मेवाड़ मुकुट
( बुलन्दशहर, देवरिया, बरेली, सुल्तानपुर, सीतापुर एवं बहराइच जिलों के लिए)
प्रश्न 1. ‘मेवाड़ मुकुट’ के अरावली सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर– ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य की रचना श्री गंगारत्न पाण्डेय द्वारा की गई है। सात सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य की मूल कथा के केन्द्रीय पात्र इतिहास प्रसिद्ध महापुरुष महाराणा प्रताप हैं। इस खण्डकाव्य का सारांश निम्न है-
प्रथम सर्ग (अरावली)
- इस खण्डकाव्य का आरम्भ ‘अरावली’ सर्ग से होता है, जिसमें अरावली पर्वत श्रृंखला के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। यहाँ आरम्भ में ही स्पष्ट हो चुका है कि मुगल सम्राट अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हल्दीघाटी का युद्ध हो चुका है। महाराणा प्रताप इस युद्ध में पराजित हो गए थे और उस समय उन्होंने अरावली में शरण ली हुई है।
अरावली पर्वत श्रृंखला भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में फैली हुई है। शत्रुओ के आक्रमण को झेलकर भी अरावली मेवाड की रश्क्षा का भार संभालते हुए गर्व से खड़ा हुआ है। इस अरावली पर्वत की भूमि कभी ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों की वेद-वाणी और वैदिक मन्त्रो से गुजित रहती थी, किन्तु आज यह वीरो की शरण स्थली है। युद्ध में पराजित राणा अपनी पत्नी लक्ष्मी, पुत्र अमर और धर्मपुत्री (अकबर की पुत्री) दौलत के साथ यहीं रहते हैं। वे तिचार कर रहे हैं कि चित्तौड़ का दुर्ग हाथ से निकल गया वो क्या हुआ अभी नेवाड़ का अधिकांश भाग उनका ही है। उनका प्रण है कि जब तक मातृभूमि मेवाड़ को पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं करा लेंगे, तब तक चैन से नहीं बैठेगे।
भगवान एकलिंग के प्रति गहरी आस्था होने के कारण उनमें देश, जाति और कुल की मर्यादा की रक्षा करने की इच्छाशक्ति और स्वाभिमान बना हुआ है। स्वतन्त्रता के इस असाधारण प्रेमी का मन इतना विशाल है कि वह शरण में आए हुए शत्रु को भी शरण देता है। राणा ने अकबर की पुत्री दौलत को अपनी धर्मपुत्री मानते हुए उसे शरण दी है। राणा प्रताप तुल्य पिता और लक्ष्मी जैसी मॉ पाकर दौलत को यहाँ स्नेहपूर्ण वातावरण में अपने सगे-सम्बन्धियों की याद जरा भी नहीं सताती है। यहाँ वन में सिसोदिया कुल की लक्ष्मी अपने शिशु को गोद में लिए हुए चिन्तन में डूबी हुई है।
द्वितीय सर्ग (लक्ष्मी)
दूसरे सर्ग में रात्रि के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण होने के साथ रानी लक्ष्मी के विविध मनोभावों और उसकी अभावग्रस्त करुण दशा का भी चित्रण, हुआ है। पराजय के बाद अरावली पर्वत के गहन वन महाराणा प्रताप अपनी पत्नी में लक्ष्मी, शिशु अमर और दौलत के साथ रहने लगे थे। वहाँ उन्होंने एक कुटिया बना ली थी। रानी लक्ष्मी कुटिया के बाहर बैठी हुई थी। रानी लक्ष्मी के अन्दर विचारों का तूफान चल रहा था। अपने शिशु का मुख देखकर वह सोच रही थी कि इसका भी कैसा भाग्य है?
जिस कोमल सुकुमार को राजमहल में होना चाहिए था. वह जंगल में मुझ भिखारिन की गोद में पड़ा हुआ है। राणा की सन्तान होकर भी इसे अपनी मां का दूध भी नसीब नहीं हो रहा है। वह शिशु को भूख से व्याकुल देखकर सोचती है कि- “कर्म-योग तो कोरा आदर्श है। कर्म-योग ही सच्चा दर्शन है। यह संसार भी कैसा है कि अत्याचारी सदा विजयी होते हैं और वीर एवं सदाचारी सदा कष्ट उठाते हैं।” राणा का अपराध बस इतना ही तो है कि उन्होंने अपने स्वाभिमान और देश की रक्षा हेतु परतन्त्रता स्वीकार नहीं की। वह संयमपूर्वक वन के कष्ट और अभाव सहन कर रहे है। वह मन-ही-मन में कहती है कि मैं भूखी रह सकती हूँ, किन्तु अमर, दौलत और राणा की भूख मुझसे सहन नहीं होती।
फिर वह कुछ सँभलती है और कहती है कि यदि यह सब इसलिए हो रहा है कि हमने पराधीन रहना स्वीकार नहीं किया, तो यही सही। ये कष्ट हमें निर्बल नहीं बना पाएँगे। तभी पर्णकुटी से वाहर निकलकर राणा आए। उन्होंने लक्ष्मी से पूछा कि ‘क्या हुआ’? लक्ष्मी अपने आँचल से आँसू पोछते हुए कहती है कि ‘कुछ नहीं’ और यह कहकर कुटिया के भीतर चली जाती है। उसकी यह करुण दशा देखकर राणा भी दुःखी हो जाते हैं।
तृतीय सर्ग (प्रताप)
तृतीय सर्ग में महाराणा प्रताप के मन में उठने-गिरने वाले भिन्न-भिन्न मनोभावों को प्रस्तुत किया गया है। लक्ष्मी के भीतर जाने के बाद राणा कुछ देर खोए-खोए से खड़े रहे। फिर उस पेड़ के नीचे चले गए, जहाँ वे दोपहरी बिताया करते थे। वह आँखें बन्द करके अपनी पत्नी लक्ष्मी के बारे में विचार कर रहे थे। उन्हें इस पर बहुत दुःख होता था कि राजभवनों में रहने वाली सिसोदिया कुल को राज-लक्ष्मी मेरे साथ निर्जन वन में रहने और धरती पर सोने के लिए विवश है। फिर वह स्वयं को दृढ़ करते हुए कहते हैं कि लेकिन मुझे तो दृढ़तापूर्वक अपने कर्त्तव्य का पालन करना और मेवाड़ को स्वतन्त्र कराना है।
फिर अगले ही पल वह सोचते हैं कि लेकिन यह कैसे सम्भव होगा। अकबर ने साम, दाम, दण्ड, भेद की ऐसी नीति चली है कि मुझे छोड़कर अन्य राजपूत उसके माया-जाल में फँस गए हैं। क्या राजपूत जाति का गौरव मिट जाएगा?
