पद्यांश 1
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू,
तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना,
पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी ।।
वा छबि को रसखानि बिलोकत,
वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सो लै गयौ माखन-रोटी।।
शब्दार्थ– धूरि-धूल, सोभित-सुन्दर लगना, सुशोभित होना; स्यामजू श्रीकृष्ण; खेलत-खेलते हुए, पग-पैर, पैंजनि-पायल; पीरी-पीली; कछोटी-कच्छा; बिलोकत-देखते हैं; वारत-न्योछावर; काम-कामदेव; कला-कलाओ, निज-अपनी; काग-कौआ, भाग-भाग्य; सजनी-सखी।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश रसखान कवि द्वारा रचित ‘सुजान रसखान’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘सवैये’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत सवैये में कवि रसखान ने श्रीकृष्ण के बालरूप का अत्यन्त सुन्दर एवं सजीव चित्रण किया है। श्रीकृष्ण के रूप सौन्दर्य पर मोहित होकर एक गोपी दूसरी गोपी से उनकी सुन्दरता का बखान करती है।
व्याख्या– कवि रसखान कहते हैं कि एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! श्यामवर्ण के कृष्ण धूल से भरे हुए अत्यन्त सुशोभित व आकर्षक लग रहे हैं। ऐसे ही उनके सिर पर सुन्दर चोटी सुशोभित हो रही है। वे अपने आँगन में खाते और खेलते हुए घूम रहे हैं। उनके पैरों में पायल बज रही है और वे पीले रंग की छोटी-सी धोती पहने हुए है। कवि रसखान कहते हैं कि उनके उस सौन्दर्य को देखकर कामदेव भी उन पर अपनी कोटि-कोटि कलाओं को न्योछावर करता है। उस कौए का भाग्य भी कितना अच्छा है, जिसे श्रीकृष्ण जी के हाथ से मक्खन और रोटी छीनकर खाने का अवसर प्राप्त हुआ है।
काव्य सौन्दर्य–
इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण के बाल सौन्दर्य का मनोहारी सजीव वर्णन है।
- भाषा– ब्रज
- गुण– माधुर्य
- छन्द– सवैया
- शैली-चित्रात्मक और मुक्तक
- रस– वात्सल्य और भक्ति
- अलंकार– अनुप्रास अलंकार- ‘सोभित स्यामजू’, ‘खेलत खात’, ‘पग पैजनी’ और ‘काम कला’ में क्रमशः ‘स’, ‘ख’, ‘प’ और ‘क’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 2
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं,
गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारन संग फिरौगी।।
भावतो वोहि मेरी रसखानि,
सो तेरे कहैं सब स्वाँग करौगी।
या मुरली मुरलीधर की,
अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
शब्दार्थ- मोर-पखा-मोर के पंखों से बना मुकुट; राखिहौ रखूँगी; गरें-गले में; पहिरौंगी-पहन लूँगी, मितंबर-पीला, लकुटी-छोटी लकड़ी, मावतो अच्छा लगता है; स्वाँग-श्रृंगार अभिनयः अधरान-होंठों पर, अघरा-बाँसुरी।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश रसखान कवि द्वारा रचित ‘सुजान रसखान’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘सवैये’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग-प्रस्तुत सवैया में श्रीकृष्ण के प्रति वियोग प्रेम से व्याकुल गोपियों का वर्णन किया गया है।
व्याख्या– एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि मैं तुम्हारे कहने पर मोर के पंखों से बने मुकुट को अपने सिर पर धारण कर लूँगी, गुंजाओं की माला अपने गले में पहन लूँगी, पीला वस्त्र ओढ़कर, लकड़ी अपने हाथ में लेकर जंगल में गायों और ग्वालों के साथ भी घूमूँगी। तुम जो लीलाएँ करने को कहोगी, वही सब करूँगी अर्थात् जो लीलाएँ श्रीकृष्ण को पसन्द है, वही लीलाएँ मैं करने के लिए तत्पर हूँ, परन्तु मैं उस बाँसुरी को अपने होंठों पर नहीं रखूँगी, जो श्रीकृष्ण के अधरों पर अत्यन्त सुशोभित लगती है, क्योकि बाँसुरी गोपियों को अपनी सौतन जैसी प्रतीत होती है। उन्हें बाँसुरी से ईर्ष्या है, क्योंकि वह श्रीकृष्ण के ज्यादा ही मुँह लगी हुई है।
काव्य सौन्दर्य–
इन पंक्तियों में कवि ने श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन गोपियों द्वारा स्वयं को पूर्णतः समर्पित करने का भाव प्रस्तुत किया है।
- भाषा-ब्रज
- शैली-मुक्तक
- रस-श्रृंगार
- छन्द-सवैया
- गुण-माधुर्य
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘गोधन ग्वारन’, ‘सब स्वाँग’ और ‘मेरी रसखानि’ में क्रमशः ‘ग’, ‘स’ और ‘र’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- यमक अलंकार– मुरली मुरलीधर में मुरली (बाँसुरी) और मुरलीधर (श्रीकृष्ण) के लिए तथा अधरान धरी अधरा न धरौंगी में अधरान (होंठों पर), अधरा (बाँसुरी) अर्थात् एक ही पंक्ति में समान शब्दों का दो बार प्रयोग किया गया है, परन्तु उनके अर्थ अलग-अलग हैं, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।