(आगरा, बस्ती, गाजीपुर, फतेहपुर, बाराबंकी एवं उन्नाव जिलों के लिए)
प्रश्न 1. ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित ‘मुक्ति दूत’ खण्डकाव्य का सारांश (कथासार/कथानक/कथावस्तु/विषयवस्तु) लिखिए।
उत्तर डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘मुक्ति दूत’ महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर लिखा गया है। पाँच सगों में विभाजित इस खण्डकाव्य का कथासार निम्नलिखित है-
प्रथम सर्ग
इस सर्ग में कवि ने महात्मा गाँधी को दिव्य अवतारी पुरुष मानकर उनके चरित्र की महानता का वर्णन किया है। कवि का मानना है कि जब-जब धरती पर पाप और अत्याचार बढ़ता है, तब-तब ईश्वर किसी महापुरुष के रूप में धरती पर अवतार लेता है। राम, कृष्ण, महावीर, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, गुरु गोविन्द सिंह आदि रूपों में ईश्वर ने अवतार लेकर न केवल भारतवर्ष, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों के कष्ट दूर किए। अतः यह निश्चित है कि जब-जब जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ किसी महापुरुष का जन्म हुआ। जिस प्रकार लिंकन द्वारा अमेरिका और नेपोलियन द्वारा फ्रांस का उद्धार हुआ था। उसी प्रकार, जब हमारा देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तथा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में भारत का शोषण हो रहा था, तब भारत के उद्धार हेतु गुजरात के काठियावाड़ में पोरबन्दर नामक स्थान पर मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म हुआ था। महात्मा गाँधी बचपन से ही संस्कारी थे। वह श्रवण कुमार और सत्य हरिश्चन्द्र के जीवन-चरित्र से बहुत प्रभावित थे। यही उनके आदर्श थे। वह कुछ समय तक अफ्रीका में रहे, फिर भारत लौट आए। भारत आकर उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया, उन्हें हरिजनों और हिन्दुस्तान दोनो से बहुत प्रेम था। वह तीस वर्षों तक देश की विभिन्न समस्याओं से जूझते रहे। उन्हीं के नेतृत्व में भारतवासियों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ी और उसमे सफलता पाई।
द्वितीय सर्ग
इस खण्डकाव्य के मूल कथानक का आरम्भ इसी सर्ग से हुआ है। इस सर्ग की मुख्य कथावस्तु ‘हरिजन’ समस्या पर केन्द्रित है, जो आगे चलकर महात्मा गांधी को स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करती है।
प्रातःकाल हो चुका था। पशु-पक्षी-मनुष्य सभी अपने-अपने दैनिक क्रियाकलाप प्रारम्भ कर चुके थे तथा गाँधीजी भी उठ जाते हैं। जागने पर उन्हें उस रात देखा हुआ सपना स्मरण आया। उस रात सपने में उन्हें अपनी माताजी दिखाई दीं। माताजी ने उनको समझाया कि ‘प्यासे को पानी दो, भूखे को खाना दो, बेसहारा को सहारा दो, समदृष्टा बनकर तन-मन-धन से दूसरों की सेवा करो।’ वह मन-ही-मन अपनी माता को याद कर अत्यन्त भावुक हो उठते हैं। वह माँ की करुणा और ममता को संसार मे अनमोल समझते हैं। उन्होंने संकल्प किया कि वह मातृभूमि की बेड़ियाँ काटकर इसकी करोड़ों सन्तानों की सेवा करेंगे, जब तक कोई भी भूखा-नंगा है, वह चैन से नहीं बैठेंगे। वह सोचते हैं कि ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में कितनी विषमता है। एक ओर भूखे, दरिद्र, दुःखी हैं तो दूसरी ओर घनी हैं, जो हर प्रकार से सम्पन्न तथा सुखी हैं। हरिजनों और दरिद्रों को ठुकराने के कारण हीं भारत गुलाम बना हुआ है। वह सोचते हैं कि गोरे-काले, लम्बे-ठिगने, सुन्दर-कुरूप आदि का भेद तो प्रकृति प्रदत्त है, जिसे दूर नहीं किया जा सकता, परन्तु जो भेदभाव हमारे द्वारा (मनुष्यों द्वारा) किए जाते हैं, उन्हें तो अवश्य ही दूर किया जा सकता है। हरिजनों और वाल्मीकियों पर होने वाले अत्याचारों की कथा सुनकर उनका दिल पसीज जाता था। महात्मा गाँधी के मन में यह भाव उठते हैं कि धर्म-ग्रन्थों में कहीं भी छुआछूत करने की सीख नहीं दी गई है। वशिष्ठ मुनि ने निषादराज को गले से लगाया था, राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे, गौतम का शिष्य सत्यकाम भी हरिजन ही था, जो बाद में एक महान् ऋषि बना था, इसलिए छुआछूत और कुछ नहीं, बस एक छलावा है। वह कहते हैं-
