(अलीगढ़, जौनपुर, बलिया, हमीरपुर एवं एटा जिलों जिलों के लिए)
प्रश्न 1. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य की कथावस्तु/कथानक संक्षेप में लिखिए।
अथवा ‘कर्ण’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर- केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ एक खण्डकाव्य है, जिसका प्रमुख पात्र महाभारत का सबसे उपेक्षित और तिरस्कृत चरित्र कर्ण है। इस खण्डकाव्य की मूलकथा महाभारत से ही ली गई है। इस खण्डकास को सात सर्गों में विभाजित किया गया है, इनके नाम क्रमशः रंगशाला में कर्ण, द्यूत-सभा में द्रौपदी, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान, श्रीकृष्ण और कर्ण, माँ-बेटा, कर्ण वध और जलांजलि हैं।
प्रथम सर्ग
इस सर्ग में कर्ण के जन्म एवं आरम्भिक जीवन का वर्णन है। कुन्ती को सूर्यदेव की आराधना करने के कारण कौमार्यावस्था में ही पुत्र के रूप में कर्ण की प्राप्ति हुई, परन्तु कुल की मर्यादा ने उसकी ममता का गला घोंट दिया। वह अपने पुत्र का लालन-पालन न कर सकी। विवशतापूर्वक उसने कर्ण को त्याग दिया। अधिरथ नाम के सूत और उसकी पत्नी राधा ने बड़े स्नेह से कर्ण को अपनाया और उसका पालन-पोषण किया। राधा द्वारा पालन किए जाने के कारण कर्ण ‘राधेय’ कहलाया, परन्तु सूत-पुत्र होने के कारण उसे अत्यधिक अपमान सहना पड़ा। उसे रंगशाला में कृपाचार्य और पाण्डवों के व्यंग्य वचन सुनने पड़े। द्रौपदी ने भी उसे सूत-पुत्र कहते हुए उससे विवाह करने से इनकार कर दिया। पाण्डवों से अपमानित होने के पश्चात् दुर्योधन ने उसे अपना मित्र बनाया और उसे अंगदेश का राजा घोषित किया, परन्तु इसमें दुर्योधन का स्वार्थ निहित था।
द्वितीय सर्ग
इस सर्ग में द्रौपदी के अपमान का वर्णन है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने आए दुर्योधन को मायावी महल के कारण स्थल और जल में भ्रम हो गया और वह जल में गिर गया। इस पर द्रौपदी को हँसी आ गई और उसने दुर्योधन पर व्यंग्य किया। द्रौपदी द्वारा अपमानित होने पर दुर्योधन से रहा न गया और उसने प्रतिशोध लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिए निमन्त्रित किया। छल से दुयोंधन ने द्यूत में युधिष्ठिर को हरा दिया। युधिष्ठिर अपना सब कुछ हार गए। उन्होंने द्रौपदी को अन्तिम दाँव पर लगाया, परन्तु दुर्भाग्यवश वह उसे भी हार गए। दुर्योधन ने दुःशासन से द्रौपदी को राजसभा में लेकर आने का आदेश दिया। द्रौपदी ने स्वयं की रक्षा करने का प्रयत्न किया, परन्तु दुस्साहसी दुःशासन उसके बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे राजसभा में लाया। विकर्ण ने इस प्रकार कुल-वधू का अपमान करने की निन्दा की, परन्तु कर्ण ने उसे रोक दिया। द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया गया। कर्ण ने इस नीच कार्य में दुर्योधन और दुःशासन का साथ दिया, जो उसके जीवन का सबसे बड़ा अधर्म एवं घृणित कार्य था।
तृतीय सर्ग
इस सर्ग में कर्ण द्वारा कवच और कुण्डल दान करने के प्रसंग का उल्लेख हुआ है। कर्ण अर्जुन को मारने का प्रण कर चुका था, जिसे जानकर धर्मराज युधिष्ठिर और देवराज इन्द्र दोनों ही चिन्तित थे। इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण से उसका कवच-कुण्डल दान में माँगने का षड्यन्त्र रचा, क्योंकि कवच और कुण्डल के रहते हुए कर्ण को परास्त करना असम्भव था। सूर्यदेव ने पूर्व में ही स्वप्न में आकर कर्ण को बता दिया था कि इन्द्र तुम्हारा कवच-कुण्डल माँगने आएँगे, जिन्हें तुम देने से इनकार कर देना, परन्तु कर्ण दानवीर था। वह किसी भी भिक्षुक को निराश नहीं करने का प्रण कर चुका था। अतः जब इन्द्र ब्राह्मण बनकर उसका कवच-कुण्डल माँगने आए, तो उसने सहर्ष इसे इन्द्र को दान में दे दिया। इससे इन्द्र भी उसकी दानवीरता से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
चतुर्थ सर्ग
इस सर्ग में श्रीकृष्ण और कर्ण का संवाद है। युधिष्ठिर के कहने पर श्रीकृष्ण शान्ति-दूत बनकर दुर्योधन को समझाने के लिए हस्तिनापुर पधारे, परन्तु दुर्योधन को युद्ध के अतिरिक्त और कुछ स्वीकार नहीं था। अन्ततः श्रीकृष्ण ने युद्ध को टालने की इच्छा से कर्ण को समझाया कि वह दुयोंधन का साथ छोड़ दे और उसे यह भी बताया कि वह कुन्ती-पुत्र है। अतः पाण्डवों से जाकर मिल जाए, लेकिन कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार न हुआ। उसने श्रीकृष्ण से यह भी कहा कि युधिष्ठिर के सम्मुख यह भेद प्रकट न करना, क्योंकि वह उसे राज्य सौंप देगा जो अनुचित होगा। कर्ण ने यह भी माना कि जब तक श्रीकृष्ण पार्थ के साथ है, तब तक पार्थ का कुछ भी अनिष्ट नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी वह अर्जुन-वध के प्रण से पीछे नहीं हटा।
पंचम सर्ग
इस सर्ग में कुन्ती और कर्ण का संवाद प्रमुख है। भीषण युद्ध को रोकने हेतु कुन्ती स्वयं कर्ण के पास गई। उसने युद्ध रोकने की आशा से कर्ण को यह भेद बता दिया कि वह उसी का पुत्र है और पाण्डव उसके भाई है, परन्तु कर्ण ने कुन्ती को भी वही उत्तर दिया जो श्रीकृष्ण को दिया था। कुन्ती की निराशा देखकर उसने कुन्ती को यह वचन दिया कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी अन्य पाण्डव का वध नहीं करेगा। अर्जुन अथवा कर्ण दोनों में से किसी एक की मृत्यु के पश्चात् भी उसके पाँच पुत्र ही बने रहेंगे।
षष्ठ सर्ग
