(मेरठ, फर्रुखाबाद, पीलीभीत एवं रायबरेली जिलों के लिए)
प्रश्न 1. ‘कर्मवीर भरत’ के सभी सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर- प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘कर्मवीर भरत’ के रचयिता लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’ हैं। इस खण्डकाव्य की मुख्य कथावस्तु नई नहीं है। यह मूलतः रामायण एवं रामचरितमानस पर आधारित है, परन्तु यहाँ नायक राम न होकर उनके छोटे भाई भरत हैं। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक भरत के कार्यों एवं चरित्र का ही विकास हुआ है। इस खण्डकाव्य का कथानक छः सर्गों में विभाजित है, जिनका कथासार निम्नलिखित है-
प्रथम सर्ग (आगमन)
इस सर्ग का आरम्भ दशरथ की मृत्यु की घटना से होता है। उस समय भरत और शत्रुघ्न दोनों अपने ननिहाल गए हुए थे। अचानक अयोध्या के दूत वहाँ पहुँच गए और भरत को सन्देश दिया कि गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र ही उन्हें अयोध्या बुलाया है। इस प्रकार अकस्मात् गुरुवर का सन्देश मिलने से भरत व्याकुल हो उठे। उन्हें किसी अमंगल का सन्देह हुआ। उन्होंने दूतों से पूछा कि उनके पिता, तीनों माताएँ, राम-लक्ष्मण एवं अयोध्यावासी सब कुशल से तो हैं ना, परन्तु गुरु के आदेश को मानते हुए दूतों ने सत्य छिपाया और कहा कि सब सकुशल हैं। दूतों के इस उत्तर से भरत को सन्तोष न हुआ। उनके मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था कि यदि सब ठीक है, तो उन्हें इस प्रकार अचानक बिना कारण बताए क्यों बुलाया गया है? उन्होंने शत्रुघ्न सहित तत्काल अपने मामा से विदा होने की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। सात दिन की यात्रा के पश्चात् जब उन्होंने अवध में प्रवेश किया तो उनका हृदय और भी बैठ गया। मार्ग में पड़ने वाले सब घरों में उदासीनता का पहरा था। प्रकृति प्रतिदिन की भाँति लग रही थी, परन्तु फिर भी हर ओर सूनापन लगता था। अयोध्यापुरी ज्यों-की-त्यो थी, परन्तु फिर भी वैभवहीन लग रही थी। उन्हें इस बात पर भी आश्चर्य हो रहा था कि उनके आगमन की सूचना पाकर भी उनके स्वागत की कोई तैयारी नहीं की गई है।
सब मौन होकर संकेतों में बात कर रहे हैं। अयोध्या में उनका इस प्रकार का यह प्रथम अनुभव था। कोमल हृदय भरत यह तो जान गए कि कुछ अशुभ हुआ है, परन्तु क्या हुआ है? यह वे न जान पाए। वे रथ से उतरकर सीधे दशरथ भवन गए, किन्तु पिता को वहाँ न पाकर और वहाँ का सूनापन देखकर उनका दुःख अत्यधिक बढ़ गया। किसी में इतना साहस न था कि उन्हें दशरथ की मृत्यु का समाचार दे पाए। पिता को न पाकर और कहीं से कोई उत्तर न मिलने पर वह व्याकुल होकर अपनी माता कैकेयी के भवन की ओर चल दिए।
द्वितीय सर्ग (राजभवन)
कैकेयी अपने भवन में चुपचाप अकेली बैठी हुई थी। भरत के आने का समाचार पाकर वह पुत्र का स्वागत करने के लिए उठी। उसने प्रसन्नता से भरत का मस्तक चूमकर उसे आशीष दिया और कैकेय देश का कुशल-मंगल पूछा। भरत ने उत्तर देते हुए कहा कि वहाँ तो सब कुशल है, किन्तु अयोध्या में आज क्यों सर्वत्र दुःख पसरा हुआ है? पिताजी, राम-लक्ष्मण, माताएँ आदि सब कहाँ हैं? क्या उन्हें नहीं पता कि भरत आ गया है? कैकेयी ने संयत स्वर में भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनाया। इस दुःखद समाचार को सुनते ही भरत अपने आपको सँभाल नहीं पाए और मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
घबराई हुई कैकेयी ने किसी प्रकार भरत और शत्रुघ्न को सँभाला और उन्हें समझाते हुए कहने लगी कि वीरों को इस प्रकार का आचरण शोभा नहीं देता, परन्तु भरत को इससे सांत्वना न मिली। तब कैकेयी ने धीरज धारण करते हुए भरत को सँभालते हुए कहा कि जब भाग्य विपरीत होता है तब किसी का वश नहीं चलता। भले ही मुझे कोई कुटिल-कुमाता कहे, परन्तु मैंने वही किया जिसमे पूरी मानवता का भला है। मैंने राम और भरत में कभी भेद नहीं किया।
अवधपुरी में सब प्रकार का सुख है। यहाँ के नर-नारी अनुशासित, सुशिक्षित, कर्तव्यनिष्ठ और सुख-वैभव से सम्पन्न हैं। इन पर शासन करना सरल है, किन्तु अब भी कुछ दोन-हीन ऐसे भी हैं, जिनके जीवन में युगों-युगों से घोर उदासी छाई हुई है, जिन्हें न ज्ञान का प्रकाश मिला है और न ही प्रेम, दया, करुणा, ममता आदि। उन्हें हम नीच पामर कहकर दूर भगा देते हैं, किन्तु मानवता के नाते उनका उद्धार करना राजा का कर्त्तव्य है। राम यदि राजा बनकर अवध में ही रह जाते तो मानवता का उद्धार नहीं हो सकता था। इसलिए मैंने पहले वचन में तुम्हारे लिए अवध का राज्य माँगा और दूसरे वचन में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पहले वचन को महाराज मान गए, परन्तु पुत्र-प्रेम के कारण दूसरा वचन सुनते ही उनकी चेतना खो गई।
कैकेयी अपना पक्ष रखते हुए आगे कहती है कि जन-सेवा राज्य, धन-वैभव आदि से भी बढ़कर है। राम परम उदार, दयावान, यशस्वी, त्यागी और करुणावान हैं। साथ ही वह धीर, वीर, गम्भीर, महान् धनुर्धर, दैत्य संहारक, पतित उद्धारक हैं। राम की क्षमता के सामने राज्य तुच्छ है। मानवता और राष्ट्र का उद्धार करने में ही उसकी महानता सिद्ध होगी, किन्तु तुम्हारे पिता को मेरा दूसरा वरदान नहीं भाया। मैंने माता होने के नाते जो उचित समझा, वह किया। राम ने भी सहर्ष मेरी बात मान ली और सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनगमन किया।