“यदि हरिजन के छू लेने से
मन्दिर का है कल्याण नहीं।
तो यही कहूँगा मन्दिर में
बस पत्थर है, भगवान नहीं।।”
वह सोचते हैं कि आर्य-द्रविड़ कितने उदार हृदय थे, जिन्होंने खश, शक, क्षत्रप, कुषाण, हुण, पारसी, मुसलमानों आदि को अपना लिया था, परन्तु आज उसी भारत में उनकी सन्ताने हरिजनों के साथ पशुओं से भी अधिक बुरा व्यवहार करती हैं। वास्तव में, ये दरिद्र नारायण हैं। हमें इनकी सेवा करनी चाहिए। यही सोचकर उन्होंने आश्रम में रहने के लिए हरिजनों को भी निमन्त्रित किया था, लेकिन लोगों में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई। आश्रम के प्रवन्धक मगनलाल ने गाँधीजी को बताया कि इस कारण लोगों ने आश्रम के लिए चन्दा देना बेन्द कर दिया है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आश्रम का कोष खाली हो जाएगा। उनकी बात सुनकर गाँधीजी क्रोधित होकर कहते हैं कि यदि आश्रम के लिए चन्दा नहीं मिल रहा है, तो मैं हरिजनों की बस्ती में रह, लूँगा, उनके साथ मज़दूरी कर लूँगा, परन्तु मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने का पाप नहीं कर सकता।
यदि हरिजन साफ-सफ़ाई आदि काम करना बन्द कर दें, तो सभी जगहों पर गन्दगी का साम्राज्य फैल जाएगा। मुझे अफ्रीका में ‘काला-अछूत’ कहकर गाड़ी से उतार दिया गया था। वह अपमान आज भी मुझे व्यथित कर देता है। इस अत्याचार को सहकर भी यदि मैं वैसा ही अत्याचार और घृणित अपराध करूँ, तो यह सबसे बड़ा पाप होगा। वह कहते हैं कि-
“मैं घृणा-द्वेष की यह आँधी चलने दूँगा न चलाऊँगा। या तो खुद ही मर जाऊँगा या इसको मार भगाऊँगा।।”
उन्हें विश्वास था कि देश को स्वतन्त्र कराने के बाद वह छुआछूत जैसी सामाजिक बुराई से भी लड़ लेंगे। सत्य और अहिंसा उनके अस्त्र-शस्त्र थे। वह जहाँ भी जाते थे, उनका लोग अभिनन्दन करते थे। वह देश को स्वतन्त्र कराने के लिए प्रतिबद्ध थे। रात्रि होने पर गाँधीजी सो गए। पिछली रात उन्हें अपनी माता जी स्वप्न में दिखाई दी थीं, तो आज स्वप्न में बड़े भाई तुल्य गोपालकृष्ण गोखले दिखाई दिए। उन्होंने आशा प्रकट की कि जिस प्रकार तुमने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज़ों से टक्कर ली, उसी प्रकार भारत में भी उनका सामना करोगे। तुम भारत के मुक्ति-दूत बनोगे, ऐसा मेरा विश्वास है। महात्मा गाँधी मन-ही-मन भारतमाता को स्वतन्त्र कराने का संकल्प दोहराते हैं।
तृतीय सर्ग
तृतीय सर्ग में अंग्रेज़ों की दमन नीति के विरोध में गाँधी जी का क्रोध प्रकट हुआ है । स्वप्न में अपने बड़े भाई तुल्य गोपालकृष्ण गोखले का उपदेश सुनकर गाँधीजी ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण किया। उस समय देश अंग्रेज़ों के अत्याचार से कराह रहा था। देश के सब उद्योग-धन्धे बन्द हो गए तथा लोग बेरोज़गार हो गए थे। बाज़ार में विदेशी वस्तुओं की बहुतायत थी। भारतीय अपमान भरा जीवन जीने को मज़बूर थे। छोटे-छोटे अपराधों को राजद्रोह कहकर जनता को तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती थीं। केवल वही मुट्ठीभर लोग सुखी थे, जो अंग्रेज़ों की चाटुकारिता करते थे। भारत की दीन-हीन दशा देखकर और अंग्रेज़ों के अत्याचार सुनकर गाँधीजी को बहुत