यह सर्ग इस खण्डकाव्य का सबसे मार्मिक अंश है। युद्ध में भाग लेने से पूर्व घायल पितामह भीष्म ने भी कर्ण को यही परामर्श दिया कि वह दुर्योधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों के पक्ष में चला जाए, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता का उपकार मानते हुए और अपने प्रण को स्मरण करते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। अन्त में वही हुआ, जिसका कर्ण को पूर्वाभास था। जब कर्ण भूमि में धँसे हुए अपने रथ का पहिया निकाल रहा था, तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण का संकेत पाकर उसका वध कर दिया और इस प्रकार महाभारत के इस परमवीर पात्र का दुःखद अन्त हो गया।
सप्तम सर्ग
इस खण्डकाव्य का अन्तिम भाग है, जिसमें युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर द्वारा अपने सभी भाइयों और सम्बन्धियों का जलदान करने का वर्णन है। कुन्ती उसे कर्ण का भी जलदान करने को कहती है। इस पर युधिष्ठिर को आश्चर्य होता है, तब कुन्ती सबके सामने इस सत्य को उजागर करती है कि कर्ण उसी का ज्येष्ठ पुत्र था। यह जानकर युधिष्ठिर, कर्ण का भी जलदान करते हैं, परन्तु अपने ही बड़े भाई का वध करने की उन्हें घोर ग्लानि होती है, जो उन्हें जीवनभर व्यथित करती रही। इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य मूल रूप से महाभारत के सबसे उपेक्षित एवं तिरस्कृत पात्र कर्ण की महिमा को स्थापित करना है, परन्तु कवि यह भी मानता है
कि वह महावीर और दानवीर होने के साथ अहंकारी भी था। इसलिए तो उसने द्यूत-सभा में दुर्योधन को उत्साहित किया और द्रौपदी के अपमान में सहभागी बना।
खण्डकाव्य की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है। कवि ने क्लिष्ट शब्दों से बचने का प्रयास किया है तथापि कहीं-कहीं थोड़े-बहुत कठिन शब्द आ गए हैं, परन्तु इससे विशेष कठिनाई नहीं होती। कुल मिलाकर कथानक एवं भाषा-शैली के दृष्टिकोण से यह खण्डकाव्य सुन्दर बन पड़ा है।
प्रश्न 2. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के किसी एक सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
अथवा केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।
प्रथम सर्ग
उत्तर- ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के रचनाकार केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ हैं। यह खण्डकाव्य सात सर्गों क्रमशः रंगशाला में कर्ण, द्यूत-सभा में द्रौपदी, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान, श्रीकृष्ण और कर्ण, माँ-बेटा, कर्ण वध और जलांजलि में विभाजित है। इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) का सारांश निम्न है-
सूर्यदेव की आराधना के फलस्वरूप विवाह से पूर्व ही कुन्ती को एक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। उस क्षण कुन्ती उस पुत्र का तेज और भोलापन देखकर निहाल हो उठी, परन्तु अगले ही क्षण उसे कुल की मर्यादा और सामाजिक नियमों का ध्यान हो आया। कौमार्यावस्था में ही सन्तान को जन्म देने के कारण कुन्ती और उसके कुल-परिवार को सामाजिक रूप से अपमानित होना पड़ता। इसी भय से उसने अपनी ममता का गला घोंटते हुए अपने ही हाथों से उस पुत्र को नदी की धारा में वहा दिया। ऐसा करते हुए उसका मन ग्लानि से भर उठा, परन्तु वह विवश थी। बहते-बहते वह शिशु अधिरथ नाम के एक सूत को मिला।
अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने उस पुत्र को अपनाकर प्रेमपूर्वक उसका लालन-पालन किया। राधा का पुत्र होने के नाते वह ‘राधेय’ कहलाया। अधिरथ और राधा को कहाँ पता था कि कर्ण के रूप में उन्हें एक अनमोल रत्न मिला है, जो इतिहास में दानवीर कर्ण के नाम से जाना जाएगा और महाभारत का एक प्रमुख पात्र होगा। यह एक विडम्बना ही थी जो एक क्षत्रिय और राजपुत्र था, वह सूत-पुत्र कहलाया तथा जीवन में पग-पग पर उसे घृणा, अनादर, अवहेलना, तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला। एक बार बचपन में कर्ण रंगशाला पहुँच गया, परन्तु राजपुत्र न होने के कारण कृपाचार्य ने उसे उत्सव में भाग न लेने दिया। पाण्डवों ने भी उसका उपहास किया।
“हिसा ने अर्जुन की वाणी में अपना मुँह खोला
कर्ण नीच राधेय, भीम का गर्व तड़प कर बोला।”
भरी सभा में केवल सूत-पुत्र होने के कारण अपमानित होने पर कर्ण क्रोध और क्षोभ से भर उठा। कर्ण की वीरता से प्रभावित होकर दुर्योधन ने अवसर का लाभ उठाया और उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। वह कर्ण की वीरता को भाँप गया था। उसने कर्ण को यह कहकर सांत्वना एवं सहारा दिया
“सूत-पुत्र अब तुम्हें कहे जो उससे युद्ध करूँगा
उसके अभिमानी मस्तक पर अपना चरण धरूंगा।”
उस समय कर्ण ने स्वयं को तेजहीन अनुभव किया, परन्तु कृतज्ञतापूर्वक उसने दुर्योधन की मित्रता स्वीकार की। कर्ण के जीवन में ऐसे और भी अवसर आए, जब उसे सूत-पुत्र होने के कारण अपमानित होना पड़ा। द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण लक्ष्य-वेध करने के लिए आगे बढ़ा, तब द्रौपदी ने भी उसका तिरस्कार करते हुए कहा-
“सावधान, मत आगे बढ़ना होनी थी जो हो ली
सूतपुत्र के साथ न मेरा गठ-बन्धन हो सकता क्षत्राणी का प्रेम न अपने गौरव को खो सकता।”
उस समय कर्ण अपने क्रोध को पी गया, परन्तु महाभारत को जन्म देने वाली घटनाओं का तो प्रारम्भ हो चुका था।
प्रश्न 3. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के ‘द्यूत-सभा में द्रौपदी’ का सारांश लिखिए।
द्वितीय सर्ग
