‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र (नायक कर्ण) का चरित्र- चित्रण (चरित्रांकन/चारित्रिक मूल्यांकन) कीजिए। V Imp (2018, 15, 14, 13, 12, 11)
प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ के आधार पर कर्ण के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- महान् धनुर्धर कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे। लोकलाज के भय से कुन्ती अपने पुत्र को नदी में बहा देती है। कर्ण एक सूत को मिलता है और वही उसका लालन-पालन करता है। सूत के घर पलकर भी कर्ण महादानी एवं महान् धनुर्धर बनता है। एक दिन अर्जुन रणभूमि में अपनी बाणविद्या का प्रदर्शन करता है, तभी वहाँ आकर कर्ण भी अपनी धनुर्विद्या का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन करता है। कर्ण के इस प्रभावपूर्ण प्रदर्शन को देखकर द्रोणाचार्य एवं पाण्डव चिन्तित हो जाते हैं।
- सामाजिक विडम्बना का शिकार कर्ण क्षत्रिय कुल से सम्बन्धित था, लेकिन उसका पालन-पोषण एक सूत के द्वारा हुआ, जिस कारण वह सूतपुत्र कहलाया और इसी कारण उसे पग-पग पर अपमान का घूँट पीना पड़ा। शस्त्र विद्या प्रदर्शन के समय प्रदर्शन स्थल पर उपस्थित होकर वह अर्जुन को ललकारता है, तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। यहाँ पर कर्ण को कृपाचार्य की कूटनीतियों का शिकार होना पड़ता है। द्रौपदी स्वयंवर में भी उसे अपमानित होना पड़ता है।
- सच्चा मित्र कर्ण दुर्योधन का सच्चा मित्र है। दुर्योधन कर्ण की वीरता से प्रसन्न होकर उसे अंगदेश का राजा बना देता है। इस उपकार से भावविह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन जाता है। वह श्रीकृष्ण और कुन्ती के प्रलोभनों को ठुकरा देता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि मुझे स्नेह और सम्मान दुर्योधन ने ही दिया, अतः मेरा तो रोम-रोम दुयोंधन का ऋणी है। वह तो सब कुछ दुर्योधन पर न्योछावर करने को तत्पर रहता है।
- गुरुभक्त कर्ण सच्चा गुरुभक्त है। वह अपने गुरु के प्रति विनयी एवं श्रद्धालु है। एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सोए हुए थे, तभी एक कीट कर्ण की जंघा में घुस जाता है, रक्त की धारा बहने लगती है, वह चुपचाप पीड़ा को सहता है, क्योंकि पैर हिलाने से गुरु की नींद खुल सकती थी, लेकिन आँखें खुलने पर वह गुरु को अपने बारे में सब कुछ बता देता है। गुरु क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं, लेकिन वह अपना विनय नहीं छोड़ता और गुरु के चरण स्पर्श कर वहाँ से चल देता है।
- महादानी कर्ण महादानी है। प्रतिदिन प्रातःकाल सन्ध्या वन्दन करने के बाद वह याचकों को दान देता है। उसके द्वार से कभी कोई याचक खाली नहीं लौटा। कर्ण की दानशीलता का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है
"रवि पूजन के समय सामने, जो याचक आता था, मुँह माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था।"
इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण के पास आते हैं। यद्यपि कर्ण इन्द्र के छल को पहचान लेता है, तथापि वह इन्द्र को सूर्य द्वारा दिए गए कवच और कुण्डल दान में दे देता है।
- महान् सेनानी कौरवों की ओर से कर्ण सेनापति बनकर युद्धभूमि में प्रवेश करता है। युद्ध में अपने रण कौशल से वह पाण्डवों की सेना में हाहाकार मचा देता है। अर्जुन भी कर्ण के बाणों से विचलित हो उठते हैं। श्रीकृष्ण भी उसकी वीरता की प्रशंसा करते हैं। भीष्म उसके विषय में कहते हैं
"अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे, तुम मिले कौरवों को वैसे।"
इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्ण का चरित्र दिव्य एवं उच्च संस्कारों से युक्त है। वह शक्ति का स्रोत है, सच्चा मित्र है, महादानी और त्यागी है। वस्तुतः उसकी यही विशेषताएँ उसे खण्डकाव्य का महान् नायक बना देती हैं।