रामनरेश त्रिपाठी का जीवन परिचय –
पद्यांश 1 –
अतुलनीय जिनके प्रताप का,
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर।
घूम-घूम कर देख चुका है,
जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर।
देख चुके हैं जिनका वैभव,
ये नभ के अनन्त तारागण।
अगणित बार सुन चुका है नभ,
जिनका विजय-घोष रण-गर्जन।
शब्दार्थ– अतुलनीय बेजोड़; प्रताप-शौर्य, पराक्रम, दिवाकर सूर्यः निशावर-चन्द्रमा; नभ-आकाश, तारागण तारों का समूहः रण-राजन-युद्ध की गर्जना; अंगणित अनगिनत।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड ‘स्वदेश प्रेम’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी ‘हिन्दी’ द्वारा रचित ‘स्वप्न’ से लिया गया है।
प्रसंग– प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने उन पूर्वजों का यशोगान किया है, जिनके यश के साक्षी आज भी विद्यमान हैं। इसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है।
व्याख्या– कवि कहता है कि तुम अपने उन पूर्वजों को स्मरण करो, जिनके यश की तुलना कोई नहीं कर सकता और सूर्य जिनके बल और प्रताप का स्वयं साक्षी है। हमारे पूर्वज तो ऐसे थे, जिनकी निर्मल और स्वच्छ कीर्ति को चन्द्रमा भी पूरे विश्व में घूम-घूम कर देख चुका है। आकाश के अनन्त तारों का समूह भी जिनके ऐश्वर्य को बहुत पहले देख चुका है। यह आकाश भी हमारे पूर्वजों के विजय-घोषों और युद्ध की गर्जनाओं को अनेक बार सुन चुका है अर्थात् हमारे पूर्वजों के प्रताप, वैभव, यश, युद्ध कौशल, सब कुछ अद्भुत और अभूतपूर्व है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने पूर्वजों का गुणगान किया है।
- भाषा– संस्कृत शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी-बोली
- शैली– भावात्मक
- गुण– ओज
- रस– वीर
- छन्द– मात्रिक
- शब्द-शक्ति– व्यंजना
- अलंकार–
- रूपक अलंकार- ‘दिवाकर’, ‘निशाकर’ और ‘तारागण’ में उपमेय में उपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
- अनुप्रास अलंकार- ‘अतुलनीय जिनके’, ‘कीर्ति निशाकर’ और ‘जिनका विजय’ में क्रमशः ‘न’, ‘क’ और ‘ज’ वर्ण की पुनरावृत्ति
होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। - पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार- ‘घूम-घूम’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 2 –
शोभित है सवर्वोच्च मुकुट से,
जिनके दिव्य देश का मस्तक।
गूँज रही हैं सकल दिशाएँ जिनके जय-गीतों से अब तक ।।
जिनकी महिमा का है अविरल,
साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरि-वर।
उतरा करते थे विमान-दल,
जिसके विस्तृत वक्षःस्थल पर।
शब्दार्थ– दिव्य-अलौकिकः सकल समस्त; अविरल निरन्तर; साक्षी गवाह, सत्य-रूप हिम-गिरि-वर-सत्य स्वरूपवाला श्रेष्ठ हिमालय; विमान दल विमानों का समूह, वक्षःस्थल सीना।
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड ‘स्वदेश प्रेम’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी ‘हिन्दी’ द्वारा रचित ‘स्वप्न’ से लिया गया है।
प्रसंग– इन पंक्तियों में कवि ने हमारे देश के दिव्य स्वरूप, प्राचीन महिमा और अतीत के गौरव का वर्णन किया है।
व्याख्या– कवि कहता है कि भारत एक महान् एवं प्राचीन दिव्य देश है, जिसके मस्तक पर हिमालयरूपी सर्वोच्च मुकुट सुशोभित है। हमारे पूर्वज इतने ज्ञानी, गुणी, वीर और परोपकारी थे कि उनके विजय के यशगान से आज भी सम्पूर्ण दिशाएँ गूंज रही हैं। वे हमारे ही पूर्वज थे, जिनकी महिमा के साक्षी हिमालय पर्वत और वन प्रान्त के पेड़-पौधे हैं। हिमालय और वन आज भी उनके सत्य रूप का बोध कराते हैं। यह हमारे देश की विस्तृत भारत भूमि ही है, जिसके वक्षस्थल पर अन्य देशों के विमान भी उतरा करते थे अर्थात् भारत की कीर्ति को सुनकर दूर-दूर से विदेशी यहाँ आया करते थे। इस प्रकार भारत की कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में फैली थी।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पंक्तियों में हिमालय पर्वत को भारत के मुकुट के रूप में चित्रित किया गया है।
- भाषा– साहित्यिक खड़ी-बोली
- शैली– भावात्मक और वर्णनात्मक
- गुण– ओज
- रस– वीर
- छन्द– मात्रिक
- शब्द-शक्ति– व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘जिनके जय’, ‘साक्षी सत्य’ और ‘विस्तृत वक्षःस्थल’ में क्रमशः ‘ज’, ‘स’ और ‘व’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- रूपक अलंकार- ‘सर्वोच्च मुकुट’ और ‘सत्य-रूप हिम-गिरि-वर’ में उपमेय में उपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
पद्यांश 3 –
