वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-1▼
प्रश्न 1. 10 रुपये के नोट को देखिए। इसके ऊपर क्या लिखा है? क्या आप इस कथन की व्याख्या कर सकते हैं?
उत्तर: 10 रुपये के नोट पर लिखा होता है- भारतीय रिजर्व बैंक केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रत्याभूत : मैं धारक को 10 रुपये देने का वचन देता हूँ। इस पर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर होते हैं।
इस कथन का अर्थ यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक को, जो देश का केन्द्रीय बैंक है, केन्द्र सरकार की ओर से नोट निर्गमन का अधिकार प्राप्त है। वह इस नोट के धारक को प्रत्येक परिस्थिति में 10 रुपये देने का वादा करता है। इससे लोगों में मुद्रा के प्रति विश्वसनीयता उत्पन्न होती है। इसी आधार पर मुद्रा में सर्वग्राह्यता का गुण पाया जाता है। यह मुद्रा के अवमूल्यन के विरुद्ध सुरक्षा है।
प्रश्न 2. ऋण के औपचारिक और अनौपचारिक स्रोतों में क्या अन्तर है? हमें भारत में ऋण के औपचारिक स्त्रोतों को बढ़ाने की आवश्यकता क्यों है?
अथवा भारत में औपचारिक क्षेत्रक ऋण के दो प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं? हमें ऋण औपचारिक स्रोतों को बढ़ाने की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर : औपचारिक ऋण के अन्तर्गत बैंको और सहकारी समितियों से लिए गए ऋण आते हैं। औपचारिक ऋणों के स्रोतों पर भारतीय रिजर्व बैंक नजर रखता है।
अनौपचारिक क्षेत्रक में साहूकार, व्यापारी, मालिक, रिश्तेदार, मित्र आदि आते हैं। इन ऋणदाताओं की गतिविधियों की देख-रेख करने वाली कोई संस्था नहीं है। वे मनमानी ब्याज दरों पर ऋण दे सकते हैं। ये अपना ऋण वसूलने के लिए प्रत्येक अनुचित साधन अपना सकते हैं। इन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। इन कारणों को देखते हुए भारत में ऋण के औपचारिक स्रोतों को बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके माध्यम से लोगों की आय बढ़ सकती है और अनेक लोग अपनी आवश्यकताओं के लिए सस्ता कर्जा ले सकते हैं। सस्ता और सामर्थ्य अनुसार कर्जा देश के विकास के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 3. क्या कारण है कि बैंक कुछ कर्जदारों को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं होते?
उत्तर : बैंकों का मुख्य कार्य जमाओं पर रुपया प्राप्त करना और उसके आधार पर ऋण देना है। ऋण देने से पूर्व बैंक कागजी कार्यवाही पूरी करते हैं। बैंक से ऋण लेने के लिए ऋणाधार और कुछ समर्थ व्यक्तियों की गारण्टी भी आवश्यक होती है। ऋण देने से पूर्व बैंक यह भी सुनिश्चित करते हैं कि ऋण की निर्धारित किस्तें व व्याज ठीक समय पर बैंक को मिलता रहे। बैंक ऐसे कर्जदारों को ऋण देने के लिए तैयार नहीं होते, जहाँ उन्हें मूलधन डूबने की आशंका हो।
वर्णनात्मक प्रश्नोत्तर-2
प्रश्न 1. वस्तु-विनिमय से आप क्या समझते हैं? वस्तु-विनिमय की मुख्य कठिनाइयाँ बताइए।
उत्तर : वस्तु-विनिमय का अर्थ – एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही ‘वस्तु-विनिमय’ कहते है। प्रो० जेवन्स के शब्दों में, “अपेक्षाकृत कम आवश्यक वस्तु से अधिक आवश्यक वस्तुओं का आदान-प्रदान ही वस्तु-विनिमय है।”
वस्तु-विनिमय की कठिनाइयाँ
वस्तु-विनिमय की प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नलिखित हैं-
- दोहरे संयोग का अभाव – वस्तु-विनिमय प्रणाली में मनुष्य ऐसे व्यक्तियों को खोजता है, जो उसकी अतिरिक्त वस्तु लेकर उसे इच्छित वस्तु दे दे। उदाहरण के लिए माना नकुल के पास एक किताब है। वह उसके बदले में दो पैन लेना चाहता है तो उसे ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना होगा जो किताब लेकर दो पैन देना चाहता हो। यह एक कठिन कार्य है। इसमें उसका समय तथा शक्ति व्यर्थ नष्ट होंगे। यह भी हो सकता है कि उसे ऐसा व्यक्ति ही न मिले। एक विकसित अर्थव्यवस्था में, जिसमें एक दिन में लाखों व्यक्ति वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय करते हो, ऐसे संयोगों का मिलना लगभग असम्भव-सा ही है।