मानसिंह जैसा वीर भी अकबर का अनुयायी है। शक्तिसिंह जो मेरा ही भाई था, वह भी मेरा विद्रोही निकला और अकबर से जा मिला। उससे मुझे द्वेष नहीं है, अपितु दया आती है। फिर उनकी आँखा के सामने हल्दीघाटी के युद्ध का दृश्य छा जाता है। वह याद करते हैं कि उस दिन शक्तिसिंह ने ही मेरे प्राण बचाए थे। वे अपने प्रसिद्ध घोड़े चेतक को भी याद करते हुए कहते हैं-
“जब हल्दीघाटी खोकर हम अस्त-व्यस्त भागे थे, तव चेतक ने मुझे बचाकर स्वयं प्राण त्यागे थे। चेतक ! मेरे बन्धु । प्रिय सखा! जन्म-जन्म के साथी। अमर वीर हल्दीघाटी के! ऐसी जल्दी क्या थी?”
उस समय मानी अधू पहाकर राणा के सेवक को श्रद्धांजलि दी। फिर वे सोचते है
कि यदि उस दिन जरा सी चूक न हुई होती, तो सलीम बच नहीं पाता और आস मेरी लक्ष्मी को दुःख न उठाना पड़ता। फिर उन्हें दौलत का ख्याल आता है कि जाने क्यों वह आगरा के महलों का सुख त्यागकर यहाँ वन में पड़ी हुई है। ऐस। लगता है जैसे वह मेरी ही पुत्री हो।
अन्ततः वह निश्चय करते हैं कि चाहे कुछ भी हो, वह मेवाड़ को स्वतन्त्र करा कर ही रहेंगे। वह अकबर के सामने न झुकने का पुनः प्रण करते हैं, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि अकबर साधन सम्पन्न है, जबकि उनके पास अपने प्रण को छोड़कर अन्य कोई सम्पत्ति नहीं है। इसलिए वह सिन्धु की ओर प्रस्थान करने का मन बनाते है, ताकि वह निर्भय होकर साधन एवं शक्ति संचय कर सकें और अकबर को टक्कर दे सकें। उन्हें दौलत का ख्याल आता है कि उसका क्या होगा? पता नहीं वह आजकल किन विचारों में खोई रहती है?
चतुर्थ सर्ग (दौलत)
इस सर्ग में महाराणा की धर्मपुत्री बन चुकी अकबर की पुत्री दौलत का चित्रांकन है। यद्यपि इतिहास में मुगल सम्राट अकबर की पुत्री के रूप में दौलत का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ‘महाराणा प्रताप सिंह’ नामक नाटक में द्विजेन्द्रलाल राय ने दौलत के पात्र की कल्पना की है। शायद उसी से प्रेरित होकर कवि ने यहाँ दौलत का चित्रांकन किया है। पर्णकुटी के पोछे एक कुंज में बैठी दौलत अपने ही विचारो में खोई हुई थी। अपने मन में वह सोच रही थी कि वे दिन भी क्या दिनं थे, जब वह आगरा के महल में भोग-विलास भरा जीवन व्यतीत करती थी। फिर वह यहाँ वन में क्यों आ गई है? फिर वह स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर देती हुई कहती है कि मुझे वह जीवन कभी पसन्द नहीं था। वहाँ छल-कपट, द्वेप-स्वार्थ बहुत अधिक था। प्यार और सहदयता नहीं थी। राणा की यह कुटिया महलों से कही अधिक सुखदायक है, क्योकि यहां शान्ति और सन्तोप भरा जीवन है।
राणा के रूप में पिता पाकर मैंने अमूल्य निधि पा ली है। मुझे शत्रु की बेटी नहीं, वरन् अपनी ही बेटी मानते है। वह सोचती है कि राणा का स्वतन्त्रत प्रेम अतुलनीय है। शत्रु भी इनका यश गान करते हैं, इसलिए तो मेवाड़ मुकुट कहलाते है। शक्तिसिंह भी इन्हीं का भाई है, परन्तु भाई-भाई में बहुत अन्तर है।
“शक्तिसिंह इनका भाई है, सिसोदिया. कुल का है,
