माखनलाल चतुर्वेदी जीवन परिचय
पुष्प की अभिलाषा : पद्यांश 1 –
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ में देना तुम फेंक। मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।
शब्दार्थ– चाह-कामना, सुरवाला देवकन्या, गहना आभूषण, बिंध गुँथकर सम्राट साम्राज्य का स्वामी, हरि ईश्वर, भगवान; इठलाऊँ अभिमान करूँ, बनमाली-उद्यान अथवा वाटिका में पुष्प एवं पेड़-पौधों का संरक्षक, शीश मस्तकः पथ राह।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘हिन्दी’ के काव्यखण्ड ‘पुष्प की अभिलाषा’ शीर्षक से उधृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित ‘युगचरण’ से लिया गया है।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने पुष्प के माध्यम से मातृभूमि पर बलिदान होने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या- कवि स्वयं को पुष्प मानकर अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर ! मेरी यह अभिलाषा नहीं है कि मैं देवकन्या के आभूषणों में जड़कर उसके श्रृंगार की वस्तु बनूँ और न ही मेरी इच्छा पुष्पों की सुन्दर माला में गुँधकर प्रेमिका को रिझाने की है। वह कहता है कि हे ईश्वर! मेरी यह भी अभिलाषा नहीं है कि मैं सम्राटों के पार्थिव शरीर पर चढ़ाया जाऊँ और न ही मेरी इच्छा देवों के मस्तक पर सुशोभित होकर गर्व से इठलाने की है। वह कहता है कि मेरी तो केवल यही इच्छा है कि हे वनमाली! तुम मुझे उस पथ परं बिखेर देना, जिससे हमारी मातृभूमि के रक्षक, वीर सैनिक गुजरें। मैं उनके चरणों के स्पर्श से ही स्वयं को सौभाग्यशाली व गौरवान्वित अनुभव करूँगा, क्योंकि उनके चरणों का स्पर्श ही देश के बलिदानी वीरों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि है।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत काव्यांश में पुष्प की अभिलाषा मुखरित हुई है। वह भी अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान होने का भाव प्रकट कर रहा है।
- भाषा- सरल खड़ी बोली
- गुण- ओज
- छन्द- तुकान्त-मुक्त
- रस- वीर
- शैली- प्रतीकात्मक, आत्मपरक तथा भावात्मक
- शब्द-शक्ति-अभिधा एवं लक्षणा
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘चाह नहीं’, ‘प्रेमी-माला’, ‘लेना बनमाली’ और ‘जिस पथ जावें वीर’ में क्रमशः ‘ह’, ‘म’, ‘न’ और ‘व’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
जवानी पद्यांश 2 –
पहन ले नर-मुंड-माला,
उठ स्वमुंड सुमेरु कर ले,
भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी,
प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!
द्वार बलि का खोल चल,
भूडोल कर दें,
एक हिम-गिरि एक सिर,
का मोल कर दें,
मसल कर,
अपने इरादों-सी, उठा कर,
दो हथेली हैं कि
पृथ्वी गोल कर दें?
रक्त है?
या है नसों में क्षुद्र पानी!
जाँच कर, तू सीसं दे-देकर जवानी?