महाराज यह सहन नहीं कर सके और स्वर्ग सिधार गए। भरत स्तब्ध होकर कैकेयी की सारी बात सुन रहे थे। अन्त में कैकेयी ने कहा कि अब शोक का त्याग करो और पुत्र-धर्म निभाते हुए महाराज का अन्तिम संस्कार करके राजकाज सँभालो।
कैकेयी की अन्तिम बात सुनते ही शोक में डूबे हुए भरत क्रोध से भर गए। वह ग्लानि से भरकर राम को याद करने लगे। कैकेयी फिर भरत को समझाते हुए कहने लगी कि महाराज को श्रवण कुमार का वध करने पर मुनि दम्पति से यही शाप मिला था कि उनकी मृत्यु इसी भाँति होगी, किन्तु भरत महाराज की मृत्यु और राम वनगमन के लिए स्वयं को ही दोषी मानते हुए विलाप करते हैं। वे कौशल्या, सुमित्रा, उर्मिला आदि के बारे में सोच-सोचकर उनके सामने जाने का साहस नहीं जुटा पाते और अपनी माँ को कहते हैं
“ऐसी रानी कभी हुई है क्या त्रिभुवन में, जिसने पति को स्वर्ग पुत्र भेजे हों वन में। भरत करेगा राज्य, राम को भेज विजन में? जाने क्यों तुमने ऐसा सोचा था मन में? माँग अवध का राज्य किया अपना मन भाया,
किन्तु भरत के भाल अयश का तिलक लगाया।।”
कैकेयी को भरत का इस प्रकार प्रलाप करना उचित नहीं लगा। उसने कहा कि तुम्हारा हृदय निर्मल है फिर तुम्हें इसमें छल क्यों दिखाई दिया? लगता है तुम्हें उस राम की शक्ति पर विश्वास नही है जिसने सुबाहु, ताड़का को मारा था, जिसने * रावण का गर्व चूर किया था, जिसने परशुराम को भी झुका दिया था और जिसमें अमंगल को मंगल करने का तेज है। मैंने अपने हृदय पर पत्थर रखकर अपने पुत्रों को वन भेजा है। त्याग और बलिदान किए बिना संसार में किसी को यश नहीं मिलता है। वह भरत को कर्तव्य पालन के लिए कहती है, लेकिन भरत अपने अपयश के लिए कैकेयी को उत्तरदायी ठहराते हैं। वे किसी प्रकार साहस बटोरकर शत्रुघ्न को सांथ लेकर कौशल्या के पास जाते हैं।
इस खण्डकाव्य की सबसे बड़ी उपलब्धि कैकेयी के कलंकित विमाता के चरित्र को गौरव प्रदान करना है।
तृतीय सर्ग (कौशल्या-सुमित्रा मिलन)
इस सर्ग में भरत का कौशल्या तथा सुमित्रा से मिलने का वर्णन है। इसमें उर्मिला तथा माण्डवी के चरित्र पर भी प्रकाश डाला गया है।
भरत के आने का समाचार पाकर कौशल्या का हृदय प्रेम से भर आया। जैसे ही दोनों भाइयों ने सामने आकर चरण स्पर्श किए तो प्रेम से दोनों को गले लगाया और आशीर्वाद दिया। कौशल्या की करुण दशा देखकर भरत विकल हो उठे। भरत को गले लगाकर कौशल्या अत्यधिक विलाप करने लगी। कौशल्या की ऐसी दशा देखकर भरत स्वयं को धिक्कारने लगे। वे कहने लगे कि मैं ही पिता की मृत्यु और राम के वनगमन का कारण बना। मैं कुल-कलंक, दुःखमूल, दुष्ट, पापी और दुर्मति हूँ। अवध के सारे कष्टों का मूल मैं ही हूँ-
“किस मुँह से कहूँ कि मैं कुछ जान न पाया, माँ की राजनीति-रचना पहचान न पाया? शासन का अधिकार हाय! मैंने कब माँगा,
राम गए वन, मुझसा, जग में कौन अभागा? राज-भोग मैं करूँ, राम हों वन के वासी, हाय! मिली जननी मुझको कैकेयी माँ सी।”
इतना कहते ही भरत ने कौशल्या के पैर पकड़ लिए। कौशल्या ने भरत को सँभालते हुए कहा कि पुत्र इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है और न ही किसी को कैकेयी पर रोष है। कैकेयी ने सदा राम का भला चाहा है। उसने मुझसे भी अधिक राम को प्यार दिया है, परन्तु मैं उसकी भाँति अपने हृदय को कठोर न कर पाई। उसने राम के हित को देखकर ही उसे वन भेजा है, लेकिन अब तुम आ गए हो तो मेरे हृदय का दुःख कम हो गया है। इस पर भरत कहते हैं कि किन्तु माता नगरवासी क्या कहेंगे? इतिहास तो मुझे राज्य का लोभी ही कहेगा। इतना सुनते ही कौशल्या बोली
“जिह्वा लूँगी खींच कहे जो ऐसी वाणी, सुनकर उनकी बात तमक कर बोली रानी।”
वह कहती है कि मैं जानती हूँ कि तुम्हें राज्य का लोभ नहीं है और यही सर्वोपरि सत्य है। वह भरत का उत्साह बढ़ाते हुए कहती है कि कर्मशील वीर पुरुष क्षणिक लोक-निन्दा पर ध्यान नहीं देते। जो इन बातों में उलझ जाते हैं, वे जग में कभी महान् कार्य नहीं कर पाते। कैकेयी ने जो किया, वही सभी के लिए उचित
है। अब तुम आत्मग्लानि दूर कर अपने कर्त्तव्य का पालन करो। जग में राम से
भी अधिक सुयश तुम्हारा होगा। जब सुमित्रा ने सुना कि भरत आ गया है, तो वह अपना सारा दुःख भुलाकर भरत से मिलने दौड़ी। उसने भरत और शत्रुघ्न, दोनों को गले लगाकर आशीर्वाद दिया। सुमित्रा के सम्मुख भी भरत स्वयं को दोषी ठहराने लगे और प्रलाप करने लगे। सुमित्रा ने भी कौशल्या की भाँति ही भरत को समझाते हुए कहा कि राज्य का लोभ तुम्हें नहीं है, किन्तु पुत्र होने के नाते तुम्हें पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। तुम्हें सिंहासन का लोभ नहीं है, किन्तु सिंहासन तुम्हें राजा के रूप में पाकर गौरव का अनुभव करेगा। तुम राम के लिए दुःखी मत हो।