पर भाई-भाई में भी तो अन्तर बहुत बड़ा है।
ये सूरज हैं, वह दीपक है, ये अमृत, वह पानी,
ये नर-नाहर, वह श्रृंगाल है, वह मूरख, ये. ज्ञानी।”
वह अपने मन में शक्तिसिंह के प्रति प्रेम-भाव को स्वीकार करती है, लेकिन उसने यह बात किसी को नहीं बताई, यहां तक की राणा को भी नहीं। वह सोचती है कि राणा पहले ही आजकल बहुत परेशान रहते हैं। मुझे उनकी मुश्किल बढ़ानी नहीं चाहिए, वरन् उनकी अनुगामी (आज्ञाकारी) बनकर उनकी सहायता करनी चाहिए। राणा जैसा पिता बड़े भाग्य से मिलता है। उनका स्नेह पाकर मैं बहुत सुखी हूँ, लेकिन मैं उनको चिन्तित देखकर व्याकुल हो जाती हूँ।
वह विचार करती है कि अवश्य ही कोई जटिल समस्या आ गई है, जिसके कारण वह आजकल बहुत परेशान और विचलित रहते हैं। वह इन्हीं विचारों में खोई हुई यह सोचती रहती है कि वह उनके लिए क्या कर सकती है। यहाँ इस सर्व का ‘समापन होता है।
पंचम सर्ग (चिन्ता)
इस सर्ग में दौलत एकान्त में विचारमग्न बैठी थी। वह अचानक राणा की पदचाप सुनकर सँभलकर खड़ी हो जाती है। राणा उसे उदास देखकर उससे उदासी का कारण पूछते हैं। दोलत ने कहा कि आपको पिता के रूप में पाकर में अत्यन्त सुखी हूँ, परन्तु में बहुत अभागी हूँ, जब से आपके पास आई हूँ, विपदा ही लाई हूँ। आपकी चिन्ता मुझे ग्लानि से भर देती है।
मुझे डर लगता है कि कही मेरे कारण मेवाड़ मुकुट का शीश न झुक जाए। इस पर राणा उसे स्नेहपूर्वक समझाते हैं कि बेटी कभी भी पिता की विपदा का कारण नहीं होती। तुझे पाकर में बहुत सुखी हूँ, परन्तु तेरी माता के आंसू मुझे बहुत व्यथित करते हैं। यदि तुम उन्हें संभाल लो तो मेरा शीश महाकाल के सम्मुख भी नहीं झुक सकता। दौलत कहती है कि माँ जितनी कोमल हैं, उतनी ही दृढ़ भी है। वह सारे दुःखो को चुपचाप सहन कर लेती है। उनके घोर गम्भीर स्वभाव के कारण मैं उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा पाती, परन्तु आज आप साथ है तो मैं अवश्य संकोच त्यागकर उनके सन्ताप को दूर करने का प्रयत्न करूंगी।
उधर रानी लक्ष्मी शिशु को गोद में लिए कुटिया में अकेली बैठी थी। चिन्तातुर लक्ष्मी सोच रही थी कि महाराज मेरे कारण ही कष्ट में हैं। फिर एक-एक करके वह अतीत की घटनाओं का स्मरण करती है। वह पति के रूप में वीर राणा को पाकर स्वयं को धन्य समझती है, जिन्होंने पराधीनता स्वीकार नहीं की और अब दिन-रात अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। भूखे-प्यासे रहकर और वन के कष्ट झेलकर भी उनके स्वाभिमान पर आँच भी नहीं आई। वह गर्वित होकर सोचती है कि राणा का प्रयास अवश्य सफल होगा और यदि हम् सफल नहीं हुए तो मृत्यु का वरण करेंगे। जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। इनके लिए सब कुछ न्योछावर करने वाले सदा-सदा के लिए अमर हो जाते है। इसी समय राणा के साथ दौलत वहाँ आ पहुँचती है। लक्ष्मी को चिन्तित और व्यथित देखकर वह कहती है- “माँ! किस चिन्ता में एकाकी बैठी हो तुम चुपचाप इधर ?
खोए-खोए से पिता अकेले सहते क्यों सन्ताप उधर ?