उत्तर- ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का नाम ‘धृत-सभा में द्रौपदी’ है। इस सर्ग में ‘द्यूत-सभा’ का प्रसंग आया है। इसका सारांश निम्नलिखित है-
द्रौपदी के स्वयंवर में पाँचो पाण्डव भी ब्राह्मण वेश में उपस्थित थे। अवसर मिलने पर ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने लक्ष्य वेध दिया और द्रौपदी ने उनके गले में वरमाला पहना दी। शीघ्र ही यह भेद खुल गया कि लक्ष्य वेध करने वाला ब्राह्मण कोई अन्य नहीं, वरन् पाण्डु पुत्र अर्जुन है। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की पत्नी बनकर हस्तिनापुर पधारी। विदुर आदि के समझाने से युधिष्ठिर को आधा राज्य भी मिल गया। पाण्डवों ने आधा राज्य स्वीकार किया और इसके पश्चात् उन्होंने सफलतापूर्वक राजसूय यज्ञ किया।
इससे दुर्योधन का मन पाण्डवों के प्रति द्वेष से भर उठा। इस पर एक और अप्रिय घटना घटित हो गई, जिससे वह क्रोध से जलने लगा। पाण्डवों के महल में उसे यह भ्रम हुआ कि जल के स्थान पर स्थल है और वह जल में गिर गया। यह देखकर द्रौपदी ने उस पर व्यंग्य किया। दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और इसका प्रतिशोध लेने का प्रण किया। इसके लिए उसने हठपूर्वक पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिए निमन्त्रित किया। धर्मराज अपने चारों भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित हस्तिनापुर पधारे और द्यूत खेला। इसमें वे अपना राज्य, धन-सम्पत्ति, सभी भाइयों और पत्नी द्रौपदी को भी हार गए। दुयोंधन ऐसे ही किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुःशासन को द्रौपदी को द्यूत-सभा में लेकर आने का आदेश दिया। द्रौपदी ने दुःशासन को रोकने का प्रयास किया, परन्तु वह उसके बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे वहाँ ले आया। दास बन चुके पाण्डव दुःशासन और दुर्योधन को रोक न सके। इस पर असहाय पांचाली ने सभी सभाजनों और धर्मराज से प्रश्न किया
“तनिक विचारे धर्मराज ने लाई नीति कहाँ की अपने को ही हार गए अधिकार कौन फिर बाकी
शेष न जब अधिकार मुझे कैसे हारे वे, बोलो।”
परन्तु पांचाली को किसी से कोई उत्तर न मिला। दुर्योधन के भाई विकर्ण ने अवश्य सभी के सामने कुल-वधू को अपमानित करने की निन्दा की और इस घृणित कार्य को रोकने का प्रयास किया, परन्तु स्वयंवर में द्रौपदी के व्यंग्य वचनों से आहत कर्ण ने विकर्ण को शिशु कहकर उसकी बात को अनसुना कर दिया। दुर्योधन और दुःशासन को उत्साहित करते हुए उसने कहा कि जिसके पाँच-पाँच पति हों, वह कुल की लाज नहीं, अपितु वेश्या और छलना है। केवल यही नहीं, उसने आगे कहा-
“दुःशासन ! मत ठहर वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे वह पुकार ले रो-रोकर चाहे वह जिसे पुकारे।”
यह सत्य है कि कर्ण वीर, धीर, दानी और तेजस्वी था; परन्तु उसका यह कृत्य उसके जीवन का सबसे बड़ा अधर्म था, जिसके कारण वह बाद में पछताता रहा। इस पर कवि ने भी कहा है कि
“सत्य कि तुम थे कर्मवीर बल वीर धर्मधारी भी दानी और महादानी, पर महा अहंकारी भी।”
प्रश्न 4. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का उल्लेख कीजिए।
अथवा ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा/सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
तृतीय सर्ग
उत्तर कर्ण ने ‘महाभारत’ में समय-समय पर अपनी दानशीलता का परिचय दिया है, परन्तु प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘कर्ण’ के तृतीय सर्ग में हमें कर्ण की परम दानशीलता का परिचय मिलता है।
‘कर्ण’ खण्डकाव्य का तृतीय सर्ग दानवीर कर्ण के कवच-कुण्डल दान करने के प्रसंग से सम्बन्धित है। इसका सारांश इस प्रकार है जुए में अपना सब कुछ हारने के पश्चात् युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित वनों में भटकने लगे। इधर दुर्योधन ने वैष्णव यज्ञ सम्पन्न करके सम्राट की उपाधि प्राप्त की। दुर्योधन सम्राट बनकर प्रसन्न था, साथ ही उसकी प्रसन्नता का एक कारण और भी था। कर्ण ने अर्जुन को मारने का प्रण किया था “जब तक न करूँ, जब तक अर्जुन के हरू न प्रान तब तक जो भी जो कुछ माँगे दे दूँगा वह दान तब तक मांस और मदिरा दोनों गो-रक्त समान तब तक चरण न धुलवाऊँगा जो भी हो परिणाम।”
कर्ण की इस भीषण प्रतिज्ञा को सुनकर दुर्योधन को बहुत खुशी हुई, क्योकि पाण्डव पक्ष में अर्जुन ही उसका सबसे प्रबल शत्रु था। दूसरी ओर युधिष्ठिर कर्ण की प्रतिज्ञा सुनकर चिन्तित थे, क्योंकि वे जानते थे कि कर्ण एक महान् योद्धा है और वह अपने इस प्रण को पूरा कर सकता है। कौरव पक्ष में भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि एक से बढ़कर एक वीर थे, परन्तु कर्ण उन सभी मे अद्वितीय था। युधिष्ठिर यह भी जानते थे कि जब तक कर्ण के पास दिव्य कवच और कुण्डल है, तब तक उसे परास्त करना असम्भव है। कर्ण के प्रण को सुनकर देवराज इन्द्र भी चिन्ता में पड़ गए, क्योंकि वे अर्जुन के पिता थे। उन्होंने अर्जुन को बचाने के लिए कर्ण से कवच और कुण्डल दान में माँगने का निश्चय किया। वे जानते थे कि कर्ण दान पाने की इच्छा से आए हुए किसी भी व्यक्ति को निराश नहीं करता था। इन्द्र के इस षड्यन्त्र को सूर्य ने जान लिया। उन्हें भी अपने पुत्र कर्ण की चिन्ता थी। अतः उन्होंने कर्ण को स्वप्न में आकर सारी बात बता दी और कवच-कुण्डल देने से मना कर दिया, परन्तु कर्ण ने यह कहकर सूर्यदेव की बात मानने से इनकार कर दिया कि
“ब्राह्मण माँगे दान, कर्ण निज हाथों को मोड़ उन्हें वज्र से इसके पहले ही वह देगा तोड़।”