सागर निजं छाती पर जिनके,
अगणित अर्णव-पोत उठाकर ।
पहुँचाया करता था प्रमुदित,
भूमण्डल के सकल तटों पर ।।
नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी,
बहती हैं अब भी निशि-वासर।
ढूँढो, उनके चरण-चिह्न भी,
पाओगे तुम इनके तट पर।।
शब्दार्थ– अगणित अनगिनत, अर्णव-पोत समुद्री जहाज, प्रमुदित-प्रसन्न हो; भूमण्डल-पृथ्वी मण्डलः सकल समस्त निशि-वासर-रात-दिन।
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड ‘स्वदेश प्रेम’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी ‘हिन्दी’ द्वारा रचित ‘स्वप्न’ से लिया गया है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने पूर्वजों की गरिमा तथा समर्पण भाव का चित्रण किया है।
व्याख्या– कवि कहता है कि हमारे पूर्वजों (हमारे देश) का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। समुद्र स्वयं उनकी सेवा में लीन रहता था। वह अपने वक्ष पर उनके अनगिनत जहाजों को उठाकर प्रसन्नता से पृथ्वी के समस्त तटों तक पहुँचाया करता था। हमारे देश में रात-दिन बहने वाली नदियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो वे हमारे पूर्वजों का यशोगान गा रही हों। धन्य थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने अपने समय में देश का गौरवान्वित रूप देखा।
आज भी माना जाता है कि उनके चरण-चिह्न नदियों और समुद्रों के तट पर मिल जाएँगे अर्थात् पूर्वजों के समान व्यवहार करने से आज भी हमें उसी यश की प्राप्ति हो सकती है, जो उन्हें प्राप्त थी।
काव्य सौन्दर्य–
- भाषा– साहित्यिक खड़ी बोली
- गुण– ओज
- छन्द– मात्रिक
- शैली– भावात्मक
- रस– वीर
- शब्द-शक्ति– व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘अगणित अर्णव’ और ‘चरण-चिह्न’ में ‘अ’, ‘ण’ और ‘च’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- उपमा अलंकार- ‘यश-धारा-सी’ में उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।
- रूपक अलंकार- इस पद्यांश में मनुष्य के यश की वृद्धि का परिचय नदी रूपी धारा से दिया गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
पद्यांश 4–
विषुवत् रेखा का वासी जो,
जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक,
वह भी अपनी मातृ-भूमि पर।।
ध्रुव-वासी, जो हिम में तम में,
जी लेता है काँप-काँप कर।
वह भी अपनी मातृ-भूमि पर,
कर देता है प्राण निछावर ।।
शब्दार्थ– विषुवत् रेखा-भूमध्य रेखा, वासी निवासी, अनुराग-प्रेम; अलौकिक-दिव्य लोक से परे, ध्रुव-वासी शीतल या ध्रुव प्रदेश में रहने वाला; हिम-वर्फ, तम-अन्धकार ।
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड ‘स्वदेश प्रेम’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी ‘हिन्दी’ द्वारा रचित ‘स्वप्न’ से लिया गया है।
प्रसंग– कवि ने विषम परिस्थितियों में रह रहे लोगों के देश-प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने देश से प्रेम करने की सीख दी है।
व्याख्या– कवि अपने देश से असीम प्रेम करने की प्रेरणा देते हुए कहता है कि विषुवत् रेखा का वह भू-भाग जहाँ असहनीय गर्मी पड़ती है और वहाँ के लोग गर्मी के कारण हाँफ-हाँफ कर जीवन बिताते हैं, किन्तु इतने कष्टों के होने पर भी वे अपनी मातृभूमि से अत्यधिक लगाव रखते हैं। उनका अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम अतुलनीय होता है। वे गर्मी की मार से परेशान होने पर भी अन्यत्र जाकर बसने की बात नहीं सोचते हैं।
इसी प्रकार ध्रुवीय प्रदेशों में जहाँ साल के अधिकांश महीनों में बर्फ जमी रहती है, भीषण सर्दी के कारण काँपते हुए जीवन बिताना पड़ता है तथा सर्दी, कोहरे और धुन्ध के कारण दिन-रात का अन्तर करना कठिन हो जाता है। वहाँ के लोग भी असहाय शारीरिक कष्ट सहते हुए भी वहीं रहना पसन्द करते हैं। इसका सीधा-सा कारण अपनी मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम ही तो है। यहाँ के निवासी शत्रुओं से रक्षा करते हुए अपनी मातृभूमि के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने स्पष्ट किया है कि विषम जलवायु में कष्टपूर्ण जीवन जी रहे लोग भी अपने देश के प्रति असीम लगाव रखते हैं।
- भाषा– सरल खड़ी-बोली
- शैली– भावात्मक
- गुण– ओज
- रस– वीर
- छन्द– मात्रिक
- शब्द-शक्ति– व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘अनुराग अलौकिक’, ‘मातृ-भूमि’ और ‘ध्रुव-वासी’ में क्रमशः ‘अ’, ‘म’ और ‘व’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार- ‘हाँफ-हाँफ’ और ‘कॉप-कॉप’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
पद्यांश 5–