राम के साथ लक्ष्मण है और वन में रहकर मानवता का दुःख हरने में उनका गौरव है। सुमित्रा की बातें सुनकर भरत को कुछ सांत्वना मिली, परन्तु वरदान की बात पुनः स्मरण आते ही फिर क्षोभ करने लगे। सुमित्रा धैर्य के साथ कहती है कि राम सभी विपदाओं का सामना करने में सक्षम हैं। इसलिए उनकी चिन्ता मत करो। तुम अपने मन का शोक त्याग कर कर्त्तव्यपथ पर आगे बढ़ो। यदि तुम इस प्रकार अधीर रहोगे तो उर्मिला और माण्डवी भी स्वयं को सँभाल नहीं पाएँगी। उर्मिला ने हँसकर अपने पति को विदा किया है। उसके हृदय का दुःख कभी प्रकट नहीं होता। माण्डवी पहले ही सीता-वियोग और महाराज की मृत्यु से आहत है। तुम्हें दुःखी देखकर वह दोनों भी दुःखी होंगी। अतः दुःख त्यागकर गुरु-आज्ञा का पालन करो और अपने कर्त्तव्य को पूरा करो। इस प्रकार सुमित्रा भरत और शत्रुघ्न को प्यार से समझा-बुझाकर गुरु वशिष्ठ के पास भेजती है।
चतुर्थ सर्ग (आदर्शवरण)
माताओं के समझाने पर भरत शत्रुघ्न को साथ लेकर गुरु वशिष्ठ के सम्मुख प्रस्तुत हुए। वशिष्ठ ने भरत को पुत्र-धर्म निभाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वत्स ! अब और विलम्ब मत करो। पिता का अन्तिम संस्कार कर राज्यभार सँभालो। कुल परम्परा में सबसे श्रेष्ठ महाराज दशरथ के पुत्र होकर तुम्हें इस प्रकार आँसू बहाना शोभा नहीं देता। भरत गुरु के सामने कैकेयी पर दोषारोपण करते हैं, तो गुरु उन्हें समझाते हैं कि जो कुछ हुआ उसमें किसी का दोष नहीं है। सब भाग्य का खेल है। गुरुवर के समझाने पर भरत दशरथ के अन्तिम संस्कार के लिए गए, किन्तु जैसे ही उन्होंने अपने पिता का शव देखा तो वे मूच्छित हो गए।
चेतना आने पर वे फिर विलाप करने लगे। तब गुरु वशिष्ठ ने उन्हें समझाया कि जन्म और मृत्यु जीवन के अंग हैं। इस नश्वर संसार में जन्म-मरण और नाश-निर्माण साथ-साथ चलते हैं। अतः महाराज की मृत्यु पर शोक करना ठीक नहीं है। गुरुदेव से धर्म-कर्म का उपदेश सुनकर भरत ने दुःखी मन से, परन्तु श्रद्धापूर्वक दशरथ की अन्तिम क्रिया से सम्बन्धित सारे कार्य किए। इसके पश्चात् मुनि वशिष्ठ, आर्य सुमन्त और सभी सभासदों ने भरत से राजा का पद स्वीकार करने की बात कही। भरत ने सभी की बात ध्यान से सुनने के पश्चात् बड़ी
विनम्रता से कहा कि रघुकुल की यह परम्परा रही है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का अधिकारी होता है। बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई राजा नहीं बन सकता। आर्य सुमन्त ने उनसे सहमत होते हुए कहा कि तुम्हारा कहना सत्य है, परन्तु इस परिस्थिति में तुम्हारा राजा बनना ही उचित है। राम पिता की आज्ञा के कारण वन चले गए हैं। अब यदि तुम राज्य नहीं अपनाओगे तो तुम्हारे पिता का वचन पूरा नही हो पाएगा, परन्तु भरत राज्य स्वीकार करने से स्पष्ट रूप से मना कर देते हैं और राम को मनाकर वापस अयोध्या लाने का प्रस्ताव रखते हैं। उनकी इस बात को सुनकर सभी प्रसन्न हो गए। गुरु वशिष्ठ, आर्य सुमन्त, शत्रुघ्न, तीनों माताएँ और समस्त प्रज्ञा भरत के साथ राम से मिलने के लिए चल पड़े। भरत और शत्रुघ्न सबसे आगे पैदल ही चल रहे थे, किन्तु बाद में कौशल्या के कहने पर रथ पर सवार हुए। दिनभर चलने के पश्चात् सभी ने गोमती नदी को पार कर तमसा के तट पर विश्राम किया।
पंचम सर्ग (वनगमन)
सभी को साथ लेकर जब भरत शृङ्गवेरपुर पहुँचे तो उनके साथ सेना देखकर निषादराज गुह को भरत पर सन्देह हुआ। उसने समझा कि भरत ने पहले राम को वन में भिजवाया और अब राम से युद्ध करने आए हैं। उसने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया। एक वृद्ध ने उसे सुझाव दिया कि भरत पर किसी प्रकार का सन्देह करने से पूर्व उसके मन की बात जान लेना उचित है। निषादराज गुह को यह सुझाव पसन्द आया और वह गुरु वशिष्ठ के समक्ष उपस्थित हुआ।
मुनि वशिष्ठ से भरत के मन का भाव जानकर गुह को बहुत प्रसन्नता हुई। उसने भरत की प्रशंसा की। भरत ने उसे आगे बढ़कर गले लगाया और राम के बारे में पूछा। निषादराज को साथ लेकर भरत और उनके साथ आने वाले सभी लोग आगे बढ़े। मार्ग में उन्होंने प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के दर्शन किए। भारद्वाज ऋषि ने उन्हें चित्रकूट पर्वत जाने के लिए कहा। चित्रकूट वन के समीप पहुँचकर दोनों भाई भाव-विह्वल होकर पैदल ही राम से मिलने चल पड़े।
षष्ठ सर्ग (राम-भरत मिलन)
जब भरत सेना सहित चित्रकूट के समीप पहुँचे तो वहाँ रह रहे भीलों को निषादराज की भाँति भरत पर सन्देह हुआ। उन्होंने तुरन्त राम-लक्ष्मण को इसकी सूचना दी। लक्ष्मण को भी भरत पर सन्देह हुआ, परन्तु राम भरत से मिलने के लिए शीघ्र ही आश्रम से बाहर आ गए। राम को देखते ही भरत उनके चरणों से लिपट गए “
राम चाहते थे भ्राता को अंक लगाना,
पद पकड़े थे भरत, कठिन था उन्हें उठाना।
स्नेह सहित कर खींच, भरत को गले लगाया, दशा देख करुणानिधि का अन्तर लहराया।।”