- मूल्य मापन का अभाव – वस्तु-विनिमय प्रणाली में विनिमय की दर निश्चित करना बहुत कठिन था। इसका कारणं वस्तुओं की संख्या का निरन्तर बढ़ते जाना था। उदाहरण के लिए गाय के बदले में कितना कपड़ा, कितना गेहूँ, कितनी भूमि देनी चाहिए, यह निश्चित करना या याद रखना अत्यन्त कठिन कार्य था।
- वस्तु विभाजन में कठिनाई- बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता। विभाजन से उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। वस्तु-विनिमय में यह एक मुख्य असुविधा थी। जैसे- विवेक गाय के बदले में कपड़ा, अनाज तथा जूते प्राप्त करना चाहता है। विवेक को ऐसा व्यक्ति मिलना – कठिन है, जो गाय लेकर तीनों चीजें देने को तैयार हो। लेकिन वह अलग-अलग व्यक्तियों से भी अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त नहीं कर सकता क्योकि गाय विभाजित नहीं की जा सकती।
- मूल्य संचय का अभाव – अधिकांश वस्तुएँ शीघ्र नष्ट हो जाती हैं। वस्तु-विनिमय में ऐसी वस्तुओं का संचय करके अधिक दिन तक नहीं रखा जा सकता। इसके मुख्य कारण हैं- (i) कुछ वस्तुएँ नाशवान् होती हैं, (ii) कुछ वस्तुएँ अधिक स्थान घेरती हैं, (iii) वस्तुओं के मूल्य में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है तथा (iv) वस्तुओं में तरलता का अभाव पाया जाता है।
- स्थान परिवर्तन की कठिनाई – प्राचीनकाल में परिवहन के साधनों के अभाव के कारण वस्तुओं के स्थानान्तरण में बहुत अधिक कठिनाई होती थी। यदि व्यक्ति एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना चाहता था तो उसके लिए अपनी सम्पत्ति को साथ ले जाना सम्भव नहीं था।
- भावी भुगतान की असुविधा– आज अनेक वस्तुओं का क्रय-विक्रय हम भविष्य में भुगतान करने के आधार पर करते हैं, परन्तु वस्तु-विनिमय प्रणाली मे यह सम्भव नहीं था। उसमें तो एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु उसी समय देनी – पड़ती थी। अतः विनिमय होने की दशा में उधार लेन-देन का प्रचलन नहीं था।
उपर्युक्त कठिनाइयों के कारण ही वस्तु विनिमय की उपयोगिता अब नहीं रह गई है।
प्रश्न 2. गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार क्या हैं? अपने शब्दों में व्याख्या कीजिए।
अथवा ‘स्वयं सहायता समूह’ से आप क्या समझते हैं? भारत में कार्यरत ऐसे समूह गरीबों की किस प्रकार सहायता करते हैं?
उत्तर : ‘स्वयं सहायता समूह’ के अन्तर्गत लोगों ने गरीबों को उधार देने के कुछ नये तरीके अपनाए हैं। इनमें छोटे-छोटे समूह बनाए जाते हैं जिन्हें स्वयं सहायता समूह कहा जाता है। गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार यह है कि गरीब लोग बचत करें, बचत को एकत्रित करें और आवश्यकता पड़ने पर उसमें से ऋण लें। इसके अन्तर्गत 15 से 20 लोग एक समूह बना लेते हैं। वे नियमित रूप से मिलते हैं और अपनी बचतों को संगृहीत करते हैं। यह बचत राशि धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। यह समूह अपने सदस्यों को ऋण देकर उनकी जरूरतों को पूरा करता है। इस ऋण की सहायता से लोग अपना छोटा-मोटा रोजगार प्रारम्भ कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। ये ऋण ऋणाधार के बिना मिलते हैं। इस प्रकार लोगों को स्वावलम्बी बनने में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त ये सामान्य समस्याओं पर भी विचार-विमर्श करते हैं।
प्रश्न 3. बैंक से आप क्या समझते हैं? आधुनिक युग में बैंक क्या कार्य सम्पन्न करते हैं?
