किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात् ? किंस्विद् शीघ्रतरं वातात् किंस्विद् बहुतरं तृणात् ? ||1||
अनुवाद – भूमि से अधिक भारी क्या है आकाश से अधिक ऊंचा स्थान किसका है वायु से तेज चलने वाला क्या है और तिनके से बढ़कर क्या है
माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा ।। मनः शीघ्रतरं वातात् चिन्ता बहुतरी तृणात् ।। ||2||
अनुवाद – माता भूमि से अधिक भारी है पिता का स्थान आकाश से भी ऊंचा है मन वायु से तेज चलने वाला है चिंता तिनके बढकर है |
किंस्वित् प्रवसतो मित्रं किंस्विन् मित्रं गृहे सतः? । आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन् मित्रं मरिष्यतः ? ॥3॥
अनुवाद – परदेश में रहने वाले का मित्र कौन हैं घर में रहने वाले का मित्र कौन हैं रोगी का मित्र कौन है और मरने वाले का मित्र कौन हैं
सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः । आतुरस्य भिषक: मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः । ॥4॥
अनुवाद – परदेश में रहने वाले का मित्र सार्थ अर्थात धन होता है घर में रहने वाले का मित्र स्वयं की पत्नी होती है रोगी का मित्र वैध होता है मरने वाले का मित्र दान होता है |
किंस्विदेकपदं धर्म्य किंस्विदेकपदं यशः? किंस्विदेकपदं स्वर्गं किंस्विदेकपदं सुखम् ? ॥ 5 ॥
अनुवाद – एक पद वाला धर्म क्या है एक पद वाला यश क्या है एक पद वाला स्वर्ग दिलाने योग्य क्या है और एक पद वाला सुख क्या है
दाक्ष्यमेकपदं धर्मं दानमेकपदं यशः। सत्यमेकपदं स्वर्गं शीलमेकपदं सुखम् ।। ॥ 6 ॥
अनुवाद – एक पद वाला धर्म दाक्षता है एक पद वाला दान यश है,एक पद वाला स्वर्ग दिलाने योग्य सत्य है और एक पद वाला सुख सदाचार है
धान्यानामुत्तमं किंस्विद् धनानां स्यात् किमुत्तमम् ? लाभानामुत्तमं किं स्यात् सुखानां स्यात् किमुत्तमम् ? ॥7॥
अनुवाद – अन्नों में उत्तम क्या है धनों में उत्तम क्या है लाभों में उत्तम क्या है और सुखों में उत्तम क्या है|
धान्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम् । लाभानां श्रेयमारोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा ।। ॥8॥
अनुवाद – अन्नों में उत्तम दक्षता है धनों में उत्तम शास्त्र ज्ञान है लाभों में उत्तम आरोग्यता है और सुखों में उत्तम संतोष है |
किं नु हित्वा प्रियो भवति किन्नु हित्वा न शोचति ? किं नु हित्वार्थवान् भवति किन्नु हित्वा सुखी भवेत्? ॥9॥
अनुवाद – क्या छोड़कर मनुष्य प्रिय हो जाता है क्या छोड़कर शौक नहीं करता है क्या छोड़कर धनवान हो जाता है और क्या छोड़ करके सुखी हो जाता है
मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा ने शोचति। कामं हित्वार्थवान् भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत् ॥10॥
अनुवाद – मनुष्य अभिमान को छोड़कर प्रिय हो जाता है मनुष्य कोध को छोड़कर शोक नहीं करता है, कामना(इच्छा) को छोड़कर धनवान हो जाता है और लोभ को छोड़कर सुखी हो जाता है |
निम्न प्रश्नो के उत्तर संस्कृत में