शत्रुघ्न की दशा भी भरत के समान ही थी। राम ने उन्हें भी प्रेम से गले लगाया। गुरु और माताओं के आने का समाचार सुनकर राम स्वयं उनका स्वागत करने गए। राम-लक्ष्मण और सीता से मिलकर सभी को बहुत प्रसन्नता हुई। वशिष्ठ मुनि ने राम को पिता की मृत्यु का दुःखद समाचार दिया, जिसे सुनकर राम-लक्ष्मण दुःख से अधीर हो उठे। गुरुवर के समझाने पर राम ने धीरज धारण किया और पितृ तर्पण किया। राम के साथ रहकर सभी लोग अति प्रसन्न थे। कुछ दिन तक सभी वहाँ रहे। राम का सामीप्य पाकर और चित्रकूट की निराली शोभा देखकर सभी स्वयं को भी भुला बैठे। राम के प्रताप से वहाँ का वातावरण अत्यन्त पवित्र हो गया था, यहाँ तक कि सिंह जैसे हिंसक पशु भी हिंसा भूल गए थे। एक दिन राम ने गुरुजी से कहा कि अब आप सभी को अयोध्या वापस लौट जाना चाहिए। अवसर पाकर भरत ने राम से कहा कि आपको छोड़कर हम अयोध्या नहीं जा सकते। अवध का राज्य आपका है। अतः अपना राज्य स्वीकार कर मुझे इस कलंक से मुक्त कीजिए। मैं आपका प्रतिनिधि बनकर वन में वास करूँगा और आप अयोध्या का शासन सँभालें। सारी प्रजा का भी यही मत है। कैकेयी भी राम से कहती है कि यह सब मेरे कारण ही हुआ है। मेरे कारण ही रघुकुल पर यह कलंक लगा है। अतः तुम भरत का कहना मानो और अयोध्या लौट चलो। राम ने भरत और माता कैकेयी को समझाते हुए कहा कि आपने जो किया, वह उचित था। फिर हमारे कुल में त्याग, साधना और व्रत का पालन करने के लिए प्रतिनिधि नहीं बनाए जाते। हमारे पिता स्वर्ग सिधार चुके हैं, माताएँ विधवा हो गई है। इतना सब होने पर भी मैं पिता के वचन की लाज न रखूँ तो कुल की अपकीर्ति होगी। उन्होंने भरत से कहा कि तुम अगर कही तो मैं समस्त अपयश स्वीकार कर सकता हूँ, परन्तु एक बार अपने कर्तव्य के बारे में भी तनिक विचार करो।
यह सुनकर प्रेम-सागर में डूबे भरत की आँखें खुल गईं। उन्होंने कहा कि आपने मुझे उबार लिया है। मैं अयोध्या लौट जाऊँगा, परन्तु मुझे एक अनुमति दे दीजिए। मैं आपका प्रतिनिधि बनकर राज-काज चलाऊँगा और नगर के बाहर नन्दीग्राम में आपकी ही भाँति कुटिया बनाकर रहूँगा। आप अपने कर्तव्य का पालन कीजिए, लेकिन मैं आपकी चरण पादुका लिए बिना वापस नहीं जा पाऊँगा। ये पादुकाएँ आपके शासन का चिह्न होंगी और चौदह वर्ष पश्चात् लौटकर आप अपना राज्य संभाल लेना और यदि आप निश्चित अवधि बीतने पर वापस नहीं आए तो अपने भरत को जीवित नहीं पाएँगे। यह कहकर भरत राम के चरणों में गिर गए। राम उनकी भ्रातृ-भक्ति से गद्गद् हो उठे और अपनी पादुकाएँ भरत को दे दीं। फिर राम ने सभी को विदा किया।
भरत ने अयोध्या आकर वही किया जो उन्होंने राम से कहा था। वे नन्दीग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। वहाँ कुशा ही उनका आसन था तथा राम की चरण पादुकाओं को राज-सिंहासन पर सुशोभित किया। शत्रुघ्न की सहायता से वह राज्य चलाने लगे। उन्हें पद का लोभ तनिक भी नहीं था। उन्होंने प्रजा को पुत्रवत् माना और राम के आदर्शों का पालन किया। इस प्रकार अवध में राजा भोगी नहीं, वरन् योगी था। भरत ने अपने चरित्र का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया है।
यहाँ इस खण्डकाव्य का अन्त होता है। इसमें भरत के चरित्र का पूरी तरह विकास हुआ है।
प्रश्न 2. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर- प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘कर्मवीर भरत’ के रचयिता लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’ हैं। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु मूलतः ‘रामायण’ व ‘रामचरितमानस’ से अवतरित है, परन्तु इसके नायक ‘राम’ न होकर उनके छोटे भाई भरत हैं। इसमें प्रारम्भ से अन्त तक भरत द्वारा किए गए कार्यों एवं चरित्र का वर्णन हुआ है। यह खण्डकाव्य छः सर्गों में विभाजित है। इसका सारांश निम्नलिखित है-
खण्डकाव्य का आरम्भ राजा दशरथ की मृत्यु की घटना से होता है। उस समय भरत और शत्रुघ्न दोनों अपने ननिहाल कैकेय-देश गए हुए थे। अचानक अयोध्या के दूत वहाँ पहुँच गए और भरत को सन्देश दिया कि गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र ही उन्हें अयोध्या बुलाया है। भरत सन्देश पाकर व्याकुल हो उठते हैं और शीघ्र अतिशीघ्र अयोध्या पहुँच जाते हैं। अयोध्या में उनके आगमन की कोई तैयारी न देख, भरत को आश्वयं होता है और राजगृह में शोक-सा भास होता है। दशरथ की मृत्यु की सूचना देने का सामर्थ्य किसी में न हुआ।
भरत, कैकेयी के पास जाते हैं, कैकेयी ने उन्हें सारा आख्यान बताया कि उन्होंने राजा दशरथ से अपने प्रतीक्षित वर माँगे- पहला भरत के लिए अवध का राज्य और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास। राजा दशरथ पहला वचन तो मान गए, परन्तु दूसरे वचन को सुनते ही ‘पुत्र-प्रेम’ में अपनी चेतना खो बैठे और स्वर्ग सिधार गए। भरत ये सब सुनकर अत्यन्त विलाप के वशीभूत स्तब्ध हो गए, तभी कौशल्या और सुमित्रा भी भरत के अयोध्या आने की सूचना सुनकर वहाँ आती हैं और भरत को विलाप मे देखकर उन्हें समझाती है। भरत माता कैकेयी के प्रति घृणा भाव से उन पर क्रोधित हो उठते हैं और विलाप
करते हुए कहते हैं-
“किस मुँह से कहूँ कि मैं कुछ जान न पाया, माँ की राजनीति-रचना पहचान न पाया, शासन का अधिकार हाय! मैंने कब माँगा, राम गए वन, मुझसा, जग में कौन अभागा? राज-भोग मैं करूँ, राम हों वन के वासी, हाय! मिली जननी मुझको कैकेयी, माँ सी।