उत्तर : बैंक हमारे आधुनिक आर्थिक जीवन की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है। सामान्यतः बैंक को रुपया जमा करने व ऋण देने वाली संस्था के नाम से जाना जाता है परन्तु आधुनिक समय में बैंक के कार्यों का अत्यधिक विस्तार हो गया है। इसलिए बैंक की परिभाषाएँ भी विस्तृत हो गई हैं। बैंक को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
बैंक वह व्यक्ति अथवा संस्था है जो मुद्रा और साख में व्यवसाय करती है, जहाँ जमा धन का संरक्षण और निर्गमन होता है तथा ऋण एवं कटौती की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने की व्यवस्था की जाती है।
बैंक के कार्य
एक आधुनिक बैंक निम्नलिखित कार्य सम्पन्न करता है-
- जमा पर रुपया प्राप्त करना – व्यापारिक बैंक का मुख्य कार्य जनता की बचत को एकत्रित करना तथा उसे उन लोगों के लिए उपलब्ध कराना है, जो उसका उचित उपयोग करना चाहते हैं। बैंक में रकम जमा करने के लिए प्रायः पाँच प्रकार के खाते खोले जाते हैं- (i) चालू खाता, (ii) सावधि जमा, खाता, (iii) बचत खाता, (iv) गृह बचत खाता, (v) आवर्ती जमा खाता।
- ऋण देना – व्यापारिक बैंक का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य अपने ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऋण देना है। ये प्रायः उत्पादक कार्यों के लिए ही ऋण देते हैं। बैंक सामान्यतः पाँच प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं- (i) ऋण तथा अग्रिम धन, (ii) नकद साख, (iii) अधिविकर्ष, (iv) बिलों का भुनाना, (v) धनराशि का सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश।
- विनिमय का सस्ता माध्यम – बैंक समाज को सस्ते तथा सुविधाजनक विनिमय का माध्यम प्रदान करते हैं। इसके प्रमुख उदाहरण चैक तथा नोट हैं। 4. मुद्रा का स्थानान्तरण – अपनी विभिन्न शाखाओं के माध्यम से बैंक मुद्रा को देश के एक भाग से दूसरे भाग को भेजने की सुविधाएँ देते हैं। बैंक यह कार्य ड्राफ्ट या एकाउण्ट ट्रांसफर द्वारा करते हैं।
- अभिकर्त्ता सम्बन्धी कार्य –
(1) ग्राहकों द्वारा भेजे गए चैक, विनिमय विपत्र आदि साख पत्रों का भुगतान करना।
(ii) अपने ग्राहकों द्वारा लिखे गए चैको का भुगतान करना तथा ग्राहकों के बिल स्वीकार करना।
(iii) ग्राहकों के बीमे की प्रीमियम, कर, साख, व्याज, किराया, ऋण की किस्त आदि का भुगतान करना।
(iv) अपने ग्राहकों की ओर से लाभांश, ब्याज, किराया, ऋण की किस्त आदि का भुगतान करना।
(v) अपने ग्राहकों के लिए सरकारी प्रतिभूतियाँ, कम्पनियों के शेयर्स तथा ऋण आदि के क्रय-विक्रय का कार्य करना।
(vi) अपने ग्राहकों की सम्पत्ति के प्रवन्धक, ट्रस्टी अथवा व्यवस्थापक का कार्य करना।
(vii) अपने ग्राहकों के लिए पासपोर्ट तथा यात्रा सम्बन्धी विदेशी विनिमय एवं अन्य सुविधाओं के लिए पत्र-व्यवहार करना।
- विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास के लिए कुछ व्यापारिक बैंक विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करते हैं। यह कार्य उन्हें केन्द्रीय बैंक द्वारा सौंपा जाता है।
- आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार का अर्थ- प्रबन्धन बैंक विनिमय विपत्रों की कटौती करके आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार का अर्थ-प्रबन्धन करते हैं। कभी-कभी बैंक हुण्डियो तथा बिलों की जमानत पर अल्पकालीन ऋण भी देते हैं।
- आँकड़ों को एकत्रित करना – बड़े-बड़े बैंक व्यापार तथा उद्योगों के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त करते हैं, आँकड़े एकत्रित करते हैं तथा उन्हें प्रकाशित करते हैं।