दुःख होता था, किन्तु फिर भी वह नम्रता की नीति अपनाते थे, लेकिन अंग्रेज़ों पर नम्रता का कोई प्रभाव न हुआ। अतः गाँधीजी ने ‘सविनय सत्याग्रह’ को अपना हथियार बनाया। उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। इंग्लैण्ड को तब भारत की सहायता की आवश्यकता थी। गाँधीजी के कहने पर भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। गाँधीजी को आशा थी कि इस विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों की सहायता करने पर वे हमें आज़ाद कर देंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेज़ों ने युद्ध में विजय प्राप्त करके भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। अंग्रेज़ी सरकार ने (काला कानून) रौलेट एक्ट बनाकर अपना दमन चक्र चलाना आरम्भ कर दिया। यह देखकर गाँधीजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जनव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमें तेजबहादुर सप्रू, मोहम्मद अली जिन्ना, सरदार पटेल, महामना मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि बड़े-बड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब पूरा भारतवर्ष अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष में एकजुट हो चुका था।
उसी दौरान जलियाँवाला बाग की क्रूर घटना घटी। उस समय अधिकांश पंजाबी नेता जेलों में बन्द थे। पहले ही काले कानून से क्षुब्ध जनता इसे सहन न कर सकी। इलिए बैशाखी के त्योहार पर जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना था। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इस सभा में शामिल होने पहुँचे थे। सभा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद क्रूर जनरल डायर ने वहाँ पहुँचकर अन्धाधुन्ध फायरिंग का आदेश दे दिया।
दस मिनट तक लगभग साढ़े सोलह सौ गोलियाँ चलीं। जलियाँवाला बाग भारतीयों की लाशों से भर गया। इस घृणित मानव हत्याकाण्ड से सारे भारत में शोक फैल गया। इस दर्दनाक घटना से गाँधी भी दहल गए और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अब अंग्रेज़ों को भारत में अधिक समय तक नहीं रहने देंगे।
चतुर्थ सर्ग
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से आहत गाँधीजी ने अब अंग्रेज़ों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष करने की ठान ली थी, उन्होंने एक के बाद एक, कई आन्दोलन चलाए। सभी आन्दोलनों में उन्हें जनता का भरपूर सहयोग मिला। अगस्त, 1920 में उन्होंने ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ किया। जनता ने उनके पीछे चलते हुए हर स्तर पर सरकार के साथ असहयोग किया। लोगों ने गोरी सरकार से मिली पदवी, उपाधि, सम्मान आदि को लौटाते हुए सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र दे दिया।
तब साइमन कमीशन भारत आया। साइमन कमीशन भारत पर अपने मनमाने कानून थोपने आया था। अतः गाँधीजी के नेतृत्व में सारे देश में ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ का नारा गूंज उठा। लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, गफ्फार खान आदि नेताओं ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया। सरकार ने फिर विद्रोह की आग को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया, जगह-जगह लाठीचार्ज किया गया। लाला लाजपत राय पर भी लाहौर में विरोध करते हुए लाठियों पड़ीं, जिसके कारण वे घायल हो गए और उनकी कुछ हफ्तों बाद ही मृत्यु हो गई। जनता फिर भड़क उठी। सत्य और अहिंसा को हथियार बना कर गांधीजी ने फिर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला और डाण्डी में नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। खींचकर सरकार ने गाँधीजी को जेल में डाल दिया। धीरे-धीरे जेले सत्याग्रहियों से भर गई। तभी दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों को एक बार फिर भारत से सैन्य शक्ति की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी ने अंग्रेजों के सामने शर्त रखी-
