्तर -भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाने सम्बन्धी प्रावधान –
संविधान द्वारा भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया गया है। भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने सम्बन्धी दो प्रावधान निम्नलिखित हैं-
- राज्य का कोई धर्म नहीं – भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के कारण, इसका अपना कोई निजी धर्म नहीं है। धर्मनिरपेक्ष होना, विधर्मी अथवा धर्म-विरोधी राष्ट्र होना नहीं है। धर्मनिरपेक्ष देश में अनेक प्रकार के धर्मों तथा पन्थों का अस्तित्व होता है। भारत में किसी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है जैसा कि अनेक मुस्लिम देशों ने इस्लाम को राजकीय धर्म घोषित किया है।
- धार्मिक स्वतन्त्रता- हमारा संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता के आधार पर किसी भी धर्म का पालन करने, धर्म को परिवर्तित करने तथा धर्म के प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय में अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन मिलता है।
- धार्मिक हस्तक्षेप नहीं– राज्य धार्मिक समभाव व धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहित करता है। राज्य किसी भी धार्मिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करता है। संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी भी प्रकार के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है।
प्रश्न 2. भारत में महिलाएँ अभी भी कई तरह के भेदभाव और दमन का सामना कैसे करती हैं? चार उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : भारत में महिलाएँ अभी भी कई तरह के भेदभाव और दमन का सामना कर रही हैं, जिसे निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) देश की महिलाओं में साक्षरता दर अब भी केवल 65 प्रतिशत है क्योकि माँ-बाप अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर एकसमान खर्च करने के स्थान पर लड़कों पर अधिक खर्च करना पसन्द करते हैं।
(2) भारत में औसतन एक स्त्री एक पुरुष की तुलना में प्रतिदिन एक घण्टा अधिक काम करती है पर उसको ज्यादातर काम के लिए पैसे नहीं मिलते क्योंकि उसके काम को मूल्यवान नहीं माना जाता।
(3) काम के हर क्षेत्र में यानी खेलकूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल-कारखानों से लेकर खेत-खलिहान तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है, भले ही दोनों ने समान काम किया हो।
(4) भारत के अनेक क्षेत्रों में माँ-बाप को केवल लड़के की चाह होती है।
लड़की को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने के तरीके इसी मानसिकता की उपज हैं। इससे देश का लिंग अनुपात गिरकर 940/1000 रह गया है।
प्रश्न 3. राजनीति में जाति किस प्रकार अनेक रूप ले सकती है? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए। [2020]
उत्तर : राजनीति में जाति के महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ जाति के अन्दर की राजनीति भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। राजनीति जातियों को लक्ष्य बनाकर जाति व्यवस्था और जाति पहचान को प्रभावित करती है। प्रत्येक जाति स्वयं को श्रेष्ठ बनाना चाहती है। यही कारण है कि हीन समझी जाने वाली जाति अपने समूह की अन्य जातियों को भी अपने साथ लाने का प्रयास करती है। कोई एक जाति सत्ता पर नियन्त्रण नहीं कर सकती। इसलिए वह मोल तोल के द्वारा अन्य समुदायों को साथ लेने की जोड़-तोड़ में संलग्न रहती है। अब राजनीति में जाति के अन्दर ‘अगड़ा’ व ‘पिछड़ा’ जैसे रूप भी विकसित हो गए हैं। सभी दल कभी जाति तो कभी समुदाय के नाम पर अपना हित साधते हैं।