- साख निर्माण कार्य – अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से आधुनिक बैंक अपनी पूँजी तथा जमाराशि की कुल मात्रा से अधिक ऋण देते हैं। इस प्रकार के बैंक साख का निर्माण करते हैं।
प्रश्न 4. ऋण के अनौपचारिक एवं औपचारिक स्त्रोतों को समझाइए। अथवा भारत में ग्रामीण परिवारों की साख के चार प्रमुख स्त्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : भारत एक ग्रामप्रधान देश है। बिना पर्याप्त वित्तीय सुविधाओं के ग्रामीण विकास सम्भव नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में वित्त के प्रमुख स्त्रोत निम्नलिखित हैं-一
1.अनौपचारिक क्षेत्रक
- ग्रामीण साहूकार व महाजन – ग्रामीण क्षेत्रों में साहूकार व महाजन ऋण के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी पैसा उधार देते हैं। इनका उद्देश्य लाभ कमाना होता है। अतः ऋणों पर इनकी व्याज दर भी ऊँची होती है। ये वास्तव में वास्तविक राशि से अधिक वसूल करते हैं, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर ये ही ऋण पाने के एकमात्र स्रोत है।
- देशी बैंकर – देशी बैंकर वह व्यक्ति अथवा संस्था है, जो ग्राहकों को ऋण देने के अतिरिक्त निक्षेप स्वीकार करने तथा हुण्डियों के लेन-देन का कार्य भी करती है। ये प्रायः निक्षेपों पर आधुनिक बैंकों से अधिक ब्याज देते हैं और ऋणों की ऊँची ब्याज दर लेते हैं।
- अन्य स्त्रोत –ग्रामीण लोग अपने मित्रों, सगे-सम्बन्धियों व ग्रामीण व्यापारियों से भी ऋण लेते हैं।
II. औपचारिक क्षेत्रक
- व्यापारिक बैंक – ये बैंक अल्पकालीन ऋण प्रदान करते हैं। प्रारम्भ में इन बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति उदासीनता दिखाई थी। ये प्रायः व्यापारियों को ही ऋण देते थे, उत्पादकों को नहीं। किन्तु राष्ट्रीयकरण के बाद इन बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त सहायता देनी आरम्भ कर दी है।
- सहकारी समिति – सहकारी समितियों का प्रमुख उद्देश्य किसानों को साख प्रदान करना रहा है। भारत में सहकारी साख व्यवस्था स्तूपाकार है जिसके अनुसार ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक साख समितियाँ, जिला स्तर पर केन्द्रीय सहकारी समितियाँ तथा राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंक कार्यरत हैं। इन समितियों का उद्देश्य कृषि के विकास के लिए कम व्याज की दर पर पर्याप्त साख सुविधाएँ प्रदान करना है।
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
- नाबार्ड– 12 जुलाई, 1982 से कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की गई है। कृषि एवं ग्रामीण साख के क्षेत्र में यह एक शीर्ष बैंक है।
प्रश्न 5. भारतीय रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की गतिविधियों पर किस तरह नजर रखता है? यह जरूरी क्यों है?
उत्तर : भारतीय रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की गतिविधियों पर नजर रखता है। इससे बैंकों की गतिविधियाँ नियमित एवं नियन्त्रित हो जाती हैं और वे मनमानी नहीं कर सकते। यह मुख्यतः निम्नलिखित बातों पर नजर रखता है-
(1) बैंक अपनी जमाओं का एक न्यूनतम निर्धारित हिस्सा अपने आप रख रहे हैं।
(2) बैंक निर्धारित नीति के अन्तर्गत ही ऋण दे रहे हैं।
(3) ऋणों पर ब्याज दर केन्द्रीय बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज दर से अधिक नहीं है।
(4) बैंक केवल लाभ अर्जित करने वाले व्यवसायियों और व्यापारियों को ही ऋण उपलब्ध नहीं करा रहे, अपितु छोटे किसानों, छोटे उद्योगों, छोटे कर्जदारों को भी ऋण दे रहे हैं।
जमाराशि, ऋणराशि, ऋण-भागी व ब्याज दर के सम्बन्ध में बैंक को भारतीय रिजर्व बैंक को समय-समय पर सूचना देनी होती है।
प्रश्न 6. मुद्रा क्या है? विनिमय के माध्यम के रूप में इसका उपयोग कैसे किया जाता है?