“आज़ादी हमको शीघ मिले यह पहली माँग हमारी है। दिल्ली में हो शासन अपना यह माँग दूसरी प्यारी है।”
अंग्रेजों ने इस प्रस्ताव को सुनते ही अस्वीकार कर दिया। इस पर गाँधीजी ने ‘करो या मरो’ का नारा देकर ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ शुरू कर दिया। पूरे भारत में शीघ्र ही यह आन्दोलन फैल गया। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इस आन्दोलन में कूद पड़े। आन्दोलनकारियों ने सारी शासन व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। बौखलाकर सरकार ने लोगों का दमन करना आरम्भ कर दिया। गांधीजी ने जेल में इक्कीस दिनों का अनशन शुरू किया। भारत में अंग्रेजों के अत्याचार देखकर सारी दुनिया में गौरी सरकार की निन्दा होने लगी।
इसी बीच बापू की पत्नी कस्तूरबा की मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु से बापू का हृदय टूट गया।
“धू-धू करके जब चिता जली
बूढ़े बापू का युवा प्रणय।
तिल भर भी संयत रह न सका
ये उठा अकिंचन, विदा-सदय।।”
पत्नी की मृत्यु से आहत होकर बापू ने पुनः अंग्रेजो के विरुद्ध अपने मानसिक बल और प्रण को दृढ़ किया।
पंचम सर्ग
खण्डकाव्य के इस अन्तिम सर्ग में उन परिस्थितियों का वर्णन है, जिनके कारण भारत को आजादी मिली।
भारत में प्रतिकूल माहौल को बनते देख गौरी सरकार ने गाँधीजी को जेल से रिहा कर दिया। गांधीजी को लगातार अस्वस्थ देखकर सरकार ने विवश होकर यह कदम उठाया। इसी बीच मई, 1945 में जर्मनी की द्वितीय विश्वयुद्ध में हार हुई और वैश्विक राजनीति में परिवर्तन हुआ। ब्रिटेन में चुनाव हुए और वहाँ मजदूर दल की सरकार बनी। अब अंग्रेज भी समझ चुके थे कि वे अब अधिक समय तक भारत को गुलाम बनाकर नहीं रख सकते। इसलिए एटली के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने यह घोषणा की कि जून, 1947 के पूर्व ही ब्रिटेन भारत को स्वतन्त्र कर देगा। यह घोषणा सुनकर भारतवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु साच ही अंग्रेज़ों की चाल और मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनाने की मांग भी सामने आई।
गांधीजी ने जिन्ना को मनाने का काफी प्रयास किया, परन्तु जिन्ना पाकिस्तान बनाने की माँग पर अड़े रहे। इसी बीच नोआखाली में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए। बापू ने स्वयं वहाँ की यात्रा कर दंगे शान्त किए, परन्तु यह जान गए थे कि स्वतन्त्रता के साथ-साथ हमें विभाजन भी स्वीकार करना पड़ेगा।
अन्ततः 15 अगस्त, 1947 को भारत अंग्रेजों को गुलामी से आजाद हुआ और जनतन्त्र की स्थापना हुई। इस प्रकार, महात्मा गांधी को जहाँ एक ओर भारत के आजाद होने की खुशी हुई, तो दूसरी ओर देश के विभाजन का दुःख भी हुआ। नेहरू जी के हाथों में देश की बागडोर सौंपकर महात्मा गाँधी ने सन्तोष की साँस ली। खण्डकाव्य के अन्त में बापू को साबरमती के आश्रम में इतिहास को याद करते हुए दिखाया गया है। वह भारत के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं-
“रहो खुश मेरे हिन्दुस्तान।
तुम्हारा पथ हो मंगलमूल। सदा महके बन चन्दन चारु
तुम्हारी अंगनाई की धूल।।”
प्रश्न 2. ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के प्रतिपाद्य विषय (उद्देश्य) को समझाइए।