राजा दशरथ का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् भरत अपनी सेना के साथ राम को अयोध्या वापस लाने के लिए वन जाते हैं और वहाँ राम को देखकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा-याचना माँगते हैं। राम भी भ्रातृ-प्रेम से गद्गद् हो उठते हैं और भरत से राजकाज सँभालने के लिए कहते हैं। भरत, राम से कहते हैं कि जब तक आप चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण करके अयोध्या वापस नहीं आते, तब तक मैं आपका प्रतिनिधि बनकर राज-काज चलाऊँगा और नन्दीग्राम में आप की भाँति पर्णकुटी बनाकर रहूँगा। भरत ने वन से जाते समय राम की चरण पादुकाएँ ली और उनके शासन चिह्न के रूप में राजगद्दी पर उन्हें विराजमान किया। इस प्रकार भरत, शत्रुघ्न की सहायता से राज्य का शासन सँभालने लगे। उन्हें पद का कोई लोभ नहीं था, उन्होंने प्रजा को पुत्रवत् माना और राम के आदर्शों का पालन किया। भरत भोगी नहीं योगी थे, जिससे उनके आदर्शरूपी चरित्र का विकास होता है।
प्रश्न 3. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य में प्रतिपादित विषय को स्पष्ट करते हुए सन्निहित उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- कवि लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’ द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘कर्मवीर भरत’ का प्रतिपाद्य विषय भरत के त्यागमयी और कर्मवीर जीवन का चित्रण करना है। भरत को सहज ही अयोध्या का राज मिल गया था, परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। राम के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा है, जो वैभवशाली राज-पाट को पाकर भी विचलित नहीं होती। वह सिंहासन पर राम का ही अधिकार मानते हैं और उनके लौटने तक उनके प्रतिनिधि के रूप में ही कार्यभार संभालते हैं। वस्तुतः इस खण्डकाव्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति के उच्च गुणो; जैसे-तप, त्याग, बलिदान, कर्त्तव्य आदि की समाज में प्रतिष्ठा करना एवं युवा पीढ़ी को इनके प्रति सजग करना ही कवि का मुख्य उद्देश्य है। इसलिए लेखक ने इस खण्डकाव्य के नायक ‘भरत’ और उनकी माता ‘कैकेयी’ को माध्यम बनाया है। अपनी कल्पना से कैकेयी के चरित्र का नवीन रूप से सृजन कर कवि ने जन-सेवा को सर्वश्रेष्ठ बताया है। इसलिए वह कैकेयी के मुख से कहलवाता है-
“धन वैभव का दम्भ भले लगता सुखकर है,
पर जन-सेवा राज्य भोग से भी बढ़कर है।
जो औरों के लिए करे वह कार्य सुकर है,
त्याग और बलिदान विश्व में सदा अमर है।”
भरत के चरित्र को आधार बनाकर कवि ने कर्म और कर्त्तव्यपालन की महिमा स्थापित की है। भरत का त्याग तप प्रसिद्ध है। उन्होंने जहाँ एक ओर जीवन के उच्च आदर्शों पर चलते हुए राज्य को तुच्छ मानकर कर्म को अपने जीवन का हिस्सा वना लिया, वहीं दूसरी ओर भ्रातृ-प्रेम को पुनः परिभाषित किया। भरत-मिलाप का प्रसंग आज भी जन-साधारण में लोकप्रिय है। सुमित्रा भी भरत को कर्म और त्याग के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करती हुई कहती है वे
बिना कर्म के ग्राह्य न होता कभी ज्ञान है,
” बिना त्याग के व्यक्ति नहीं बनता महान् है।”
कैकेयी के माध्यम से कवि दीन-दुःखियों, पतितों और असहायों को अपने समान मानकर उन्हें अपनाने का सन्देश देता है। अन्ततः यही कहा जा सकता है कि कवि ने इस खण्डकाव्य में नायक भरत, कैकेयी, सुमित्रा आदि प्रमुख पात्रों के द्वारा हमें यह शिक्षा दी है कि मानवता के हित में त्याग एवं बलिदान करना हमारा धर्म है। हमें कर्मवीर भरत की तरह अपने कर्म में लीन रहना चाहिए।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 4. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख पात्र / नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर भरत का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर- श्री लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’ द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘कर्मवीर भरत’ के प्रमुख पात्र दशरथ-पुत्र भरत हैं। वे राम के छोटे भाई हैं। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- भावुक हृदय भरत रामायण के सबसे भावुक पात्र हैं। इस खण्डकाव्य में भी उनका चित्रण इसी प्रकार हुआ है। वह किसी भी अनिष्ट की आशंका होने पर व्याकुल हो उठते हैं। पिता के स्वर्गवास का समाचार सुनकर वह शोक के सागर में डूब जाते हैं और दशरथ का शव देखकर मूच्छित होकर गिर पड़ते हैं। पिता का देहान्त, राम का वनगमन और उर्मिला की विरह-कथा सुनकर वे स्वयं को ही इन सबके लिए दोषी मानते हैं। भावना के आवेग में बहकर वह राम से मिलने वन ही पहुँच जाते हैं।
- आदर्श महापुरुष इस खण्डकाव्य के नायक भरत का चरित्र सभी के लिए आदर्श है। वे शील, तप, त्याग और साहस की साक्षात् मूर्ति हैं। उनके विचार बहुत उच्च एवं महान् हैं। वे अपने वंश की परम्परा को आगे ही बढ़ाते हैं, इसलिए वे राज्य मिलने पर भी उसे बड़े भाई के चरणों में समर्पित कर देते हैं। वे बार-बार कहते हैं कि पिता की मृत्यु और बड़े भाई राम के वनवास जाने का कारण वही हैं। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कोई उनके चरित्र पर सन्देह करे और कुल की कीर्ति को कलंक लगे।