प्रश्न 4. भारत में जाति प्रथा का राजनीति व समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? [2020, 23 FB]
उत्तर : राजनीति में जाति के महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ जाति के अन्दर की राजनीति भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। राजनीति जातियों को लक्ष्य बनाकर जाति व्यवस्था और जाति पहचान को प्रभावित करती है। प्रत्येक जाति स्वयं को श्रेष्ठ बनाना चाहती है। यही कारण है कि हीन समझी जाने वाली जाति अपने समूह की अन्य जातियों को भी अपने साथ लाने का प्रयास करती है। कोई एक जाति सत्ता पर नियन्त्रण नहीं कर सकती। इसलिए वह मोल तोल के द्वारा अन्य समुदायों को साथ लेने की जोड़-तोड़ में संलग्न रहती है। अब राजनीति में जाति के अन्दर ‘अगड़ा’ व ‘पिछड़ा’ जैसी अवधारणाएँ उत्पन्न हो रही हैं। सभी दल कभी जाति तो कभी समुदाय के नाम पर अपना हित साधते हैं।
राजनीतिक दल अथवा नेता विशेष जाति के पक्ष में सहूलियत की बातें करके अपना वोट बैंक साधते हैं जोकि बहुत गलत है। इससे समाज में जाति प्रथा समाप्त होने के स्थान पर इसको बढ़ावा ही मिलेगा और अन्य जातियों के बीच तनाव बढ़ेगा। राजनीति से अलग अनेक गैर-राजनीतिक संगठन लोगों से भेदभाव समाप्त करने और सम्मानजनक जीवन जीने हेतु रोजगार के अवसर बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। साथ ही वे सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का आग्रह कर रहे हैं। केवल जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति लोकतन्त्र के लिए घातक सिद्ध होगी। इससे भ्रष्टाचार, गरीबी आदि जैसे बड़े मुद्दों से ध्यान हटता है।
प्रश्न 5. जाति पर आधारित निर्वाचन होने में क्या हानियाँ हैं? किन्हीं दो हानियों का उल्लेख कीजिए। [2020]
उत्तर: जाति पर आधारित निर्वाचन होने में निम्नलिखित हानियाँ हैं-
(1) जाति के आधार पर निर्वाचन होने पर जाति के आधार पर ही राजनीतिक दल प्रत्याशी को टिकट देते हैं तथा मतदाता भी जाति के आधार पर हो उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करते हैं।
(2) इस प्रकार के निर्वाचन में चुनाव में हिंसा भी उत्पन्न हो जाती है।
प्रश्न 6. अपने देश में महिलाओं को सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकार दिए जाने के पक्ष में तीन तर्क दीजिए। क्या उन्हें किसी संवैधानिक संस्था में आरक्षण प्राप्त है? [2020]
उत्तर: अपने देश में महिलाओं को सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार दिए जाने के पक्ष में तीन तर्क निम्नलिखित हैं-
(1) महिलाओं को सत्ता पर नियन्त्रण दिया जाना चाहिए जिससे सामाजिक भेदभाव की एक बड़ी वजह लैंगिक भेदभाव समाप्त होगा।
(2) निर्वाचित संस्थाओं में महिलाओं के लिए कुछ स्थान सुरक्षित किए जाने चाहिए।
(3) सेना में महिलाओं को पर्याप्त स्थान दिए जाने चाहिए।
भारत में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई पद आरक्षित कर दिए गए है।
प्रश्न 7. साम्प्रदायिकता को दूर करने के लिए किन्हीं तीन उपायों का उल्लेख कीजिए। (2022)
उत्तर: साम्प्रदायिकता दूर करने के उपाय हैंー
(1) धार्मिक पूर्वाग्रहों. का समापन,
(2) सम्प्रदायगत भेदभाव न करना,
(3) शिक्षा का प्रचार-प्रसार।
वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-2▼
प्रश्न 1. जाति प्रथा भारतीय लोकतन्त्र के लिए किस प्रकार खतरा है? विस्तार से समझाइए।
अथवा जाति पर आधारित निर्वाचन होने में क्या हानियाँ हैं? किन्हीं दो हानियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा लोकतन्त्र के लिए जातिवाद क्यों घातक है? दो कारण लिखिए।
उत्तर : जाति प्रथा भारतीय लोकतन्त्र के लिए खतरा है क्योंकि इसके कारण योग्यता के स्थान पर जाति को अधिक महत्त्व दिया जाता है। राजनीति व सत्ता के समीकरणों को साधने के लिए राजनीतिक दल योग्यता के स्थान पर जाति को अधिक महत्त्व देते हैं।