सूर्यदेव ने उसे समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु सब विफल रहा और जब इन्द्र ब्राह्मण के वेश में कर्ण के सम्मुख कवच-कुण्डल दान में पाने की आशा में उपस्थित हुए, तो कर्ण ने सहर्ष देवराज इन्द्र की इच्छा पूर्ण कर दी। कर्ण जानता था कि कवच और कुण्डल के बिना अर्जुन उस पर हावी हो सकता है, परन्तु कर्ण ने अपने सामर्थ्य पर विश्वास रखते हुए दान देने का अपना प्रण पूरा किया। वह जान गया था कि इन्द्र ही ब्राह्मण वेश में आए हैं तथापि उसने इन्द्र को निराश नहीं किया। इन्द्र की इच्छा तो पूरी हो गई, परन्तु तब इन्द्र को लगा कि मानो वही ठगे गए है। उन्होंने कर्ण की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की।
इस पूरे प्रसंग से कर्ण की दानवीरता का पता चलता है। उसने जीवनभर अपने इस प्रण का पूरी निष्ठा से पालन किया।
प्रश्न 5. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।
चतुर्थ सर्ग
उत्तर ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का नाम ‘श्रीकृष्ण और कर्ण’ है। इस सर्ग का कथानक निम्न है-
पाण्डव अधिकारस्वरूप अपना छिना हुआ राज्य माँगते हैं, परन्तु कौरवों को यह स्वीकार नहीं है। दोनों पक्षों की ओर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। भीषण युद्ध की सम्भावना देखकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से युद्ध टालने का अनुरोध किया और उनसे विनती की कि वह शान्ति-दूत बनकर हस्तिनापुर जाएँ और दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न करें। श्रीकृष्ण ने शान्ति दूत बनने का प्रस्ताव स्वीकार किया और हस्तिनापुर पहुँचे। उन्होंने अनेक प्रकार से दुर्योधन को सुमार्ग पर लाने की कोशिश की, परन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। दुयोंधन युद्ध करने की ठान चुका था। लौटते समय श्रीकृष्ण ने संकेत करके कर्ण को अपने पास बुलाया और अपने रथ पर विठाया। उन्होने बड़े ही प्यार से कर्ण को समझाया कि दुर्योधन स्वार्थी, दुराचारी और अधर्मी है। उसका साथ छोड़कर तुम पाण्डवों के पास आ जाओ, क्योकि पाण्डव तुम्हारे भाई है।
उन्होंने रहस्य से पर्दा हटाते हुए कर्ण को बताया कि तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो और पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता हो। युधिष्ठिर सहर्ष तुम्हें सम्राट पद दे देगा। तुम इस प्रकार इस भयंकर युद्ध को रोक सकते हो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर कर्ण की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने कृष्ण से प्रश्न किया कि यदि ऐसा ही था तो क्यों मुझे जीवनभर सृत-पुत्र होने का अपमान सहना पड़ा? यदि रंगशाला में ही यह भेद खुल गया होता. तो मुझे भरी सभा में अपमानित न होना पड़ता। उसने आगे कहा-
यों न उपेक्षित होता मैं, यो भाग्य न मेरा सोता। “
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता।।
घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया। यह मेरी करुण कहानी। देखो, सुनो, कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी।”
कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ने से मना कर दिया, क्योंकि दुर्योधन का उस पर उपकार था। इस पर श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि युद्ध में निश्चित रूप से पाण्डवों की विजय होगी। तुम अर्जुन को मारने का अपना प्रण पूरा नहीं कर पाओगे। यह सुनकर कर्ण ने कहा कि मैं जानता हूँ कि जिधर आप होंगे, विजयश्री उसी ओर होगी, परन्तु मैं अपने मित्र दुयोंधन का साथ नहीं छोड़ सकता। हे कृष्ण! यह भी मत कहो कि अर्जुन दुर्दम है, वीरों में उत्तम है। यदि तुम अर्जुन का साथ न दो, तो वह वीरों की दुनिया का एक भिखारी मात्र है। मेरे पास अब कवच-कुण्डल नहीं है, परन्तु अब भी मैं अर्जुन को परास्त कर सकता हूँ, तथापि मैं यह भी जानता हूँ कि आप पाण्डवों के साथ हैं. इसलिए अर्जुन अवश्य ही मेरा काल बनेगा। अन्त में कर्ण ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप युधिष्ठिर समेत सभी पाण्डवो को यह न बताना कि मैं उनका ज्येष्ठ भ्राता हूँ। यह जानकर युधिष्ठिर मुझे ही राज-पाट सौंप देगा और मैं वह दुयोंधन को दे दूँगा।
अन्त में, वह पांचाली के प्रति किए गए अधर्म और अत्याचार पर घोर दुःख व्यक्त करता है। श्रीकृष्ण ने कर्ण को दुराग्रही कहा, परन्तु कर्ण दुयोंधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ।
प्रश्न 6. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।
अथवा ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप का विवरण दीजिए।
पंचम सर्ग
उत्तर- ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग का नाम ‘माँ-बेटा’ है, जिसमें युद्ध पूर्व कुन्ती और कर्ण के बीच का संवाद है। इसका कथानक इस प्रकार है-
महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में केवलं पाँच दिन शेष रह गए थे। इस युद्ध में कुरु-वंश का सर्वनाश निश्चित था। इसलिए कुन्ती की चिन्ता दिन-रात बढ़ती जा रही थी। वह कर्ण की ओर से भी चिन्तित थी कि कही भाई के हाथो भाई की हत्या न हो जाए। उसने इस विनाश को रोकने का निश्चय किया और कर्ण के पास पहुंची। उसने कर्ण को सत्य बताने का निश्चय किया। कुन्ती को सहसा अपने पास आए देख कर्ण चौंक गया, परन्तु अपने आप को सँभालते हुए उसने कहा-
“सूत-पुत्र राधेय आपको करता देवि ! प्रणाम कैसे इधर महारानी आ गई, कहें क्या काम?”