- परम त्यागी भरत को अपने पिता से अयोध्या का राज मिला था। यदि वे चाहते तो राजा बनकर सुखपूर्वक अवध में रह सकते थे, परन्तु उन्होंने सभी के कहने पर भी राजा बनना स्वीकार नहीं किया। राज्य के प्रति उनके मन में तनिक भी लोभ नहीं था। अन्त में वे राम को उनका अधिकार लौटाकर यह सिद्ध भी कर देते हैं। राज्य के प्रति उनकी अनासक्ति से सभी परिचित हैं। सुमित्रा भी कहती हैं कि-
“नहीं राज्य-वैभव में है अनुरक्ति तुम्हारी, तुम विदेह हो, अटल राम की भक्ति तुम्हारी।” - राम के अनन्य भक्त भरत राम को अपना बड़ा भाई ही नहीं मानते, वरन् स्वयं को उनका दास मानते हैं। वे कहते हैं
“लघु भ्राता ही नहीं नाथ! मैं दास तुम्हारा।”
एक सच्चे भक्त की भाँति उनका मन राम के चरणों में ही बसता है। उनकी भक्ति भावना और प्रेम के सामने राम भी बहुत भावुक हो जाते हैं। भरत जब राम से मिलने चित्रकूट जाते हैं, तो वे पैदल ही जाना चाहते हैं, परन्तु माता कौशल्या के कहने पर वे विवश होकर रथ पर सवार होते हैं। राम को देखने के पश्चात् तो वे स्वयं को रोक ही नहीं पाते हैं और उनके चरण पकड़ लेते हैं। भरत की इस भक्ति भावना से राम भी गद्गद् हो जाते हैं।
“राम चाहते थे भ्राता को अंक लगाना, पद पकड़े थे भरत, कठिन था उन्हें उठाना। स्नेह सहित कर खींच, भरत को गले लगाया, दशा देख करुणानिधि का अन्तर लहराया।”
- सच्चे कर्मवीर भरत सच्चे कर्मवीर हैं। वे अपने माथे पर लगे कलंक को धोने के लिए राम के स्थान पर स्वयं वन में रहने के लिए भी तैयार हैं।
“वास करूँगा वन में भाई का प्रतिनिधि बन, आप अयोध्या जाएँ, पड़ा सूना सिहासन।”
जब राम उन्हें समझाते हैं, तब भी वे राज्य लेने के लिए तत्पर नहीं होते और उनके प्रतिनिधि बनकर चौदह वर्षों तक अयोध्या का कार्यभार सँभालने का भार उठाते हैं। वे अयोध्या लौटने पर राम की भाँति ही नगर के बाहर नन्दीग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं और वहीं से सारा राज-काज देखते हैं। भरत चौदह वर्षों तक राजा बनकर नहीं, अपितु योगी बनकर रहते हैं। उन्होंने राम के आदर्शों का पालन कर सच्चे कर्मवीर होने का प्रमाण प्रस्तुत किया।
खण्डकाव्य के नामकरण का औचित्य भरत के नाम पर इस खण्डकाव्य का ‘कर्मवीर भरत’ नामकरण सर्वथा उचित है। उनके जीवन में कर्म ही सर्वोपरि था। वे चाहते तो सरलता से मिले राज-पाट को ग्रहण कर राजा बन सकते थे, परन्तु उन्होंने राज्य ठुकरा दिया। यद्यपि उन्होंने राजा के समान ही चौदह वर्षों तक अयोध्या का कार्यभार सँभाला, परन्तु उन्होंने राजा का पद नहीं लिया। एक सच्चे योगी और कर्मवीर की भाँति उन्होंने केवल कर्त्तव्य को महान् समझा। अतः इस खण्डकाव्य का शीर्षक ‘कर्मवीर भरत’ पूर्णतया उचित है।
प्रश्न 5. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर कैकेयी का चरित्र-चित्रण संक्षेप में कीजिए।
उत्तर कवियों और लेखकों ने अब तक कैकेयी के चरित्र को विमाता और कुटिल बुद्धि रानी के रूप में ही चित्रित किया है, परन्तु इस खण्डकाव्य मे कवि ने कैकेयी के चरित्र को उज्ज्वल बनाकर उसे गौरव प्रदान किया है। कैकेयी के चरित्र के उदात्त पक्ष को उभारना इस खण्डकाव्य की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।
कैकेयी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- वीरांगना कैकेयी युद्ध-क्षेत्र और कर्म-क्षेत्र दोनों में ही वीरांगना की भाँति उपस्थित है। वे रण-विद्या में कुशल हैं। एक बार उन्होंने युद्धक्षेत्र में महाराज दशरथ की सहायता कर उनके प्राण बचाए थे। इसी प्रकार वे कर्म-क्षेत्र में भी अपनी वीरता और साहस का परिचय देती हैं। वे राम से अगाध स्नेह रखती हैं, परन्तु फिर भी उन्हें वनवास भेजती हैं, क्योकि वे राम को यशस्वी बनते हुए देखना चाहती हैं। उसे राम के बल-पौरुष पर पूर्ण विश्वास है। अपने हृदय की वीरता का परिचय देते हुए वे कहती हैं-
“असि अर्पण कर मैंने रण कंकण बाँधा है,
रण-चण्डी का व्रत मैंने रण में साधा है।
मेरे बेटों ने पय पिया सिंहनी का है,
उनका पौरुष देख इन्द्र मन में डरता है।”
- कर्त्तव्यपरायणा कैकेयी अपने सभी कर्तव्यों को नली-भाँति समझने वाली तथा उनका पालन करने वाली सशक्त नारी हैं। वे एक क्षत्रिय माता होने के साथ-साथ अयोध्या की रानी भी हैं, इसलिए वे चाहती हैं कि राम वनवासी बनकर प्रजा के कष्टों को दूर करें, जिससे मानवता का उद्धार भी होगा और राम को यश-प्राप्ति होगी। वे कहती हैं कि-
“केवल जन कर पुत्र न कोई बनती माता,
वे क्या, कष्टों के भय से यदि रोई माता ? चढ़ती वय में यदि न चढ़ा पौरुष का पानी,
तो सुख-शय्या पर न बनेगी अमर जवानी।।”