राजनीति में जाति के महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ जाति के अन्दर की राजनीति भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। राजनीति जातियों को लक्ष्य बनाकर जाति व्यवस्था और जाति पहचान को प्रभावित करती है। प्रत्येक जाति स्वयं को श्रेष्ठ बनाना चाहती है। यही कारण है कि हीन समझी जाने वाली जाति अपने समूह की अन्य जातियों को भी अपने साथ लाने का प्रयास करती है। कोई एक जाति सत्ता पर नियन्त्रण नहीं कर सकती इसलिए वह मोल तोल के द्वारा अन्य समुदायों को साथ लेने की जोड़-तोड़ में संलग्न रहती है। अब राजनीति में जाति के अन्दर ‘अगड़ा’ व ‘पिछड़ा’ जैसी अवधारणाएँ उत्पन्न हो रही हैं। सभी दल कभी जाति तो कभी समुदाय के नाम पर अपना हित साधते हैं। राजनीतिक दल अथवा नेता विशेष जाति के पक्ष में सहूलियत की बाते
करके अपना वोट बैंक साधते हैं जोकि बहुत गलत है। इससे समाज में जाति प्रथा समाप्त होने के स्थान पर इसको बढ़ावा ही मिलेगा और इनके बीच तनाव बढ़ेगा। राजनीति से अलग अनेक गैर-राजनीतिक संगठन लोगों से भेदभाव समाप्त करने और सम्मानजनक जीवन जीने हेतु रोजगार के अवसर बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। साथ ही वे सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का आग्रह कर रहे हैं। केवल जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति लोकतन्त्र के लिए घातक सिद्ध होगी। इससे भ्रष्टाचार, गरीवी आदि जैसे बड़े मुद्दों से ध्यान हटता है।
वर्तमान में भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण व उल्लेखनीय बदलाव आया है। शहरीकरण और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ आर्थिक सामाजिक स्तर पर हुए परिवर्तनों ने जाति प्रथा को कमजोर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। शहरों में जाति से सम्बन्धित भेदभाव कम हुआ है। भारतीय संविधान में जातिगत भेदभाव का निषेध तो किया हो गया है। साथ-ही-साथ भेदभाव से उत्पन्न अन्याय को समाप्त करने हेतु नीतियों का भी निर्माण करने की व्यवस्था दी गई है। ऐसी दशा में सरकारों द्वारा भी समय-समय पर सराहनीय प्रयत्न किए गए हैं। दुःखद स्थिति यह है कि जाति व्यवस्था अभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। आज भी शादी-विवाह अपनी ही जातियों में होते हैं।
प्रश्न 2. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की क्या स्थिति है?
उत्तर: विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति भारत में संघीय व्यवस्था को अपनाया गया है। अतः केन्द्र की विधायिका
संसद है जिसमें दो सदन राज्यसभा तथा लोकसभा है। राज्यों के अपने-अपने विधानमण्डल हैं जिसके दो सदन विधानसभा तथा विधान परिषद् है। लोकसभा के सदस्यों का निर्वाचन मतदाता प्रत्यक्ष रूप से करते है तथा दो सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत कर सकता है। राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्यों द्वारा होता है। 12 सदस्यो को राष्ट्रपति मनोनीत करता है। स्वशासन की इकाइयों में ग्रामीण स्तर पर ग्राम पंचायत तथा शहरी क्षेत्रों के लिए नगर निगम विधायिका का कार्य करते हैं।
भारत की विधायिका (लोकसभा) में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम रहा है। लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या अभी कुल सदस्यों की दस प्रतिशत तक भी नहीं पहुँची है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त महिला सांसदों की संख्या में निरन्तर गिरावट आती रही है।