शब्दार्थ- नर-मुंड-माला-मनुष्यों के सिर की मालाः सुमेरु-मालां का वह दाना जिसके पूर्व माला पूरी होती है; भडाल-कम्पित; हिमगिरि हिमालय पहाड़; सुद तुच्छ सास-सिर।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘काव्यखण्ड’ के ‘जवानी’ शीर्षक. से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित ‘हिमकिरीटनी’ से ली गई है।
प्रसंग- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी कवि है। ‘जवानी’ कविता से वे देश के – युवाओं को उद्घोधित और प्रेरित करते हुए उन्हें उत्साहित कर रहे हैं कि वे देश की वर्तमान परिस्थिति को बदल दें।
व्याख्या- वे कहते हैं कि यदि समर्पण की स्थिति आ जाए तो तुम देश के लिए स्वयं को समर्पित भी कर दो, पीछे मत हटो; जैसे- पृथ्वी हरे धानों की हरियाली से जीवन्त हो उठती है, वैसे ही युवा भी उत्साह से भरकर अपने नियत कार्य को करें। जीवन का उद्गम उनका प्राण साथ में है। अतः उस प्राणशक्ति के साथ आलस्य का त्याग करके अपने कर्तव्यों का पालन युवा वर्ग करें तथा आगे बढ़े।
कवि युवाओं को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे युवा वर्ग! तुम अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान का द्वार खोल दो। तुम चलो, आगे बढ़ो। तुम्हारे आगे बढ़ते उत्साहित कदमो में इतनी शक्ति हो कि उस पैर से पृथ्वी कम्पित हो उठे। हिमालय की रक्षा के लिए तुम सब अपने एक-एक सिर को समर्पित कर दो, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दो। तुम्हारे इरादे (संकल्प) अत्यन्त मजबूत हो और तुम अपने इरादे रूपी हथेलियों को ऊँचे संकल्पों के समान उठाकर पृथ्वी को मसलकर गोल कर दो अर्थात् तुम अपने संकल्पों को दृढ़ करके कठिन-से-कठिन काम करने में सामर्थ्यवान बनो। हे वीरों! तुम अपनी युवावस्था की परख अपने शीश देकर कर सकते हो। इस बलिदानी परीक्षण से तुम्हें यह भी ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारी धमनियों में शक्तिशाली रक्त दौड़ रहा है अथवा उनमें केवल शक्तिहीन पानी ही भरा हुआ है।
काव्य सौन्दर्य-
- भाषा-शुद्ध परिमार्जित खड़ी बोली
- गुण- ओज
- शैली- भावात्मक, उद्बोधन
- रस- वीर
- छन्द- तुकान्त-मुक्त
- शब्द-शक्ति- व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘स्वमुण्ड सुमेरु’, ‘पहन बाना’, ‘बलि का खोल् चल’ आदि में अनुप्रास अलंकार है।
- रूपक अलंकार- अपने इरादों सी, उठा कर’ में रूपक अलंकार है।
जवानी पद्यांश 3–
विश्व है असि का? नहीं संकल्प का है!
हर प्रलय का कोण काया-कल्प का है!
फूल गिरते, शूल शिर ऊँचा लिए है;
रसों के अभिमान को नीरस किए हैं।
खून हो जाए न तेरा देख, पानी,
मरण का त्योहार, जीवन की जवानी।
शब्दार्थ- असि-तलवारः संकल्प-दृढ़ निश्चय; मलय-क्रान्ति, काया-कल्प पूर्ण परिवर्तन, क्रान्तिः शूल-कॉटे; रस-सौन्दर्य, श्रृंगार, नीरस-रस-विहीन, आभाहीन, परास्त ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘काव्यखण्ड’ के ‘जवानी’ शीर्षक. से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित ‘हिमकिरीटनी’ से ली गई है।
प्रसंग- कवि युवाओं को क्रान्ति का दूत मानते हुए उन्हें मातृभूमि के लिए आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दे रहा है।
व्याख्या- कवि युवाओं को क्रान्ति के लिए उत्साहित करते हुए उनसे पूछता है कि क्या यह संसार तलवार का है? क्या यह संसार तलवार और अन्य हिंसक हथियारों से ही जीता जा सकता है? कवि उनको स्वयं ही उत्तर देते हुए कह रहा है कि नहीं। ऐसी बात नहीं है। संसार दृढ़ संकल्प वाले व्यक्तियों का है। इसे दृढ़ संकल्प से जीता जा सकता है। संसार की प्रत्येक प्रलय का उद्देश्य संसार में क्रान्ति और बदलाव लाना होता है। इसी प्रकार युवा वर्ग यदि किसी बात के लिए संकल्प कर लेता है तो क्रान्ति आ सकती है और परिवर्तन प्रारम्भ हो सकता है। अतः युवाओं को अपने संकल्प से क्रान्ति के लिए आगे आना चाहिए।