क्यों आज तुम्हारी आखों में फिर छलके अश्रु? बताओ माँ,
दुःख अपना दे दो मुझे, स्वयं को और न अधिक सताओ माँ।”
तब रानी कहती है कि दौलत तू भी. पगली है। बेटी माँ के दुःख क्यों झेलेगी? अभागिन तो मैं ही हूँ मेरे कारण ही आज हम सभी पर मुसीबतें आई हैं। रानी की यह बात सुनकर राणा रोष में आ जाते हैं। वह कहते हैं कि स्वयं को अभागिन क्या कहती हो। इन कष्टों को हमने स्वयं चुना है। हमें निराश होकर हार नही माननी है, वरन् उद्यमशील रहकर मेवाड़ को स्वतन्त्र कराना है। मैंने निश्चय कर लिया है कि अब हम अरावली छोड़कर सिन्धु देश से सैन्य-साधन जुटाएँगे और अकबर से अपना मेवाड़ छीन लेगे। अब हम निष्क्रिय नहीं बैठेंगे या तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे या स्वयं मिट जाएंगे।
राणा की यह बात सुनकर लक्ष्मी उत्साहित हो जाती है। वह पूछती है कि हमें कय प्रस्थान करना है? महाराणा कहते हैं कि हम कल ही प्रस्थान करेंगे और स्वतन्त्रता की खातिर नए अभियान का शुभारम्भ करेंगे।
इस सर्ग में राणा और उनकी पत्नी रानी लक्ष्मी के उच्च मानसिक बल का परिचय मिलता है। वे दोनो स्वतन्त्रता के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट सहने के लिए सहर्ष तैयार हैं।
षष्ठ सर्ग (पृथ्वीराज)
पष्ठ सर्ग में पृथ्वीराज को चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। रात बीत गई और सवेरा हुआ। प्रातःकाल के सूर्य की लालिमा चारों ओर फैल गई। पशु-पक्षी नवीन उत्साह के साथ अपने दैनिक क्रियाकलापों में जुट गए। राणा ने भी नवीन उत्साह के साथ संकल्प किया कि मेवाड़ की मुक्ति के लिए मैं जीवनभर संघर्षरत् रहूंगा। उन्होंने अपने सेवकों के सामने घोषणा की कि हमें शीघ्र ही मरुभूमि पार कर सिन्धु देश के लिए प्रस्थान करना है और वहां रहकर युद्ध के लिए साधन जुटाने है।
सभी यात्रा के प्रवन्ध की तैयारी करने में व्यस्त हो गए। यह सब देखकर रानी लक्ष्मी अति प्रसन्न थी। तभी राणा का अनुचर एक पत्र लेकर उपस्थित हुआ। पत्र पढ़कर राणा कुछ असमंजस में पड़ गए। फिर उन्होंने उसे पृथ्वीराज को बुला लाने के लिए कहा। उन्होंने रानी लक्ष्मी से कहा कि लगता है अकबर ने पृथ्वी से भी छल किया है। जाकर देखता हूँ कि अकबर का यह कवि-सखा क्या प्रस्ताव लेकर आया है।
राणा प्रताप को देखते ही पृथ्वीराज उनका अभिवादन करता है और उनकी प्रशंसा करते हुए कहता है कि आपके दर्शन करके मेरा जीवन धन्य हो गया है। हे रि गोदिया कुल भूषण ! राजपूतों की लाज केवल आप ही रख सकते है। हल्दीघाटी में आपके शौर्य को देखकर मातृभूमि का कण-कण आपका यशोगान कर रहा है। इस पर राणा कुछ रोप में कहते हैं कि जब राजपूतों का ध्वज झुका था. बप्पा रावल के कुल की मर्यादा पर आघात हुआ था, तव आपको इसका ध्यान नहीं रहा था?
क्या अकबर की मनसबदारी करके, उसकी यशगाथा गाकर राजपूतों के गौरव में वृद्धि हो रही थी? इस तरह इतने दिनों तक मातृभूमि की सेवा करके अब आपने मानसिंह का साथ क्यो छोड़ दिया? वह आगे कहते हैं-
“कैसे आज आपको सहसा याद हमारी आई? अहोभाग्य! इस अरावली ने नूतन गरिमा पाई। पर प्रताप है आज अकिचन, निस्सवल, निस्साधन, कैसे स्वागत करें? करें कैसे कृतज्ञता ज्ञापन?”
पृथ्वीराज, राणा की बात सुनकर उत्तर देता है कि आपने जो भी कहा वह सत्य है। मैं भ्रमवश दिल्लीश्वर को जगदीश्वर समझ बैठा था और उसकी दासता में गर्व अनुभव कर रहा था। स्वार्थ के वशीभूत होकर में अपना गौरव भुलाकर स्वयं को उसका दास कहलाने में गर्व करने लगा था. परन्तु सत्य तो यही है कि हमने राजपूतों की आन-बान और शान को कलंकित किया है। अकबर केवल आपको ही अपने जाल में न फँसा सका। आप राम के वंशज है, आप उन्हीं के समान मयांदा का पालन करने वाले है। आप मातृभूमि के सच्चे सपूत हैं।
अकबर का यह चारण अपने पाप धोने के लिए आपकी शरण में आया है। पृथ्वीराज का पश्चाताप देखकर राणा द्रवित होकर बोले, तुम्हारा पश्चाताप करना राजपूतों के लिए शुभ संकेत है, लेकिन ऐसी कौन-सी घटना घटी जिसके कारण तुमने अकबर का साथ छोड़ दिया। निर्भय होकर अपने मन को बात बताओ। पृथ्वीराज ने उनको बताया कि अकबर सत्ता के मद में चूर हो रहा है। उसने मेरे ही कुल को लाज को लूटना चाहा, जो मुझसे सहा नहीं गया। सच तो यहीं है कि हमने ही उसे इतना शक्तिशाली बना दिया है।
इस पर महाराणा प्रताप ने कहा कि जो होना था, सो हो चुका। अब आगे के लिए क्या विचार है? प्रतिशोध लेना है या यूँ ही पश्चाताप करना है? यह सुनकर पृथ्वीराज को मानो चेतना आई। उसने कहा-