यह सुनकर कुन्ती ने कहा कि तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो और युधिष्ठिर के बड़े भाई हो। मुझे ‘माँ’ कहकर तृप्त करो और अपने भाइयों के साथ आकर मिल जाओ। कुन्ती के मुख से यह सत्य सुनकर कर्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और क्रोध एवं ग्लानि से उसका शरीर काँपने लगा। उसने कहा कि आज अपने पुत्रों पर काल मंडराता देखकर तुम मेरे प्रति मिथ्या स्नेह प्रकट करने आई हो! तब तुम्हारा पुत्र प्रेम कहाँ था, जब भरी सभा में मेरा अपमान और तिरस्कार हो रहा था। उस दिन तुमने क्यों नहीं कहा कि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ? आज तुम मुझे कर्म-सुकर्म की शिक्षा दे रही हो, लेकिन जननी होकर ही तुमने मेरे साथ छल किया और मेरे जीवन को नरक बना दिया। तुमने मुझे छला और अब यह चाहती हो कि तुम्हारे समान में भी अपने मित्र को छलूँ? लेकिन में ऐसा नहीं कर सकता। कर्ण के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर कुन्ती व्यथित हो उठी और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा यह निकली। यह देखकर कर्ण बहुत दुःखी हुआ। वह मोचने लगा कि यद्यपि मैने सूत-पुत्र होने के कारण पग-पग पर तिरस्कार, उपहास और विषाद ही पाया है, परन्तु यह भी विडम्बना ही होगी कि एक माँ अपने पुत्र के पास से निराश लौट जाए। यह विचार करते हुए उसने कुन्ती से कहा कि मैं जानता हूँ कि आप क्या आशा लेकर मेरे पास आई हो? इसलिए तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन को छोड़कर किसी अन्य पाण्डव पुत्र का वध नहीं करूंगा, परन्तु अर्जुन को नहीं छोडूंगा। यदि मैं अर्जुन के हाथों मारा गया तो तुम्हारे पाँच पुत्र बने रहेंगे और यदि मेरे हाथों अर्जुन मारा गया तो तुम मुझे अपना लेना, तब भी तुम्हारे पुत्रों की संख्या पाँच ही रहेगी। तुम्हारे पुत्रों की गिनती नहीं बिगड़ेगी। कुन्ती कर्ण की बात सुनकर चुपचाप लौट गई, परन्तु कर्ण विचारों के सागर में खो गया।
प्रश्न 7. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
षष्ठ सर्ग
उत्तर – ‘कर्ण’ खण्डकाव्य का पष्ठ सर्ग ‘कर्ण-वध’ इस पूरे काव्य का सबसे मार्मिक अंश है। इसका सारांश इस प्रकार है-‘
अन्ततः युद्ध होना निश्चित हो ही गया। कौरवों की ओर से पितामह भीष्म सेनापति बनाए गए और पाण्डवों की ओर से द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न ने यह भार संभाला। भीष्म पितामह ने यह घोषणा कर दी कि सेनापति रहते हुए वह कर्ण को युद्ध में भाग लेने की अनुमति नहीं देंगे, क्योंकि उसने द्रौपदी के साथ हुए अत्याचार में दुयोंधन का साथ दिया है।
कुरु सेना में हैं अनेक वल वीर और बलिदानी
” किन्तु कर्ण ही अर्धरथी है एक नीच अभिमानी।”
कर्ण ने भी निश्चय किया कि गंगापुत्र भीष्म के युद्ध क्षेत्र में रहते हुए मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। अगले दिन भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया। निरन्तर युद्ध चलता रहा। दसवें दिन गंगापुत्र अर्जुन के बाणों से घायल हो गए और शर-शय्या ग्रहण की। भीष्म के घायल होने का समाचार पाकर कर्ण से रहा नहीं गया और वह उनसे मिलने पहुँचा।
पितामह ने प्रेमपूर्वक उसका स्वागत किया तथा दानवीर और धर्मवीर कहकर उसकी प्रशंसा की। उन्होंने इस बात पर भी खेद प्रकट किया कि तुम कौन्तेय हो, यह जानते हुए भी मैंने सूत-पुत्र कहकर तुम्हारा तिरस्कार और अपमान ही किया है। इसका मुझे बहुत दुःख है। आज बेटा कहकर तुम्हें जी भरकर निहारना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य वस केवल यही था कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो और भाई-भाई एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े न हों। आज मैं देख रहा हूँ कि महाविनाश होने वाला है। तुम दुयोंधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों से जा मिलो। इसी में सभी का कल्याण है। यह सुनकर कर्ण से रहा न गया। उसने कहा कि पितामह में जानता हूं कि पाण्डव मेरे भाई हैं, परन्तु मैं अपने प्रण से बँधा हुआ हूँ।
अतः दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता। मैं यह भी जागता हूँ कि अर्जुन के साथ गोविन्द हैं। अतः अर्जुन को हरा पाना असम्भव ही है, परन्तु मैं फिर भी अपने साहस का त्याग नहीं करूंगा और अर्जुन को मारने का अपना प्रण पूरा करने का प्रयास करूंगा। पितामह ने कर्ण के साहस की प्रशंसा करते हुए उसे उसके मार्ग पर आगे बढ़ने का आशीर्वाद दिया। भीष्म के पश्चात् द्रोणाचार्य सेनापति बने।
पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य वीरगति को प्राप्त हुए। तय सोलहवें दिन कर्ण को सेनापति बनाया गया। यह जानकर धर्मराज युधिष्ठिर को अर्जुन की चिन्ता हुई। कर्ण के नेतृत्व में कौरव सेना ने उत्साहपूर्वक युद्ध करना प्रारम्भ किया। कुन्ती को अब भी पाण्डवों की चिन्ता थी, परन्तु वचन का धनी कर्ण अपना प्रण नहीं भूला था। उसने अवसर पाकर भी युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव का वध नहीं किया। उधर भीम के पुत्र घटोत्कच ने कौरव की सेना में हाहाकार मचा रखा था। उसे रोकने के लिए कृर्ण को विवशतापूर्वक इन्द्र द्वारा दी गई अमोघ शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। अब यह निश्चित हो चुका था कि अर्जुन की विजय तय है। दिन अभी थोड़ा शेप था, सन्च्या होने वाली थी। कर्ण भूमि में फँसे हुए अपने रथ का पहिया निकाल रहा था, तभी अर्जुन ने कर्ण पर प्रहार करना चाहा, परन्तु उसे शस्त्रहीन और रथविहीन देखकर स्वयं को रोक लिया, परन्तु तब श्रीकृष्ण ने कहा-