- मानवता का हित चाहने वाली कैकेयी स्वयं तक सीमित रहने वाली राज-स्त्री नहीं हैं। वे उनकी भी शुभचिन्तक हैं, जो युगों-युगों से दबे हुए अशिक्षित हैं और अन्धकार में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे सभी को ईश्वर की सन्तान समझती हैं और सबका भला चाहती हैं। उदार बनकर मानवता की रक्षा करना एवं उनका उत्थान करना वे राजा का कर्त्तव्य मानती हैं, इसलिए वे राम को भी यही समझाती हैं कि वनवास धारण कर तुम मानवता को सुखी करो। वे जानती हैं कि संसार उस पर अनेक आक्षेप लगाएगा, परन्तु मानव सभ्यता को उठाने हेतु लिए गए निर्णय पर उसे तनिक भी पछतावा नहीं है “लोग भले ही मुझे स्वार्थ-रत नीच बताएँ, भले क्रूर माता कह मुझे कलंक लगाएँ। पर मैंने जो किया उसी में सब का हित है, जन-जीवन हेतु व्यक्ति का त्याग उचित है।”
- स्पष्टवादिनी तथा राम के प्रति अगाध स्नेह रखने वाली कैकेयी अपने हृदय के विचारों को स्पष्ट रूप से सबके सामने रखती हैं। इसीलिए वे भरत को धैर्य के साथ दशरथ-मरण एवं राम वनगमन का प्रसंग सुनाती है। भले ही भरत अपनी माता कैकेयी पर रोष प्रकट करते हैं, परन्तु फिर भी वे बिना कुछ उलट-फेर के सत्य उनके सामने रखती हैं।
वे राम से बहुत प्यार करती हैं। इस बात को कौशल्या भी स्वीकार करती हैं “कैकेयी ने सदा राम का हित देखा है,
पर पढ़ पाया कौन कुटिल विधि का लेखा है।
उसने मुझसे अधिक राम को पहचाना है,
और राम ने मुझसे अधिक उसे माना है।”
इसी प्रेमभाव के कारण कैकेयी राम को मानवता के उद्धारक के रूप में यश दिलाना चाहती हैं। राम को वन भेजने के पीछे उसकी भावना महान् है। वे कहती हैं
“राज्य राम के लिए नहीं लगना महान् है, उसमें पौरुष-प्रतिभा है, वे कीर्तिमान है। उसके उर में प्रवाहमान मानव की ममता, समतामय समाज-रचना की उसमें क्षमता।।”
इस प्रकार, इस खण्डकाव्य में कैकेयी के चरित्र के उज्ज्वल पक्ष को उभारकर उसे गौरवमयी बनाया गया है। कवि ने कैकेयी के चरित्र को एक भिन्न रूप में अभिव्यक्त करने में सफलता प्राप्त की है।
प्रश्न 6. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर कौशल्या के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर- रामायण महाकाव्य की प्रमुख पात्र कौशल्या कौशल प्रदेश के राजा सुकोशल एवं रानी अमृतप्रभा की पुत्री थीं। वे अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी एवं उनकी तीन सौ रानियों में पटरानी थी। कौशल्या का सबसे पहला उल्लेख वाल्मीकि रामायण में पुत्र-प्रेम में चाह रखने वाली माँ के रूप में हुआ है। मानस ग्रन्थ में कौशल्या के चरित्र में उच्च बुद्धिमत्ता का चित्रण हुआ है। यद्यपि कैकेयी के यशस्वी चरित्र के सामने कौशल्या का व्यक्तित्व कुछ दव-सा गया है, लेकिन अपने जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक कौशल्या ने पटरानी राजमाता के अनुरूप मर्यादा का पालन किया है। कौशल्या की चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं-
- मर्यादा का पालन करने वाली दशरथ की पटरानी होने के फलस्वरूप कौशल्या को राजभवन में अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त था।
उनका आचरण शालीनतापूर्ण था। वे मर्यादा का पालन करती थीं। कैकेयी से आकर्षण के कारण पति से उपेक्षित व्यवहार मिलने के फलस्वरूप उनके मन में असन्तोष अवश्य था, किन्तु उन्होंने इसे किसी के सामने कभी प्रकट नहीं किया था। पुत्र का राज्याभिषेक होने के समाचार से उन्हें खुशी हुई तथा किसी हद तक राजमाता बनकर जीवन के उपेक्षित पलों से मुक्त होने की भावना थी। पुनः कैकेयी और मंथरा के षड्यन्त्र से पुत्र राम के वनगमन के समाचार को सुनकर वे विचलित हो गई। अपराधी पति दशरथ को भला-बुरा कह सुनाया एवं राम के साथ वन जाने को तत्पर हो गईं। राम के यह कहने पर कि “पति की सेवा उनका प्रथम कर्त्तव्य है,” उन्होंने राम के साथ वन जाने का विचार त्याग दिया। उन्होंने राम को कल्याण-यात्रा के लिए आशीर्वाद दिया। राम के वन चले जाने पर दशरथ के दुःखों का पारावार नहीं रहा। पुत्र के विरह को भूलकर विषादग्रस्त राजा को कौशल्या ने अपना सहारा दिया।
दशरथ की मृत्यु के समय भी वे उनके साथ थीं। पति के न रहने पर उनकी कान्तिहीन दशा एवं शोक उनकी मर्यादा के अनुरूप थे।
- धर्मपरायणा कौशल्या धर्मपरायणा थीं। पुत्रेष्टि यज्ञ की पूर्व सन्ध्या पर पति के साथ यज्ञ के लिए दीक्षित होने वाली रानी कौशल्या ही थीं।
दशरथ की मृत्यु के पश्चात् दूत भरत को बुलाने के लिए गए। भरत ने दूतों से अयोध्या के विषय में समाचार पूछने के क्रम में कौशल्या को ‘धर्मपरायणा’ कहकर सम्बोधित किया था। भरत जब अयोध्या आए तो कौशल्या का हृदय पुत्र के प्रेम से अत्यधिक स्नेह से भर गया। उन्होंने भरत एवं शत्रुघ्न को आशीर्वाद दिया। भरत को छाती से लगाकर वे विलाप करने लगीं। उन्हें समझाते हुए उन्होने कहा कि इस घटना चक्र में उनका या कैकेयी का कोई दोष नहीं है। होनी तो होकर ही रहती है तथा भरत को कर्त्तव्यपालन करने की प्रेरणा दी। भरत के राम से मिलने जाते समय वे उनके साथ वन भी गई थीं। वहाँ उन्होने समय-समय पर दुःखी भरत को सांत्वना भी दी थी। घोर निराशा एवं दुःखद क्षणों में भी उन्होंने वन में भरत के प्रति अपने मातृ-धर्म का पालन किया था। अपने पुत्र राम को उन्होंने कहा है