“बोले, हां प्रतिशोध, मात्र प्रतिशोध लक्ष्य अब मेरा, उसके हित ही लगा रहा हूँ अरावली का फेरा।”
वह कहता है कि मेवाड़ मुक्त हो और अकबर का मनोरथ विफल हो, अब यही मेरा लक्ष्य है। राणा कहते हैं कि केवल मनोरथ करने से ही सफलता नहीं मिलती। कविवर । इस समय परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं। हम साधनहीन और असहाय है। इस प्रकार हम अकबर से टक्कर नहीं ले सकते। तब पृथ्वीराज उत्साह से भरकर कहता है कि यदि संकल्प और उद्देश्य महान् हो, तो साधन स्वयं ही जुट जाते है। भामाशाह आपकी सेवा में प्रस्तुत होना चाहते हैं। आप आज्ञा दे तो मैं उन्हें बुलाकर ले आऊँ।
सप्तम सर्ग (भामाशाह)
प्रस्तुत खण्ड में भामाशाह के योगदान का वर्णन किया गया है। पृथ्वीराज के जाने पर महाराणा प्रताप विचारों के सागर में डूब गए। वह सोचने लगे कि क्या इतिहास नया मोड़ लेने वाला है? तभी एकाएक मृगों का एक समूह उनके सामने से चौकड़ी भरते हुए निकल गया। वे सोचने लगे कि प्रकृति ने सभी को स्वतन्त्र बनाया है. फिर दूसरों को परतन्त्र बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। दूसरों का शोषण करना और उनको अपना दास बनाना दानवता है। वह आशा से भरकर कहते हैं कि मेवाड़ का भाग्य अवश्य जागेगा और वह स्वाधीन होगा। शायद इसलिए पृथ्वीराज यहाँ तक आए और भामाशाह का सन्देश मुझ तक लाए। तभी भामाशाह प्रस्तुत होते हैं-
“जय हो जननी जन्मभूमि की! एकलिंग की जय हो। जय हो सूर्यध्वज की। राणा का प्रताप अक्षय हो।”
यह सुनकर राणा चौक उठे और दुःखी होकर बोले- यहाँ राणा कौन है? यहाँ तो प्रताप अकेला निस्सहाय वन में घूम रहा है और चित्तौड़ पर तो सूर्यध्वज के स्थान पर अकबर का परचम फहरा रहा है, लेकिन मेरा संकल्प है कि मैं मातृभूमि को स्वतन्त्र कराकर रहूँगा और हम फिर वहीं निर्भय होकर निवास करेंगे। भामाशाह कहते हैं कि मेरा भी यही संकल्प है। आपके रहते हमारी मातृभूमि का शीश कदापि नहीं झुक सकता। मैं आपकी सेवा में साधन लेकर प्रस्तुत हुआ हूँ। आप सैन्य-संग्रह करके शत्रु को रण में परास्त करें। महाराणा प्रताप को भामाशाह से सहायता लेने में संकोच हुआ। वह बोले कि में उपहार स्वरूप कुछ नहीं ले सकता। हमारे पूर्वजों ने सदा दिया ही दिया है, लिया नहीं। अतः मैं स्वयं अपने बाहुबल से युद्ध के लिए साधन जुटाऊँगा। मैं अपने कुल की मर्यादा को कलंकित नहीं कर सकता।
इस पर भामाशाह विनीत होकर कहता है कि मेरे पिता-दादा ने यह जो सम्पत्ति संचित की है, यह आपके कुल के पूर्वजों की ही देन है। यह मेरा सौभाग्य होगा कि मैं आज आपके चरणों में यह सम्पत्ति अर्पित करके आपका ऋण चुका सकूँ। मेरे लिए यह देश-सेवा का महान् अवसर है। राणा फिर कहते हैं कि तुम बप्पा के कुल की मर्यादा भली-भांति जानते हो। राजवंश का दिया हुआ मैं वापस नहीं लूँगा। जब तक प्राण है, मैं देश की सेवा करूंगा।
इस पर भामाशाह ने कहा, देव! क्षमा करें, परन्तु देश-सेवा का अधिकार और कर्तव्य सभी का है। मातृभूमि का ऋण उतार सके, जो, वह धन कहीं नहीं है। यदि देश-हित में थोड़ी भी सहायता कर सका, तो मैं स्वयं को धन्य समझेंगा-
“यदि स्वदेश के मुक्ति-यज्ञ में यह आहुति दे पाऊँ, पितरों सहित, देव, निश्चय ही मैं कृतार्थ हो जाऊँ। यह कहते-कहते उनका स्वर हो आया अति कातर, साश्रु-नयन गिर पड़े दण्डवत् राणा के चरणों पर।”
राणा भामाशाह के निवेदन का उत्तर देने में सकुचा रहे थे। तभी कवि पृथ्वीराज बोल उठते हैं कि शौर्य और गरिमा का ऐसा संगम मिलना कठिन है। धन्य है मेवाड़ की धरती, जहाँ जीवन के उच्च आदर्श निभाए जाते हैं। भामाशाह से प्रभावित होकर राणा उसे उठाकर गले लगा लेते हैं और कहते हैं कि स्वदेश के लिए अपना सर्वस्व दान देने के लिए तुम्हें युग-युग तक याद किया जाएगा। अब मैं मेवाड़ को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा और यहाँ रहकर सैन्य बल एकत्र करूंगा। मेवाड़ अवश्य ही स्वतन्त्र होगा। जहाँ भामाशाह जैसे सपूत हों, वह देश अधिक समय तक गुलाम नहीं रह सकता। यहाँ इस खण्डकाव्य का अन्त होता है। इसमें एक ओर महाराणा प्रताप के उच्च मनोबल पर प्रकाश डाला गया है, तो दूसरी ओर भामाशाह के योगदान को रेखांकित किया गया है।
प्रश्न 2. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय क्या है? इसके रचना उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट कीजिए कि कवि अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल हुआ है?