उत्तर– कवि राजेन्द्र लिखे गए ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य में महात्मा गाँधी नायक की भूमिका में हैं। कोच ने स्वतन्त्रता संग्राम के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्तित्व एवं भारत को गुलामी से मुक्त कराने में उनके योगदान का वर्णन किया है। महात्मा गाँधी के असाधारण व्यक्तित्व एवं योगदान को कवि ने इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय बनाया है तथा उनके चरित्र का वर्णन कर युवाओं को प्रेरित करना इस काव्य का उद्देश्य है। यह खण्डकाव्य गांधीजी के जीवन का एक शब्द चित्र है। इसमें उन घटनाओं का समावेश किया गया है, जो उनके ‘मन’ को एवं उसके अनुसार किए गए ‘कर्म’ को उजागर करती हैं। इसके लिए कवि ने हरिजन समस्या, भारत की दासता, तत्कालीन घटनाक्रम तथा दार्शनिक तथ्यों की व्याख्या का सहारा लिया है। गाँधीजी न केवल भारतवर्ष के वरन दलित वर्ग के लिए भी मुक्ति-दूत बनकर उभरते हैं। इस खण्डकाव्य से हमें गाँधीजी के चरित्र का अनुसरण करने की प्रेरणा मिलती है। करुणा, दया, त्याग, समदृष्टा, दृढ़ निश्चयी, देशभक्ति आदि गुणों को अपनाकर हम गाँधीजी के समान ही अपने चरित्र को उज्ज्वल बना सकते हैं।
प्रश्न 3. ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के आधार पर गाँधीजी के जीवन में घटित प्रमुख घटना को संक्षेप में लिखिए।
अथना ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा (कथानक /कथावस्तु) संक्षेप में लिखिए।
तृतीय सर्ग
उत्तर- तृतीय सर्ग में अंग्रेजों की दमन नीति के विरोध में गाँधीजी का क्रोध प्रकट हुआ है। गोपालकृष्ण गोखले का उपदेश सुनकर गाँधीजी ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण किया। उस समय देश अंग्रेजों के अत्याचार से कराह रहा था।
देश के सभी उद्योग-धन्धे चौपट हो गए थे। लोग बेरोजगार हो गए थे। बाजार में विदेशी वस्तुओं की बाहुतायत थी। भारतीय अपमान भरा जीवन जीने को मजबूर थे। अंग्रेजों द्वारा छोटे-छोटे अपराधों को राजद्रोह कहकर जनता को तरह-तरह की यातनाएं दी जाती थीं। केवल वही मुट्ठीभर लोग सुखी थे, जो अंग्रेजों की चाटुकारिता करते थे।
भारत की दीन-हीन दशा देखकर और अंग्रेजों के अत्याचार सुनकर गांधीजी को बहुत दुःख होता था, किन्तु फिर भी वह नम्रता की नीति अपनाते थे, लेकिन अंग्रेजों पर नम्रता का कोई प्रभाव न हुआ। अतः गाँधीजी ने ‘सविनय सत्याग्रह’ को अपना हथियार बनाया।
उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। इंग्लैण्ड को तब भारत की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी के कहने पर भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। गाँधीजी को आशा थी कि इस विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने पर वे हमें आजाद कर देंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजों ने पुद्ध में विजय प्राप्त करके भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। अंग्रेजी सरकार ने (काला कानून) रौलेट एक्ट बनाकर अपना दमन चक्र चलाना आरम्भ कर दिया।
यह देखकर गांधीजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जनव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमे तेजबहादुर सप्रू, मोहम्मद अली जिन्ना, सरदार पटेल, महामना मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि बड़े-बड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब पूरा भारतवर्ष अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष में एकजुट हो चुका था। उसी दौरान जलियाँवाला बाग की क्रूर घटना घटी। उस समय अधिकांश पंजाबी नेता जेलों में बन्द थे। पहले ही काले कानून से क्षुब्ध जनता इसे सहन न कर सकी। इसलिए बैसाखी के त्योहार पर जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना था। बच्चे बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इस सभा में शामिल होने पहुंचे थे। सभा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद क्रूर जनरल डायर “वहाँ आ धमका और अन्धाधुन्ध फायरिंग का आदेश दे दिया। लगभग दस मिनट तक साढ़े सोलह सौ गोलियाँ चलीं। जलियाँवाला बाग भारतीयों की लाशों से भर गया। इस घृणित मानव हत्याकाण्ड से सारे भारत में शोक फैल गया। इस दर्दनाक घटना से गाँधीजी भी दहल गए और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अब अंग्रेजों को भारत में अधिक समय तक नहीं रहने देंगे।
प्रश्न 4. ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
चतुर्थ सर्ग
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से आहत गाँधीजी ने अब अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष करने की ठान ली थी, उन्होंने एक के बाद एक, कई आन्दोलन चलाए। सभी आन्दोलनों में उन्हें जनता का भरपूर सहयोग मिला। अगस्त, 1920 में उन्होंने ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ किया। जनता ने अंग्रेजी पीछे चलते हुए हर स्तर पर सरकार के साथ असहयोग किया। लोगों ने गोरी सरकार से मिली पदवी, उपाधि, सम्मान आदि को लौटाते हुए सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र दे दिया। तब साइमन कमीशन भारत आया। जो भारत पर अपने मनमाने कानून थोपने आया था। अतः गाँधीजी के नेतृत्व में सारे देश में ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ का नारा गूंज उठा। लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, गफ्फार खान आदि नेताओं ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया। सरकार ने फिर विद्रोह की आग को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया, जगह-जगह लाठीचार्ज किया गया। लाला लाजपत राय पर भी लाहौर में विरोध करते हुए लाठियाँ पड़ीं। बाद में घायल राय की मृत्यु हो गई। जनता फिर भड़क उठी। सत्य और अहिंसा को हथियार बना कर गाँधीजी ने फिर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला और दाण्डी में नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। खीझकर सरकार ने गाँधीजी को जेल में डाल दिया। धीरे-धीरे जेले सत्याग्रहियों से भर गईं। तभी दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों को एक बार फिर भारत से सैन्य शक्ति की सहायता की आवश्यकता थी। गाँधीजी ने अंग्रेजों के सामने शर्त रखी
“आजादी हमको शीघ्र मिले यह पहली माँग हमारी है। दिल्ली में हो शासन अपना यह माँग दूसरी प्यारी है।”
अंग्रेज़ों ने इस प्रस्ताव को सुनते ही अस्वीकार कर दिया। इस पर गाँधीजी ने ‘करो या मरो’ का नारा देकर ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ शुरू कर दिया। पूरे भारत में शीघ्र ही यह आन्दोलन फैल गया। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इस आन्दोलन में कूद पड़े। आन्दोलनकारियों ने सारी शासन व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। क्रोधित होकर सरकार ने लोगों का दमन करना आरम्भ कर दिया। गाँधीजी ने जेल में 21 दिनों का अनशन शुरू किया। भारत में अंग्रेजों के अत्याचार देखकर सारी दुनिया में अंग्रेजी शासन की निन्दा होने लगी। इसी बीच बापू की पत्नी कस्तूरबा की मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु से बापू का हृदय टूट गया।
धू-धू करके जब चिता जली
बूढ़े बापू का युवा प्रणय।
तिल भर भी संयत रह न सका
रो उठा अकिंचन, विदा-सदय।।”