‘धर्मज्ञ इति धार्मिक धर्म चरितुमिच्छसि’
अर्थात् हे पुत्र। तू धार्मिक है। धर्म के अनुकूल आचरण कर।
दुःख के क्षणों में भले ही कौशल्या विचलित हो जाती थीं, किन्तु वे अपने को संयमित करके सदा धर्म के मार्ग पर चलती थीं। उन्होंने मातृ-धर्म एवं भार्या धर्म का सदा पालन किया।
- धैर्य एवं दया की मूर्ति पुत्र के वनगमन एवं पति की मृत्यु से प्राप्त दुःखों में भी कौशल्या धैर्य धारण करती हैं। पुत्र के वियोग के क्षणों में उन्होंने धैर्य का पालन किया, पति की आज्ञा का सम्मान करते हुए अपने पुत्र को उन्होंने कभी वन से अयोध्या आने के लिए नहीं कहा। पुत्र-वियोग जैसे महान् कष्ट को उन्होंने धीरता से सहन किया। चित्रकूट में सीता की माँ को सांत्वना देते हुए कौशल्या ने उन्हें धैर्य धारण करने के लिए कहा। उनके इस कथन में उस समय दार्शनिकता के साथ-साथ गहरी आत्मानुभूति प्रदर्शित होती है। मानस में कौशल्या का चरित्र गम्भीर एवं धैर्यनिष्ठ है। तुलसीदास ने गीतावली मे उन्हें दयावान बताया है। राम के वियोग में अयोध्यावासी अत्यन्त दुःखी हैं। विशेषकर उनके घोड़े जो राम के वन जाने के पश्चात् उनके वियोग में • अत्यन्त दुर्बल हो गए है, उन पर कौशल्या को दया आती है। वे पथिक से राम को सन्देश भेजती हैं कि वे एक बार उन घोड़ों से मिलने अवश्य आएँ एवं पुनः वन चले जाएँ। जब राम और लक्ष्मण मुनि विश्वामित्र के साथ चले जाते हैं, तब कौशल्या उनके लिए चिन्तित हो जाती हैं। उनकी व्यथा क्रमशः राम के वन-गमन, पति के मृत्योपरान्त हुए उनसे विछोह, चित्रकूट से लौटने एवं राम, लक्ष्मण एवं सीता के वनवास की लम्बी अवधि के समय में करुणापूर्ण चित्रित की गई हैं।
- राजमाता का गौरव राम के वन गमन के पश्चात् कौशल्या की चर्चा नगण्य रही है। इस लम्बी अवधि में अदृश्य रही महारानी कौशल्या राम के वनवास से लौटने पर पुनः दिखाई पड़ती है। वाल्मीकि ने पुत्र-विरहिणी विधवा माता का दुर्बल और कान्तिहीन करुण दशा का चित्रण किया है। पुत्र के राजा बनने के पश्चात् उन्होंने राजमाता के पद को दीर्घकाल तक भोगा। अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक उन्होंने राजमाता के पद को सुशोभित किया, जिसकी उन्हें आकांक्षा थी एवं वे उसकी वास्तविक हकदार भी थीं।
अतः यह कहा जा सकता है कि कौशल्या एक आदर्श महिला, आदर्श पत्नी एवं आदर्श माता थीं।
प्रश्न 7. ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर राम का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर राम का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा ‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर राम के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- कवि लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’ द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘कर्मवीर भरत’ के नायक भरत हैं, परन्तु फिर भी राम के कारण ही भरत के चरित्र का विकास होने से राम भी महत्त्वपूर्ण पात्र बन गए हैं। यद्यपि राम अन्तिम सर्ग में ही प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं, परन्तु सम्पूर्ण खण्डकाव्य में उनके व्यक्तित्व की पर्याप्त चर्चा हुई है। राम की चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं-
- उदात्त गुणों से सम्पन्न एवं रघुकुल का गौरव राम समस्त श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हैं। वे शक्ति, शील और सौन्दर्य के सागर हैं। उनके हृदय में दया, करुणा, ममता, सहनशीलता तथा कल्याणकारी भावनाओं का निवास है। उनके शक्ति, साहस और पौरुष के समक्ष दानव-मानव कहीं ठहर नहीं पाते। अपने इन्हीं गुणों के कारण वे रघुकुल के आदर्श हैं तथा सभी को प्यारे हैं। इन्हीं गुणों के कारण कैकेयी राम को अपने सभी पुत्रों में श्रेष्ठ मानती हैं। अतः उन्होंने जन-सेवा के लिए राम को ही वन भेजा।
- दृढ़तापूर्वक कर्त्तव्यपालन करने वाले राम दृढ़ निश्चयी हैं और कभी भी कर्त्तव्य के पथ से पीछे नहीं हटते। कैकेयी के समझाने पर वे सहर्ष वन जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। जब भरत उन्हें अयोध्या वापस लौटने के लिए कहते हैं, तो वे दृढ़तापूर्वक अपने प्रण पर डटे रहते हैं। उन्हें अपने पिता के वचनों की, कुल की मर्यादा की तथा माता की शिक्षा का स्मरण है। अतः वे दृढ़तापूर्वक कर्तव्य-पथ पर चलते रहते हैं।
- भरत के प्रति अगाध स्नेह जिस प्रकार भरत की भक्ति राम के प्रति अटूट है, उसी प्रकार राम के मन में भी भरत के प्रति अगाध स्नेह है। जब भरत सभी को साथ लेकर सेना सहित चित्रकूट आते हैं, तो लक्ष्मण को भरत की निष्ठा पर सन्देह होता है, परन्तु राम को तनिक भी सन्देह नहीं हुआ, क्योंकि वे भरत को अच्छी प्रकार समझते थे और भरत के लिए वे अपयश भी स्वीकार कर सकते थे। वे भरत की प्रेम-धारा में बहते हुए कहते हैं
“बोले जो भी कहो वो मैं आज करूंगा, तुम कह दो तो अयश-सिन्धु में कूद पडूंगा।”
इस प्रकार ‘कर्मवीर भरत’ में राम के जाने-पहचाने एवं सर्वमान्य स्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम का चित्रण हुआ है।