राज्यों के विधानमण्डलों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पाँच प्रतिशत से भी कम है। महिला प्रतिनिधियों के सम्बन्ध में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों की तुलना में काफी नीचे है। भारत महिला प्रतिनिधित्व के मामले में अफ्रीका तथा ‘लैटिन अमेरिका के अनेक विकासशील देशों से भी पीछे है। बहुत कम संख्या मे महिलाएँ प्रधानमन्त्री तथा मुख्यमन्त्री के पदों पर आसीन हुई है।
स्थानीय स्वशासन की इकाइयों में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के उद्देश्य से उनके लिए एक-तिहाई स्थानों का आरक्षण किया गया है।
महिला संगठनों की यह भी माँग है कि संसद तथा राज्य विधानमण्डलों में भी महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित किए जाएँ। संसद में इस सम्बन्ध में एक विधेयक भी प्रस्तुत किया था परन्तु उस पर अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है क्योकि सभी राजनीतिक दल इस विधेयक को लेकर एकमत नहीं हैं।
प्रश्न 3. साम्प्रदायिकता की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए भारतीय राजनीति में इसकी अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों को स्पष्ट कीजिए। अथवा साम्प्रदायिकता लोकतन्त्र के लिए घातक है? दो कारण लिखिए।
उत्तर : साम्प्रदायिकता – साम्प्रदायिकता समाज की वह स्थिति है जिसमें विभिन्न धार्मिक समूह अन्य समूहों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। किसी एक धार्मिक समूह की सत्ता और वर्चस्व तथा अन्य समूहों की उपेक्षा पर आधारित राजनीति, साम्प्रदायिक राजनीति कहलाती है।
राजनीति में साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति – साम्प्रदायिकता तब विकराल रूप धारण कर लेती है जब राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय की विशिष्टता के दावे का पोषण करने लगती है। ऐसी स्थिति में दूसरे धर्मावलम्बियों के विरुद्ध बगावत होने लगती है। साम्प्रदायिक राजनीति के मूल में यह धारणा होती है कि धर्म ही सामाजिक समुदाय का निर्माणकर्त्ता है। इस धारणा के अनुसार एक विशेष धर्म में आस्था रखने वाले लोग एक ही समुदाय के होते हैं। उनके हित समान होते हैं और इस समुदाय के आपसी मतभेद सामुदायिक जीवन के लिए महत्त्व नहीं रखते। साथ ही इनका यह भी मानना होता है कि किसी अलग धर्म को मानने वाले लोग दूसरे सामाजिक समुदाय का हिस्सा नहीं हो सकते और न ही विभिन्न धर्म के लोगों की सोच में कोई समानता होती है।
राजनीति में साम्प्रदायिकता विभिन्न रूपों में हो सकती है। दैनिक जीवन में धार्मिक पूर्वाग्रह, धार्मिक समुदायों के बारे में पहले से बनी धारणाओं तथा अपने धर्म को ही महान मानने की अभिव्यक्ति साम्प्रदायिकता की ही झलक दिखाती है। साम्प्रदायिकता अपने समुदाय को ही राजनीति में उच्च स्थान पर स्थापित करना चाहती है। बहुसंख्यक समुदाय के लोग इस प्रयास में ‘बहुसंख्यकवाद’ को जन्म देते हैं और अल्पसंख्यक समुदाय स्वतन्त्र राजनीतिक इकाई बनाने हेतु प्रयासरत हो जाता है।
राजनीतिक गोलबन्दी साम्प्रदायिक आधार पर की गई राजनीति का ही दूसरा रूप है। धार्मिक चिह्नों और धर्मगुरुओं के माध्यम से अपने ही धर्म के लोगों के मन में भय बिठा दिया जाता है। चुनाव के दौरान मतदाता की धार्मिक भावना व हित की बात कर इसे मुद्दा बनाकर राजनीति में प्रयोग किया जाता है। सम्प्रदाय के नाम पर होने वाली हिंसा, अपराध तथा दंगे साम्प्रदायिकता का सबसे भयानक और अवांछित रूप हैं। विभाजन के समय भारत और पाकिस्तान में भयानक साम्प्रदायिक दंगे हुए। स्वतन्त्रता के बाद भी बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिकता फैली।