पत्नी की मृत्यु से आहत होकर बापू ने पुनः अंग्रेजों के विरुद्ध अपने मानसिक बल और प्रण को दृढ़ किया।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 5. ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के नायक का (गाँधीजी)चरित्रांकन/चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित ‘मुक्ति दूत’ खण्डकाव्य के नायक भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी है। इस खण्डकाव्य के आधार पर उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है
- अवतारी पुरुष खण्डकाव्य के आरम्भ में ही कवि ने स्पष्ट किया है कि महात्मा गाँधी राम, कृष्ण, ईसा, मोहम्मद पैगम्बर, वुद्ध, महावीर आदि की तरह अवतारी पुरुष हैं, जिनका जन्म भारत एवं शेष विश्व के उत्थान हेतु हुआ है। कवि का मानना है कि महात्मा गाँधी जैसे अलौकिक एवं असाधारण पुरुषों का कोई धर्म अथवा जाति नहीं होती। जहाँ उनकी आवश्यकता होती है, उनका जन्म वहीं होता है।
- मानवीय गुणों के भण्डार महात्मा गाँधी का चरित्र मानवीय गुणों का भण्डार था। वह सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वह सदा सत्य के पथ पर चलते थे। अहिसा उनके लिए सर्वोपरि थी। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अहिंसा को ही अपना सबसे बड़ा शस्त्र बनाया। वे दुश्मन पर भी दया करते थे। करुणा, परोपकार, दया, विनम्रता आदि गुण स्वाभाविक रूप से उनके चरित्र के हिस्से थे।
- हरिजनों के उद्धारक गाँधीजी सभी मनुष्यों को समान भाव से देखते थे। वे जाति-पाँति अथवा धर्म के आधार पर भेदभाव करने में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने आजीवन दलित वर्ग के लिए काम किया, उन्होंने उनको दरिद्रनारायण कहकर गले लगाया। उनके आश्रम में हरिजनों के आने या रहने पर किसी प्रकार की पाबन्दी नहीं थी। वह छुआछूत को बहुत घृणित मानसिक वृत्ति मानते थे। समय-समय पर वह हरिजनों की बस्ती में भी रहते थे।
- मातृ भक्त गाँधीजी के जीवन एवं चरित्र पर उनकी माता की गहरी छाप थी। वह स्वप्न में अपनी माता को देखकर भाव-विभोर हो उठे थे तथा स्वप्न में दिए गए माँ के आदेश को वास्तविक मानकर उसका पालन करते हैं तथा परोपकार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं।
- राष्ट्रभक्त एवं भारत के मुक्ति-दूत गाँधीजी में देशभक्ति की भावना अत्यन्त प्रवल थी तथा उनका पूरा जीवन देश की सेवा करने में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने देश को स्वतन्त्र कराने में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। राष्ट्रभक्ति की भावना से भरकर उन्होंने देश को आज़ादी दिलाने के लिए एक के बाद एक अनेक आन्दोलन चलाए। उनके प्रयासों से अन्ततः देश को 15 अगस्त, 1947 को आज़ादी मिली।
- अपने निश्चय पर अटल गाँधीजी अपने वादों और इरादों के पक्के थे। उन्होंने जो भी प्रण किया, उसे पूरा करके ही दम लिया। स्वतन्त्रता-संग्राम में उन्हें अनेक कष्ट झेलने पड़े, कई बार जेल जाना पड़ा, पत्नी का वियोग सहना पड़ा, परन्तु उनका मनोबल कभी क्षीण नहीं हुआ। उनके अटल और निर्भीक स्वभाव की एक झलक देखिए-
“मैं घृणा द्वेष की यह आँधी, चलने दूँगा न चलाऊँगा। या तो खुद ही मर जाऊँगा, या इनको मार भगाऊँगा।।”
जन-जन में लोकप्रिय गाँधीजी कद-काठी में अत्यन्त साधारण थे, परन्तु फिर भी वह सभी वर्गों और राज्यों में लोकप्रिय थे। उनके एक आह्वान पर देश के सभी नागरिक एकजुट हो जाते थे। बापू की कही बात सब पर जादू-सा असर करती थी। उस समय के राजनेता भी गाँधीजी का ही अनुसरण करते थे। इस प्रकार गाँधीजी न केवल गुलामी से आज़ाद कराने वाले मुक्ति-दूत थे, बल्कि दवे-पिछड़े, शोषित एवं पीड़ितों के लिए भी मुक्ति-दूत थे। वे न केवल इस खण्डकाव्य के, अपितु पूरे भारत के नायक हैं।