उत्तर- कवि गंगारत्न पाण्डेय द्वारा रचित ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य में देशभक्ति की महान् भावना का निरूपण हुआ है। कवि ने यहाँ मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चरित्र पर प्रकाश डालकर उसे अपने काव्य का प्रतिपाद्य विषय बनाया है। महाराणा प्रताप उन ऐतिहासिक महापुरुषों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी स्वतन्त्रता और स्वाभिमानं की रक्षा हेतु अपना सर्वस्व वलिदान कर दिया था।
उन्होंने आजीवन अकबर की पराधीनता स्वीकार नहीं की। इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट भी सहने पड़े। यहाँ तक कि उन्हें अपनी पत्नी और बालक अमर सिंह के साथ वन में एकाकी जीवन बिताना पड़ा, जहाँ वे पर्याप्त भोजन भी नहीं जुटा पाते थे, परन्तु उन्होंने विषम परिस्थितियों का सामना करने पर भी हार नहीं मानी। इस खण्डकाव्य में कवि ने राणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन-चरित्र का वर्णन न करके उनके जीवन के एक छोटे से हिस्से को ही प्रस्तुत किया है। इस खण्डकाव्य का आरम्भ हल्दीघाटी में मिली पराजय के साथ होता है और अन्त भामाशाह के द्वारा दिए गए दान के साथ होता है।
कवि ने महाराणा प्रताप के जीवन के केवल उस अंश को काव्यबद्ध किया है, जो उनके जीवन का सबसे कठिन समय था। उसका मार्मिक चित्रण करके कवि ने पाठकों को झकझोर दिया है। इस खण्डकाव्य के माध्यम से कवि अपने पाठकों को स्वतन्त्रता का महत्त्व समझाना चाहता है। उसके लिए देशहित से बढ़कर कुछ नहीं है। उसका उद्देश्य आज के आधुनिक समाज में देशहित को सवर्वोपरि समझते हुए उसके लिए सर्वस्व त्याग एवं बलिदान की भावना जगाना है।
इस खण्डकाव्य में विभिन्न स्थानों पर स्वदेश-प्रेम की उत्कट भावना एवं उसके लिए संघर्ष का प्रण व्यक्त हुआ है, जिससे पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। अतः खण्डकाव्य की उद्देश्य-पूर्ति में कवि को पूरी सफलता मिली है। ध्यान रहे कि महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के मध्य लड़ाई कोई साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं था, वरन् अपने-अपने आदर्शों की रक्षा हेतु किया गया संघर्ष था। कवि ने इस खण्डकाव्य के नायक महाराणा प्रताप को ‘मेवाड़ मुकुट’ कहकर सम्बोधित किया है। मुकुट, व्यक्ति अथवा राष्ट्र के मान-सम्मान का प्रतीक होता है, उसकी आन-बान-शान का द्योतक होता है।
महाराणा प्रताप को ‘मेवाड़ मुकुट’ कहना उचित ही है, क्योंकि वह अपनी मातृभूमि मेवाड़ के लिए अन्त तक संघर्षशील रहे। सभी राजपूत राजा एक-एक करके अकबर की पराधीनता स्वीकार कर रहे थे, परन्तु केवल महाराणा प्रताप ने ही यह स्वीकार नहीं किया। वे वास्तव में मेवाड़ की गौरवशाली परम्परा के रक्षक थे। उन्होंने अपनी मातृभूमि का शीश झुकने नहीं दिया।
अतः इस खण्डकाव्य के लिए निर्धारित किया गया शीर्षक ‘मेवाड़ मुकुट’ पूरी तरह उपयुक्त एवं सार्थक है। इस खण्डकाव्य के लिए इससे उपयुक्त अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता था। इस खण्डकाव्य का दूसरा प्रमुख पात्र ‘भामाशाह’ भी प्रेरणादायी है, जिन्होंने संकट के समय अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति उपहारस्वरूप महाराणा को समर्पित कर दी। आज धन के लिए जहाँ भाई-भाई आपस में संघर्ष कर रहे हैं, लड़-मर रहे हैं, वहाँ भामाशाह का चरित्र सभी के लिए प्रेरणादायी है।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 3. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के किसी एक पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – कवि गंगारत्न पाण्डेय द्वारा रचित ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य महाराणा प्रताप को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। वही इस खण्डकाव्य के नायक हैं। उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- मातृभूमि के रक्षक महाराणा प्रताप को अपनी मातृभूमि मेवाड़ से बहुत प्यार है। वह उसकी रक्षा के लिए हल्दीघाटी का युद्ध करते हैं। इस युद्ध में वह परास्त होते हैं, परन्तु वह पुनः अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु तत्पर हो जाते हैं और सैन्य-बल जुटाने के लिए प्रयासरत होते हैं। वह अपनी अन्तिम साँस तक मातृभूमि के लिए लड़ते रहते हैं। अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराना ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य है।
- शरणागतवत्सल राणा प्रताप शरणागतवत्सल है। यह उनके कुल की गरिमा के अनुकूल है। वह अपने शत्रु अकबर की पुत्री दौलत को शरण देते हैं तथा उसे अपनी पुत्री के समान स्नेह करते हैं। इस सम्बन्ध में कवि ने कहा है-
“अरि की कन्या को भी उसने, रख पुत्रीवत वन में। एक नया आदर्श प्रतिष्ठित, किया वीर जीवन में।।”.