प्रश्न 4. भारत में ‘राजनीति में जाति’ और ‘जाति के अन्दर राजनीति’ है- क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उपयुक्त तर्क दीजिए। अथवा राजनीति में जाति किस प्रकार अनेक रूप ले सकती है? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर : हम इस कथन से सहमत हैं कि भारत में ‘राजनीति में जाति’ और ‘जाति के अन्दर राजनीति’ है। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण अग्रलिखित है-
राजनीति में जाति- राजनीति में जाति विभिन्न रूपों में दिखाई देती है।
राजनीतिक दल, चुनाव के लिए उम्मीदवार चुनते समय चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों के अनुसार ही टिकट वितरण करते हैं तथा सरकार के गठन के समय विभिन्न जातियों व समुदायों के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा जाता है। कुछ राजनीतिक दल या उम्मीदवार धार्मिक मुद्दों को उठाकर लोगो का समर्थन व सहानुभूति पाने का प्रयत्न करते हैं। कुछ राजनीतिक दलों को कुछ विशेष जातियों का हितैषी समझा जाता है। प्रत्येक जाति के प्रत्येक व्यक्ति के पास वोट की शक्ति है, सार्वभौम वयस्क मताधिकार ने सभी को समान स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे में राजनीतिक दल राजनीतिक समर्थन पाने के लिए लोगों को गोलबन्द करने हेतु सक्रिय हो जाते हैं। कई बार चुनाव को जातियों का खेल मान लिया जाता है लेकिन यह पूर्णतः सत्य नहीं। प्रत्येक उम्मीदवार को एक जाति या एक समुदाय से अधिक लोगों का भरोसा प्राप्त करना पड़ता है क्योंकि किसी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी निर्धारित जाति के लोगों का बहुमत नहीं होता है।
जाति के अन्दर राजनीति- राजनीति में जाति के महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ जाति के अन्दर की राजनीति भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। राजनीति जातियों को लक्ष्य बनाकर जाति व्यवस्था और जाति पहचान को प्रभावित करती है। प्रत्येक जाति स्वयं को श्रेष्ठ बनाना चाहती है। यही कारण है कि हीन समझी जाने वाली जाति अपने समूह की अन्य जातियों को भी अपने साथ लाने का प्रयास करती है। कोई एक जाति सत्ता पर नियन्त्रण नहीं कर सकती इसलिए वह मोल-तोल के द्वारा अन्य समुदायों को साथ लेने के जोड़-तोड़ में संलग्न रहती है। अब राजनीति में जाति के अन्दर ‘अगड़ा’ व ‘पिछड़ा’ जैसी अवधारणाएँ उत्पन्न हो रही हैं। सभी दल कभी जाति तो कभी समुदाय के नाम पर अपना हित साधते हैं।
प्रश्न 5. बताइए कि भारत में किस तरह अभी भी जातिगत असमानताएँ जारी हैं?
उत्तर : भारत में आज भी जातिगत असमानताएँ जारी है क्योंकि लोग अपनी ही जाति या समुदाय के लोगों के साथ ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करते हैं। अन्य कार्यक्रमों में भी कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो अपनी ही जाति के लोगों को ही बुलाती हैं। चुनाव में अपनी ही जाति के उम्मीदवार को वोट डालते हैं तथा अपनी जाति के अन्य लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करते हैं। जिन जातियों में पहले से ही शिक्षा का प्रचलन था और जिनकी शिक्षा पर पकड़ थी, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में भी उन्हीं का वर्चस्व है। जिन जातियों को पहले शिक्षा से वंचित रखा जाता था, उनके सदस्य अभी भी स्वाभाविक रूप से शिक्षा में पिछड़े हुए हैं।
जाति व्यवस्था के अन्तर्गत सदियों से कुछ समूहों को लाभ की स्थिति में तो कुछ समूहों को दबाकर रखा गया है। इसका प्रभाव सदियों पश्चात् आज तक नजर आता है। अतः यह कहा जा सकता है कि भारत में आज भी जातिगत असमानताएँ विद्यमान हैं।