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,
मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।
जीव जहाँ से फिर चलता है,
धारण कर नव जीवन-संबल ।।
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें,
श्रम से कातर जीव नहाकर।
फिर नूतन धारण करता है,
काया-रूपी वस्त्र बहाकर।।
शब्दार्थ– निर्भय-भग्रहित होकर, विश्राम-स्थल-आराम करने की जगह; संबल-आधार; सरिता-नदी, कातर-दुःखी, नूतन नवीन, नया; काया-शरीर।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड ‘स्वदेश प्रेम’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी ‘हिन्दी’ द्वारा रचित ‘स्वप्न’ से लिया गया है।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में देश की रक्षा हेतु सर्वस्व समर्पित करने के लिए कहा गया है। देश की रक्षा करते हुए यदि मृत्यु का वरण करना पड़े तो वह भी श्रेयस्कर है।
व्याख्या– कवि कहता है, हे देशवासियों! मृत्यु का वरण सहर्ष करो। मृत्यु का स्वागत करो, क्योंकि मृत्यु एक विश्राम स्थल है। मृत्यु के बाद जीव पुनः नए शरीर को धारण करके फिर से अपनी जीवन यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु एक नदी के समान है, जिसमें नहाकर श्रम से दुःखी प्राणी पुराने शरीररूपी वस्त्र का त्याग करके नए शरीररूपी वस्त्र, को धारण करता है।
कवि के कहने का तात्पर्य है कि कर्म करने के लिए जीव शरीर धारण करता है और संसार में जब वह थक जाता है, तो मृत्यु के बाद नए शरीर को नई शक्ति के साथ धारण करके पुनः अपनी जीवन यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु का वरण करके वह अपने पुराने कायारूपी वस्त्र को छोड़कर पुनः नए शरीररूपी वस्त्र को धारण करता है। अतः मनुष्य को मृत्यु का स्वागत उल्लास और उत्साह से करना चाहिए।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पंक्तियों में मृत्यु से भयभीत न होने की प्रेरणा देते हुए मृत्यु को जीवन का विश्राम स्थल बताया गया है। कवि की यह नितान्त मौलिक कल्पना है।
- भाषा– खड़ी-बोली
- शैली– उद्बोधन
- गुण– प्रसाद
- छन्द– मात्रिक
- रस– वीर
- शब्द-शक्ति– व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘जीव जहाँ’, ‘धारण कर’ और ‘नव जीवन’ में क्रमशः ‘ज’, ‘र’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- रूपक अलंकार- ‘मृत्यु एक सरिता है’ में मुत्यु को नदी रूपी बताकर दोनों के मध्य का भेद समाप्त हो गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
पद्यांश 6–
सच्चा प्रेम वही है जिसकी – तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,
करो प्रेम पर प्राण निछावर ।।
देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है,
अमल असीम त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से जिसमें,
मनुष्यता होती है विकसित ।।
शब्दार्थ– तृप्ति-सन्तोषः आत्म-बलि-आत्म समर्पणः निष्पाण-प्राणरहितः पुण्य क्षेत्र-पवित्र स्थान; अमल-निर्मलः विलसित-सुशोभित ।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड ‘स्वदेश प्रेम’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी ‘हिन्दी’ द्वारा रचित ‘स्वप्न’ से लिया गया है।
प्रसंग– कवि सच्चे देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान जैसे गुणों को आवश्यक मानता है।
व्याख्या– कवि कहता है कि सच्चा प्रेम उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें आत्मत्याग की भावना कूट-कूटकर भरी होती है अर्थात् आत्मत्याग के अभाव में प्रेम को सच्चा नहीं कहा जा सकता है। सच्चे प्रेम को पाने के लिए यदि आत्मबलिदान भी देना पड़े, तो हमें हिचकना नहीं चाहिए। त्याग के विना प्रेम निर्जीव-सा होता है। देश-प्रेम ऐसा पवित्र क्षेत्र है, जो निर्मल, निष्कलंक और त्याग जैसे गुणों से खिल उठता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है अर्थात् देश-प्रेम की सुन्दरता असीम और पवित्र त्याग से दिखाई देती है।
देश-प्रेम वह पवित्र भावना होती है, जो मनुष्य की आत्मा और मनुष्यता के विकास के लिए आवश्यक होती है। अतः मनुष्य में मनुष्यता का पूर्ण विकास हो, इसके लिए उसमे देश-प्रेम की भावना आवश्यक है।
काव्य सौन्दर्य–
देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान आवश्यक है, इसी भाव को कवि ने यहाँ प्रकट किया है।
- भाषा– सरल खड़ी-बोली
- शैली– तुकान्त-मुक्त भावात्मकता
- गुण– ओज
- रस– वीर
- छन्द– मात्रिक
- शब्द-शक्त्ति– व्यंजना
- अलंकार– अनुप्रास अलंकार- ‘अमल असीम’ में ‘अ’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।