उत्तर : मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जो व्यापक क्षेत्र में विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक, स्थगित भुगतानों के मान एवं मूल्य के संचय के साधन के रूप में सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है एवं जिसे राजकीय संरक्षण अथवा मान्यता प्राप्त होती है।
विनिमय का माध्यम – मुद्रा ने विनिमय के कार्य को सरल एवं सुविधापूर्ण बना दिया है। वर्तमान में सभी वस्तुएँ तथा सेवाएँ मुद्रा के माध्यम से ही खरीदी तथा बेची जाती हैं। विनिमय के माध्यम का कार्य मुद्रा आर्थिक विकास की प्रत्येक दशा में करती है। प्रो० बेन्हम के शब्दों में, “एक व्यक्ति मुद्रा को इसलिए स्वीकार नहीं करता है क्योंकि मुद्रा स्वयं में मूल्यवान होती है, बल्कि इसलिए स्वीकार करता है क्योंकि वह जानता है कि दूसरे लोग भी मुद्रा को स्वीकार कर लेंगे और उसे मुद्रा के बदले में वस्तुएँ एवं सेवाएँ मिल जाएँगी, जिनकी उसे आवश्यकता है।” मुद्रा के इस कार्य में वस्तु-विनिमय की ‘दोहरे संयोग की असुविधा’ का समाधान हो गया है। आज मुद्रा सर्वग्राह्य वस्तु है।
प्रश्न 7. मुद्रा आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या को किस तरह सुलझाती है?
उत्तर : मुद्रा आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या का सरलता से समाधान कर देती है। इसका कारण यह है कि मुद्रा में सर्वग्राह्यता का गुण पाया जाता है और इसलिए मुद्रा विनिमय के माध्यम का कार्य करती है तथा वस्तुओं व सेवाओं के बदले सभी के द्वारा स्वीकार की जाती है।
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि ‘दोहरे संयोग की समस्या’ क्या है। माना एक गेहूँ विक्रेता गेहूँ के बदले मछली लेना चाहता है। सबसे पहले गेहूँ विक्रेता को ऐसे मछली पालक को ढूँढ़ना होगा जो न केवल मछली बेचना चाहता हो बल्कि उसके बदले में गेहूँ भी खरीदना चाहता हो अर्थात् दोनो पक्ष एक-दूसरे से चीजें खरीदने और बेचने में सहमति रखते हो। इसे ही दोहरा संयोग कहा जाता है अर्थात् एक व्यक्ति जो वस्तु बेचने की इच्छा रखता है, वही वस्तु दूसरा व्यक्ति खरीदने की भी इच्छा रखता हो। वस्तु-विनिमय प्रणाली में जहाँ मुद्रा का उपयोग किए बिना वस्तुओं का विनिमय होता है, ‘आवश्यकताओं का दोहरा संयोग’ होना अनिवार्य विशिष्टता है, किन्तु साथ ही ‘दोहरे संयोग का मिलना’ एक महत्त्वपूर्ण कठिनाई भी।
मुद्रा द्वारा इस कठिनाई का निराकरण हो गया है। मुद्रा महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती भूमिका अदा करके ‘आवश्यकताओं के दोहरे संयोग’ की आवश्यकता को खत्म कर देती है। अतः अब गेहूँ विक्रेता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह ऐसे मछलीपालक को ढूँढ़े जो न केवल उसका गेहूँ खरीदे अपितु साथ-साथ वह उसको मछली भी बेचे। वह किसी भी क्रेता को मुद्रा के बदले गेहूँ बेच सकता है और प्राप्त मुद्रा से किसी भी मछलीपालक से मछली खरीद सकता है।