“रथारूढ़ हो, या कि विरथ हा रिपु कब छोड़ा जाता बुद्ध-क्षेत्र में नहीं धर्म से नाता जोड़ा जाता।”
अर्थात् अधमर्मी शत्रु का वध करना ही सबसे बड़ा धर्म है. फिर चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हो? तब अर्जुन ने तीर छोड़ दिया और कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआं। कर्ण जैसे परमवीर और दानवीर की मृत्यु पर श्रीकृष्ण भी स्वयं को रोक नहीं सके।
“रथ से उत्तर जनार्दन दौडे आँखों में जल-धारा ‘कर्ण! हाय वसुसेन वार’ कह बारम्बार पुकारा।” इस प्रकार महाभारत के इस प्रमुख, परन्तु उपेक्षित पात्र का अन्त हुआ।
प्रश्न 8. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का कथासार लिखिए।
सप्तम सर्ग
उत्तर- ‘कर्ण’ खण्डकाव्य का सप्तम सर्ग ‘जलांजलि’ इस काव्य का अन्तिम भाग है। इसका कथानक निम्न है-
कर्ण के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात् दुर्योधन का साहस टूट गया। उसे जिस पर सबसे अधिक भरोसा था, वह भी पाण्डवों के हाथों परास्त हो गया। कर्ण के पश्चात् शल्य सेनापति बनाए गए, परन्तु दुयोंधन के सपने तो कर्ण की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो चुके थे। कर्ण के पश्चात् युद्ध अधिक समय तक नहीं चल पाया और अट्ठारहवें दिन कौरवों की पराजय के साथ युद्ध का अन्त हो गया। गदा-युद्ध में भीम ने दुर्योधन को हरा कर इस युद्ध की समाप्ति • की। कुन्ती ने कहा कि पुत्र ! तुम वीर कर्ण का नाम लेकर उसका भी जलदान करो। यह सुनकर युधिष्ठिर आश्चर्यचकित हो गए, परन्तु कुन्ती ने सत्य बताते ‘हुए कहा वह मेरा ही पुत्र था और तुम्हारा बड़ा भाई था।
“धर्मराज कुछ चौक बोले ‘सूत-पुत्र था कर्ण।’ कुन्ती बोली, “वत्स! कर्ण था मेरा रक्तं सवर्ण।”
यह जानकर युधिष्ठिर से रहा न गया और यह पूछ ही लिया कि आखिर यह क्या रहस्य है। तब कुन्ती ने विस्तारपूर्वक सारी बात बताई और यह भी बताया कि युद्ध पूर्व कर्ण को भी मैंने यह सत्य बताया था, परन्तु वह दुयोंधन से विलग होने के लिए तैयार न हुआ, लेकिन उसने वचन दिया था कि वह अर्जुन को छोड़कर मेरे किसी अन्य पुत्र का वध नहीं करेगा और उसने अपना वचन निभाया भी। सारी बात सुनकर युधिष्ठिर ग्लानि से भर उठे और भ्रातृ हत्या से उनका मन भर आया।
“ऐसा कीर्तिवान भाई पा, होता कौन न धन्य।
किन्तु आज इस पृथ्वी पर, हतभाग्य न मुझ-सा अन्य।।” कुन्ती ने युधिष्ठिर को समझाना चाहा कि दुःखी मत हो, कर्ण की यही नियति थी। इस पर युधिष्ठिर ने कुन्ती से कड़े स्वर में कहां कि अब व्यर्थ तर्क मत करो। तुमने माता होकर ही अपने पुत्र का अनिष्ट किया और भ्रातृ हत्या का कलंक हमारे मस्तक पर लगा दिया। अन्त में उन्होंने कर्ण को याद कर, उसके नाम से भी जलदान किया। युधिष्ठिर कर्ण वध को कभी न भुला सके।
प्रश्न 9. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य का कथानक तथा उददेश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ ने ‘कर्ण’ खण्डकाव्य में महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक कर्ण का चरित्र-चित्रण किया है। उन्होंने महाभारत की मूलकथा से कोई छेड़छाड़ नहीं की है, परन्तु इसमें कर्ण के जीवन के सभी पक्षों का समावेश न करते हुए उन्होंने केवल उन्हीं घटनाओं, प्रसंगों आदि को वर्णित किया है. जिन्होंने कर्ण के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था उसके जीवन को गति या दिशा दी। कर्ण कुन्ती का पुत्र था, परन्तु कुन्ती द्वारा पैदा होते ही उसका त्याग किए जाने के कारण उसे अपने सम्पूर्ण जीवन में उपेक्षा, घृणा, तिरस्कार, अपमान तथा विपाद ही मिला था। कर्ण महाभारत का ऐसा पात्र है जो वीर भी था और विवेकवान एवं धर्म-अधर्म का ज्ञानी भी था, परन्तु इसके बावजूद भी उसे कभी उचित सम्मान नहीं मिला। अपने अस्तित्व के प्रश्न से जूझते हुए, उसका पूरा जीवन विसंगतियों से भरा रहा। यह सत्य है कि कर्ण एक श्रेष्ठ योद्धा, दानवीर, अपने प्रण पर अटल रहने वाला, सच्चा मित्र, तेजस्वी तथा अद्भुत आत्मवल वाला था। उसके ये गुण निश्चय ही हमें प्रेरणा देते हैं। लेकिन साथ ही, उसका चरित्र पूरी तरह से अनुकरणीय नहीं है। कवि ने उसकें चरित्र के गुणों एवं दोषों को स्थान देते हुए निष्पक्ष रूप से उसका चरित्र-चित्रण किया है। कवि जहां उसके सद्गुणों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपनाने की प्रेरणा देता है, वहीं उसके अवगुणों को उजागर करते हुए उनसे बचने के लिए भी सावधान करता है। कवि ने अप्रत्यक्ष रूप से यह सन्देश दिया है कि व्यक्ति में सद्गुणों का होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उनका उचित उपयोग करना भी आवश्यक है। जो व्यक्ति सद्गुणी होते हुए भी अन्याय, अधर्म, दुराचार आदि का साथ देता है, उसका अन्त भी वही होता है जो अन्यायी का होता है। उसका अन्त सदा ही करुणाजनक एवं दुःखद होता है। यही इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य है। इस खण्डकाव्य का शीर्षक ‘कर्ण’ सर्वथा उचित एवं सार्थक है, क्योकि ‘कर्ण’ ही इस खण्डकाव्य का केन्द्रीय पात्र है और इसमें वर्णित सभी घटनाएं उसी से सम्बन्धित है। अतः ‘कर्ण’ के अतिरिक्त इस खण्डकाव्य का कोई अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 10. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख पात्र/नायक की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए।