व्यक्ति के अन्दर जब दृढ़ संकल्पों की कमी होती है, तो उसका पतन आरम्भ हो जाता है। हवा के हल्के से झोंके से कोमल होने के कारण पुष्प जमीन पर गिर जाते हैं 5. और अपना सौन्दर्य खो बैठते हैं, परन्तु कॉटे आँधी और तूफान में भी अपना सीना गर्व से ताने खड़े रहते हैं। हे नवयुवकों! दृढ़ संकल्प से उत्पन्न आत्मोत्सर्ग की भावना कभी विचलित नहीं होती है। काँटे फूलों की कोमलता और उनके सौन्दर्य के अभिमान को अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से नष्ट कर देते हैं। कवि युवाओं से कहता है कि हे युवा-वर्ग ! तुम्हारी नसों के रक्त में जो उत्साह है, जो उष्णता है, वह जोश शीतल होकर नष्ट न हो जाए। जवानी उसी का नाम है, जो मृत्यु को त्योहार अर्थात् उल्लास का क्षण माने। मरण का त्योहार अर्थात् बलिदान का दिन ही जवानी का सबसे आनन्दमय दिन होता है।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि समाज में क्रान्ति लाने के लिए दृढ़ संकल्प अति आवश्यक है। युवाओं के संकल्प फूलों के समान कोमल नहीं, बल्कि काँटों के समान कठोर होने चाहिए।
- भाषा– खड़ी-बोली
- शैली- उद्बोधनात्मक
- रस- वीर
- गुण- ओज
- छन्द- तुकान्त-मुक्त
- शब्द-शक्ति- लक्षणा एवं व्यंजना
- अलंकार-
- रूपक अलंकार- ‘मरण का त्योहार’ में आत्म बलिदान को उत्साह का पर्व मानने के कारण यहाँ रूपक अलंकार है। अनुप्रास अलंकार- ‘शूल शिर’ और ‘जीवन की जवानी’ में ‘श’, ‘ज’ और ‘व’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
जवानी पद्यांश 4–
“लाल चेहरा है नहीं, फिर लाल किसके ?
लाल खून नहीं, अरे, कंकाल किसके ?
प्रेरणा सोयी कि, आटा-दाल किसके ?
सिर न चढ़ पाया, कि छापा माल किसके?”
वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी
धूल है जो जग नहीं पाई जवानी
शब्दार्थ- लाल-लाल रंग, पुत्र; कंकाल-हड्डी का ढाँचा: छापा-तिलक; माल-माला।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘काव्यखण्ड’ के ‘जवानी’ शीर्षक. से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित ‘हिमकिरीटनी’ से ली गई है।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में माखनलाल जी युवाओं को वीर युवकों के लक्षण समझा रहे हैं।
व्याख्या- कवि युवाओं में उत्साह का संचार करते हुए कहते हैं कि यदि तुम्हारे चेहरे पर उत्साह एवं जोश की लालिमा नहीं है और तुम्हारे मस्तक का तेज समाप्त हो गया है तो तुम भारत माता की सन्तान कहलाने का अधिकार खो चुके हो। यदि तुम्हारे रक्त में ओजस्विता व उष्णता का गुण नहीं है, तो तुम्हारा शरीर मात्र अस्थि पंजर है, उसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
कवि कहते हैं कि यदि तुम्हारे भीतर देश-रक्षा की प्रेरणा एवं उसकी इच्छा सो गई है या समाप्त हो गई है, तो तुम्हारा जीवन देश के लिए व्यर्थ है और तुम शत्रुओं के लिए केवल भोजन मात्र हो।
कवि आगे कहते हैं कि धार्मिक क्रियाकलापों अर्थात् माला जपने या तिलक लगाने का औचित्य भी तब ही है, जब तुम्हारे अन्दर देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों को बलिदान करने का सामर्थ्य हो। वे कहते हैं कि वेदों की उक्तियाँ हों या आकाश से उत्पन्न वेदवाणी, यदि उनमें युवाओं को जोश, उत्साह एवं अम्य साहस उत्पन्न करने का गुण विद्यमान नहीं है, तो वेदों की वाणी और देववाणी भी व्यर्थ है।
काव्य सौन्दर्य-
- भाषा- साहित्यिक खड़ी-बोली
- गुण- ओज
- शैली- प्रवाहमयी तथा ओजपूर्ण
- रस- वीर
- छन्द- तुकान्त-मुक्त
- शब्द-शक्ति- व्यंजना
- अलंकार-
- यमक अलंकार- ‘लाल चेहरा है नहीं, फिर लाल किसके ?’ में ‘लाल’ शब्द के दो अर्थ हैं- लाल रंग व पुत्र, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार- ‘कंकाल किसके’ और ‘वेद की वाणी’ में ‘क’ और ‘व’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।