- स्नेहमयी पिता राणा प्रताप स्नेहमस्री पिता हैं। अपने बच्चों को भूख से व्याकुल देखकर उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती है। स्वयं दौलत उनकी प्रशंसा में कहती है-
“सचमुच ये कितने महान् हैं. कितने गौरवशाली। इनको पिता बनाकर मैने, बहुत बड़ी निधि पा ली।।”
- दृढ़-संकल्पी एवं स्वप्नदृष्टा महाराणा प्रताप महान् स्वप्नदृष्टा थे और अपने सपनों को साकार करने हेतु दृढ़ संकल्पी भी थे। उनका एक ही स्वप्न था-मेवाड़ की स्वतन्त्रता। अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया। उनके बारे में कवि गंगारत्न पाण्डेय ने इस खण्डकाव्य की भूमिका में लिखा है “राणा प्रताप कोरे स्वप्नदशों नहीं है। ऊंची-ऊँची कामनाएं और महत्त्वाकांक्षाएँ पालना एक बात है, उन महत्त्वाकांक्षाओं को सफल करने के लिए सुविचारित कदम उठाना बिलकुल अलग बात है। स्वप्नदशीं कोई भी हो सकता है। अपने सपनों को साकार रूप दे सकने वाले विरले ही होते हैं. क्योकि इसके लिए जिस त्याग, साहस, शौर्य और धैर्य की आवश्यकता होती है, वह सर्वसुलभ नहीं है।”
- महापराक्रमी एवं स्वाभिमानी महाराणा प्रताप परर्म वीर और महापराक्रमी हैं। चेतक पर चढ़कर जब राणा युद्ध के लिए सज्ज (तैयार) होते थे, तो उनके वीरतापूर्ण स्वरूप पर आँखे ठहर जाती थीं। शत्रु भी उनके पराक्रम और शौर्य की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते। उनमें स्वाभिमान की भावना भी बहुत प्रबल ‘थी, इसलिए वह राज्य छिन जाने पर भी अकबर की दासता स्वीकार नहीं करते। स्वाभिमान की रक्षा हेतु वह भामाशाह के प्रस्ताव को भी प्रथम बार अस्वीकार कर देते हैं। विषम परिस्थितियाँ भी उनके स्वाभिमान को हिला नहीं पातीं।
- स्वाधीनता पूजक महाराणा प्रताप स्वाधीनता के रक्षक एवं पूजक हैं। जब सारे राजपूत राजा एक-एक करके अकबर की दासता स्वीकार कर रहे थे, तब उन्होंने राजपूतों को उनको गौरवशाली मर्यादा एवं परम्परा का अहसास कराया। उन्होंने अन्त तक अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और जीवन भर उससे लोहा लिया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाराणा एक असाधारण युग-पुरुष थे, जिनसे युगों-युगों तक स्वाभिमान, स्वाधीनता एवं आत्मगौरव के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रेरणा मिलती रहेगी।
प्रश्न 4. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर– कवि गंगारत्न पाण्डेय द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘मेवाड़ मुकुट’ में नायक महाराणा प्रताप के बाद सबसे प्रमुख पात्र भामाशाह ही हैं। भामाशाह मेवाड़ के एक बहुत धनी सेठ थे, जिन्होंने महाराणा की उस समय सहायता की थी, जब वे साधनहीन होकर विवशता में मेवाड़ को छोड़कर सिन्धु देश जाने का मन बना चुके थे। उन्होंने मेवाड़ की रक्षा हेतु अपनी सारी सम्पत्ति राणा प्रताप को दे दी थी। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- परम दानवीर भामाशाह अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए महाराणा प्रताप को सहर्ष अपनी सारी सम्पत्ति उपहार स्वरूप दे देते हैं। वे अपने पूर्वजो द्वारा संगृहीत सम्पत्ति को दान में देने से जरा-सा भी संकोच नहीं करते। कवि पृथ्वीराज ने उनकी प्रशंसा में कहा है-
धन्य स्वदेश-प्रेम भामा का! धन्य त्याग यह अक्षर !
” शिव-दधीचि की गरिमा पा ली, तुमने सब-कुछ देकर।”
- स्वदेश-प्रेमी केवल देश के लिए लड़ने वाले सैनिक ही देशभक्त नहीं होते, वरन् किसी भी रूप में देश की सेवा करने वाला भी देशभक्त होता है। भामाशाह ने यह सिद्ध कर दिखाया है। मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम होने के कारण ही उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दी। उनका मानना है कि देश के प्रति सभी को अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। वह कहते है- “उसके ऋण से उऋण करे जो वह धन, देव कहाँ है?