अथवा ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ एक खण्डकाव्य है, जिसका नायक महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक कर्ण है। इस पूरे खण्डकाव्य में उभरकर आई कर्ण की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएं निम्न है-
- सुन्दर, आकर्षक एवं तेजस्वी जन्म से ही आकर्षक, सुन्दर, तेजस्वी, परन्तु तिरस्कृत कर्ण सूर्यदेव से उत्पन्न कुन्ती का पुत्र था। उसके मुख पर जन्म से ही सूर्य के समान तेज व्याप्त था। कुम्ती ने जय उसे पहली बार देखा था तो यह खुशी से फूली नहीं समाई थी।
“अकस्मात् ही मिला दान में एक अनोखा लाल माँ ने देखा बेटे को आँखें हो गईं निहाल।”
युद्ध से पूर्व जब वह कर्ण को समझाने गई थी तब भी उसके मुख पर वही तेज था।
“एक सूर्य था उगा गगन में ज्योतिर्मय छविमान और दूसरा खड़ा सामने पहले का उपमान एक सूर्य था उगा गगन में पौरुष-पुंज अनूप और दूसरा खड़ा सामने, पहले का प्रतिरूप।”
सूर्य-पुत्र होने के कारण उसका रूप-सौन्दर्य सूर्य के समान ही आकर्षक एवं
तेजस्वी था। कवि ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा है
“अधिरथ को क्या ज्ञात कि उसने कौन रत्न पाया है। वह क्या जाने तेज सूर्य का उसके घर आया है।।”
तेज का स्वामी होने के बावजूद कर्ण को जन्म से उपेक्षा सहनी पड़ती है। सर्वप्रथम जन्म देने वाली माता कुन्ती हो उसका त्याग कर देती है। फिर रंगशाला में सूत-पुत्र कहकर कृपाचार्य और पाण्डव उसका अपमान करते हैं। स्वयबर में द्रौपदी भी उसका तिरस्कार कर देती है। महाभारत के अन्य पात्र भीष्मादि भी बार-बार उसका अपमान एवं तिरस्कार करते है।
- धैर्यवान कर्ण के जीवन में ऐसे पल वार-बार आए, जब उसे अपमानित होना पड़ा और वह अपमान उसके लिए असहनीय हो गया। वह श्रीकृष्ण से कहता है
“घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, ‘यह मेरी करुण कहानी। देखो, सुनो, कृष्ण ! क्या कहता इन आँखों का पानी।”
लेकिन उसने कभी धीरज का त्यांग नहीं किया। द्रौपदी के स्वयंवर में तिरस्कृत होने पर भी वह अपने क्रोध को पी गया, कुन्ती द्वारा अपने कौन्तेय होने का पता चलने पर भी. उसने कुन्ती की इच्छा पूर्ण की। भीष्म द्वारा नीच अभिमानी कहे जाने पर भी वह उनके सम्मुख वाद-प्रतिवाद नहीं करता। इससे पता चलता है कि विपम परिस्थितियों में भी धैर्यवान बना रहता है।
- प्रण व धुन का पक्का कर्ण अपने प्रण व धुन का पक्का था। उसकी प्रतिज्ञा थी कि वह किसी दान माँगने वाले को निराश नहीं लौटाएगा। इसलिए जब इन्द्र ब्राह्मण वेश में कवच और कुण्डल माँगने आए तो कर्ण ने खुशी-खुशी उनकी इच्छा पूर्ण की, यह जानते हुए भी कि कवच-कुण्डल न होने पर
अर्जुन को मारना कठिन हो जाएगा।
“मांस’ काटते थे शरीर का पर न हृदय में तड़पन
बूंद-बूंद कर रवत टपकता पर हँसते थे लोचन।”
इसी प्रकार, कर्ण ने प्रण किया था कि वह अर्जुन का वध करेगा। अपने इस प्रण पर भी वह अन्त तक अडिग रहता है। श्रीकृष्ण, कुन्ती तथा भीष्म पितामह के यह समझाने पर कि पाण्डव तुम्हारे भाई है, वह अर्जुन वध के अपने प्रण पर अडिग रहा। अन्त में उसे यह ज्ञान हो चुका था कि श्रीकृष्ण के रहते हुए अर्जुन को मारना दुष्कर है और इसकी सम्भावना अधिक है कि अर्जुन ही उसका वध कर दे, परन्तु वह अपने प्रण से नहीं हटा।
- सच्चा मित्र कर्ण दुयोंधन का संच्चा मित्र था। दुयोंधन ने उस समय उसक सामने मित्रता का हाथ बढ़ाया था, जब सभी उसका उपहास कर रहे थे। कर्ण ने हृदय से दुर्योधन को अपना मित्र माना। यह जानते हुए कि दुर्योधन अधर्मी और अत्याचारी है तथा उसका अन्त निश्चित है एवं उसके साथ रहने पर उसका अन्त भी दुर्योधन जैसा ही होगा, उसने दुयोंधन का साथ नहीं छोड़ा। आज भी जब सच्चे मित्रों की बात आती है तो कर्ण-दुयोंधन की मित्रता की चचर्चा अवश्य होती है।
- दानवीर परन्तु अहंकारी कर्ण की दानवीरता संसार भर में अमर है। उसने कभी दान देने में संशय नहीं किया। जन्म से ही अपने शरीर के अंग समान कवच और कुण्डल को, जो उसकी अपराजेयता का कारण भी थे, उन्हें भी दान में दे देना उसे महादानवीरों की श्रेणी में स्थापित करता है, परन्तु सत्य यह है कि वह अहंकारी भी था। इसलिए उसने भरी द्यूत-सभा में दुर्योधन और दुःशासन का उत्साहवर्द्धन कर द्रौपदी का अपमान किया। यह उसके चरित्र का कभी न मिटने वाला कलंक है। द्वितीय सर्ग के अन्त में कवि ने भी कहा है
“सत्य कि तुम थे कर्मवीर बलवीर धर्मधारी भी ज्ञानी और महादानी पर महा अहंकारी भी।”