प्रश्न 6. आधुनिक भारत में जाति और जाति व्यवस्था में आए बदलावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : विभिन्न राजनेताओं और समाज सुधारकों के प्रयासों और आर्थिक बदलावों के चलते आधुनिक भारत में जाति की संरचना और जाति व्यवस्था में भारी बदलाव आए हैं। आर्थिक विकास, शहरीकरण, साक्षरता और शिक्षा के विकास, पेशा चुनने की आजादी और गाँवों में जमींदारी व्यवस्था के कमजोर पड़ने से जाति-व्यवस्था के पुराने स्वरूप और वर्ण-व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में बदलाव आ रहा है। शहरों में ट्रेन या बस में सफर के दौरान या रेस्तराँ में खाना खाते हुए जाति व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा जाता। संविधान में किसी तरह के जातिगत भेदभाव का निषेध किया गया है। संविधान में जाति व्यवस्था से पैदा हुए अन्याय को समाप्त करने वाली नीतियों का आधार तय किया गया है।
प्रश्न 7. किस प्रकार से लैंगिक भिन्नता ने राजनीति को प्रभावित किया? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर: किसी समाज में जब लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुष में भेदभाव किया जाने लगता है तो इस दशा को लैंगिक भिन्नता या असमानता कहते हैं। यह असमानता नैसर्गिक, स्वाभाविक तथा अपरिवर्तनीय है। परन्तु असमानता, इनके विषय में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और भेदभावपूर्ण व्यवहार में निहित होती है, तो एक वर्ग अपने अधिकारों से वंचित हो जाता है।
राजनीति में भी लैंगिक मुद्दे सामने आए हैं। विश्व के अनेक देशों की महिलाओं ने अपने संगठन बनाए और समानता के अधिकारों का उद्घोष किया। कुछ देशों में महिलाओं ने मतदान अधिकार के लिए भी आन्दोलन किया।
भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात न्यूनतम है। वर्ष 2014 में पहली बार लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 12 प्रतिशत तक पहुंची। राज्यों की विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से भी कम है। इस मामले में भारत की स्थिति अन्य विकासशील देशों से खराब है। महिलाएँ, राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री या मुख्यमन्त्री की कुर्सी तक आ गई हैं पर मन्त्रिमण्डलों में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है। स्थानीय सरकारों यानी पंचायतों और नगरपालिकाओं में एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं, किन्तु अफसोस कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एक-तिहाई सीट सम्बन्धी ‘महिला आरक्षण बिल’ पिछले कई वर्षों से लम्बित है।
प्रश्न 8. ” भारत में कभी-कभी चुनाव जातियों पर ही निर्भर करते हैं।” क्यों? इस स्थिति से छुटकारा पाने के सुझाव दीजिए।
उत्तर: भारत में कभी-कभी चुनाव जातियों पर ही निर्भर करते हैं, इसके कारण हैं- सदियों से राजनीति में जाति का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो राजनीतिक पार्टियों ने जाति को एक मुद्दा बनाकर अपने-अपने हित साधे हैं। जब राजनीतिक दल चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नाम निर्धारित करते हैं तो चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखते हैं। राजनीतिक दल और प्रत्याशी समर्थन प्राप्त करने के लिए जातिगत भावनाओं को उद्वेलित करते रहते हैं। सार्वभौम वयस्क मताधिकार और एक व्यक्ति एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने और लोगों को गोलबन्द करने के लिए सक्रिय हो। इससे उन जातियों के लोगों में नयी चेतना पैदा हुई जिन्हें अभी तक छोटा और निम्न माना जाता था।
छुटकारा पाने के सुझाव – जाति प्रधान राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों को जातिगत राजनीति का मुद्दा बनने से रोका जाए। सरकारी द्वारा जातीय तुष्टिकरण नहीं अपनाना चाहिए। राजनीतिक पार्टियाँ जातिवादी उम्मीदवारों को टिकट देने से बचें। पिछड़ी जातियो को मुख्य धारा में लाने के गम्भीर प्रयास होने चाहिए, ताकि उसकी पिछड़ी दशा के नाम पर उनके वोट बटोरने के प्रयास न किए जाएँ।