कृतज्ञ किन्तु अन्यायी का साथ देने वाला कर्ण स्वभाव से कृतज्ञ था। यही कारण है कि वह जीवनभर दुयोंधन का साथ नहीं छोड़ता है, फिर चाहे उसे अपने भाइयों के विरुद्ध ही शस्त्र क्यो न उठाने पड़े लेकिन उसकी कृतज्ञता एवं मित्रता अन्धी थी। वह दुयोंधन नामक एक स्वाथी राजा के प्रति कृतज्ञ था, जिसने उसकी शक्ति का अनुमान लगाकर उसे मित्र बनाया था। दुर्योधन जानता था कि केवल कार्ण ही अर्जुन को परास्त कर सकता है और इसी कारण उसने कर्ण की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया था। अपनी पहचान के प्रश्न से जूझने वाला कर्ण एक अन्यायी, दुराचारी और अत्याचारी के प्रति समर्पित था, जिसका उसे दुःखद परिणाम झेलना पड़ा।
- साहसी एवं परमवीर परन्तु अन्त में पराजित महाभारत के सभी पात्रों में एक कर्ण ही ऐसा पात्र है, जिसके साहस, शौर्य और वीरता की सभी प्रशंसा करते हैं। युधिष्ठिर, पितामह भीष्म, अर्जुन यहाँ तक कि स्वयं श्रीकृष्ण भी कर्ण की वीरता के प्रशंसक थे। इसलिए कवि भी कहते हैं कि
“भीष्म, द्रोण, कृपा, अश्वत्थामा सब में कर्ण अनन्य वीरो में वह महावीर प्रत्येक दृष्टि से धन्य।”
परन्तु यही अनन्य वीर अन्त में अर्जुन के हाथों मारा जाता है, क्योकि वह उस पक्ष की ओर से युद्ध कर रहा था, जिस ओर अन्याय एवं अधर्म था। अन्त में निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि कर्ण में एक नायक होने के सभी गुण विद्यमान हैं, परन्तु साथ ही उसके चरित्र में कुछ बुनियादी अन्तर्विरोध भी है। कुल मिलाकर उसका चरित्र एवं जीवन इतिहास का एक विलक्षण हिस्सा है।
प्रश्न 11. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर स्त्री पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर- ‘कर्ण’ खण्डकाव्य में केवल एक ही नारी पात्र है और वह है कर्ण को की प्रमुख विशेषताएँ निम्न है-
जन्म देने वाली कुन्ती। कुन्ती के चरित्र 1. सामाजिक बन्धनों में बँधी नारी कुन्ती ने विवाह से पूर्व ही कर्ण को जन्म
दिया था, परन्तु वह लोक-लाज, कुल-मयांदा आदि सामाजिक बन्धनों के भय से उसका त्याग कर देती है।
“किन्तु लाज कुल की हिंसा-सी जाग उठी तत्काल भय समाज का गरज उठा कैसा था स्वर विकराल अविरल आँसू की बूँदों से कर अन्तिम अभिषेक माता ने अपने ही हाथों दिया लाल वह फेंक।”
- अपनी सन्तान के प्रति चिन्तित माता कुन्ती कर्ण, अर्जुन, भीम आदि वीर पुत्रों की माना होते हुए भी नारी सुलभ गुण, ममता से युक्त है। इसलिए युद्ध से पूर्व ही वह अपने पुत्रों को लेकर चिन्तित हो उठती है। कुन्ती की सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि युद्ध में दोनों ही ओर से उसके पुत्र एक-दूसरे के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्र उठाकर खड़े होगे। एक ओर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव होगे तो दूसरी ओर उसी का परमवीर पुत्र कर्ण होगा।
- कर्ण जैसे पुत्र-रत्न को पुनः न पा सकने वाली अभिशप्त माता कुन्ती ने कर्ण के जन्म लेते ही उसका परित्याग कर दिया था। युद्ध से पूर्व वह किसी प्रकार साहस बटोरकर कर्ण के पास यह सत्य उद्घाटित करने जाती है कि वह उसी का पुत्र है। उसे आशा थी कि वह उसके पास लौट आएगा, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि कर्ण ने दुयोंधन का साथ छोड़ना स्वीकार नहीं किया।
“पर इतना ही कह पाई झूठा निकला विश्वास कहीं रहो, पर सुखी रहो जाने दो मुझे निराश।”
इस प्रकार, इस खण्डकाव्य में कुन्ती का मातृरूप कई रूपों में सामने आया है। वस्तुतः उसका चरित्र भारतीय नारी की पारिवारिक एवं सामाजिक विवशताओं को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है, जो अपने पुत्र को अपना नहीं कह सकती।
प्रश्न 12. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर- कवि केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘कर्ण’ में श्रीकृष्ण का पात्र अत्यन्त विशेष है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
- पाण्डवों के शुभचिन्तक श्रीकृष्ण आरम्भ से ही पाण्डवों के हितैपी रहे है। पाण्डवों की विजय में उनका अत्यन्त योगदान है। भले ही उन्होंने युद्ध मे अस्त्र-शस्त्र न उठाया हो, परन्तु पाण्डवों को विजयश्री उन्हीं के मार्गदर्शन में मिली।
- कूटनीतिज्ञ श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाई और पाण्डवों को भी यही समझाया। युद्ध टालने के लिए पहले दुयोंधन को समझाने का प्रयास करते हैं, फिर कर्ण को सम्राट बनाने का प्रलोभन भी देते हैं। कर्ण के नहीं मानने पर वे उसे समझाते हैं कि तुम्हारी हार निश्चित है। अन्त में वे कर्ण को असहाय अवस्था में मारने के लिए अर्जुन को तैयार भी कर लेते हैं। इस प्रकार वह एक कूटनीतिज्ञ की भाँति महाभारत की प्रत्येक घटना को प्रभावित करते है।
- सद्गुणों के प्रशंसक श्रीकृष्ण शत्रु पक्ष के वीरों की प्रशंसा करने से नहीं चूकते। कर्ण की वीरता की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं
“धर्मप्रिय, धृति-धर्म धुरी को तुम धारण करते हो। वीर धनुर्धर, धर्म भाव तुम भू-धर में भरते हो।”
- मायावी श्रीकृष्ण को सभी परम मायावी मानते हैं, क्योंकि वे परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेते हैं। यद्यपि वे युद्ध में अर्जुन के सारथी बनते हैं और अस्त्र-शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा करते हैं, परन्तु फिर भी सभी मानते हैं. कि पाण्डवों को विजय श्रीकृष्ण ही दिला सकते हैं। कर्ण भी कहता है कि कृष्ण की माया अर्जुन को घेरे रहती है और अन्ततः वही होगा जो कृष्ण चाहेंगे।