तन-मन-धन-जीवन सब उसका, अपना कुछ न यहाँ है। अतः विनय है देव, कृपा की कोर करें सेवक पर, धन्य बनूँ मैं भी स्वदेश की थोड़ी-सी सेवा कर।”
- कर्त्तव्यनिष्ठ भामाशाह का चरित्र एक कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का है। वे देश के प्रति अपने कर्त्तव्य का भली-भाँति पालन करते हैं-
“यदि स्वदेश के मुक्ति-यज्ञ में यह आहुति दे पाऊँ, पितरों सहित देव, निश्चय ही मैं कृतार्थ हो जाऊँ।”
- विनम्र भामाशाह का स्वभाव अत्यन्त विनम्र है, साथ ही वह शिष्टाचारी भी है। महाराणा प्रताप एक बार तो उनकी सहायता लेने से इनकार कर देते हैं, परन्तु वे अति विनम्र होकर महाराणा को अपना प्रस्ताव स्वीकार करने पर विवश कर देते हैं-
“यह कहते-कहते उनका स्वर हो आया अति कातर, साश्रु-नयन गिर पड़े दण्डवत् राणा के चरणों।”
- अपने राजा के प्रति निष्ठावान भामाशाह अपने राजा महाराणा प्रताप के प्रति सच्ची निष्ठा रखते हैं। उन्होंने संकट के समय अपने राजा की यथासम्भव मदद करके इसका परिचय दिया। वह न केवल आर्थिक रूप से राणा की सहायता करते हैं, बल्कि उन्हें मानसिक बल भी देते हैं। वे राणा को प्रेरणा देते हुए कहते है-
“अविजित है, विजयी भी होंगे, देव, शीघ्र निःसंशय। मातृभूमि होगी स्वतन्त्र फिर, हम होंगे फिर निर्भय।।”
अपने उपरोक्त गुणों के कारण भामाशाह का चरित्र अनुकरणीय है। उनका चरित्र आज भी उतना ही प्रासंगिक एवं प्रेरणादायी है। आज चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकारी अफसर देशसेवा की आड़ में अपने हितों की पूर्ति कर रहे हैं। आज भामाशाह जैसे दानवीरों का अकाल पड़ गया है। निश्चय ही वह एक आदर्श ऐतिहासिक पात्र हैं।
प्रश्न 5. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर किसी नारी-पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर– लक्ष्मी महाराणा प्रताप की अर्द्धांगिनी है, जो उनके साथ कष्ट सहते हुए वन-वन भटक रही हैं।
रानी लक्ष्मी की चारित्रिक विशेषताएँ
महाराणा प्रताप की सहधर्मिणी रानी लक्ष्मी की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- विचारशील रानी होकर भी सपरिवार वन-वन भटकना पड़ रहा है, इस
तथ्य पर विचार करती हुई वह सोचती हैं कि शायद यही विधाता की लीला है। पर, क्या इसे विधाता की क्रूरता नहीं मानना चाहिए। वह सोचती हैं “कैसा यह अन्याय है, विधाता ! कैसा तेरा कुटिल विधान। रोना भी दुर्लभ है जिसमें, हे परमेश्वर हे भगवान।।”
- भाग्यवादिनी रानी लक्ष्मी भाग्य में विश्वास करती हैं। वह अपने शिशु को गोद में लिए सोचती हैं कि जिसे राजभवन में होना चाहिए था, वह माता के भूखी होने के कारण माँ का दूध पीने को भी तरस रहा है। वह कहती हैं
“बड़ी साध से राजभवन में, यह पाला जाता सुकुमार।
किन्तु भाग्य में विजन लिख दिया, यह कैसी लीला कर्तार।।”
- कर्मवाद में आस्था हिन्दू-दर्शन कर्मवाद में आस्था रखता है। रानी लक्ष्मी को भी लगता है कि वह जो कुछ भी भोग रही हैं, वह कर्म का परिणाम है। वह कहती है-
“कर्म-योग आदर्श मात्र है, कर्म-योग सच्चा दर्शन।”
- स्वाभिमानिनी भीषण कष्ट सहकर भी रानी लक्ष्मी सन्तुष्ट हैं। उन्हें इस बात का अभिमान है कि भले ही सब-कुछ गवाँ दिया, पर राष्ट्र का गौरव बचा रहा। वह कहती है-
“स्वाभिमान सद्धर्म देश को बेच दासता का जीवन। नहीं किया स्वीकार, इसी से मिला उन्हें है निर्जन बन।।”
- वात्सल्यमयी रानी लक्ष्मी को अपने शिशु अमरसिंह से ही नहीं, दौलत (धर्मपुत्री) से भी स्नेह है। वह बच्चों को भूखा देखकर व्यथित होकर कहती हैं-
“होती यदि मैं निपट अकेली, निराहार रह जाती। किन्तु अमर, दौलत की, उनकी भूख नहीं सह पाती।।”
- आत्मविश्वासी एक सद्गृहिणी के रूप में लक्ष्मी की चिन्ता स्वाभाविक ही है कि उसके रहते पति और पुत्रादि भूखे रहें। पर, उसे विश्वास है कि यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहेगी। मेवाड़ स्वतन्त्र होगा और यह दुःखों का सागर भी समाप्त हो जाएगा। वह बड़े विश्वास से कहती हैं कि जो भी होना हो, हो जाए, पर मैं झुकूंगी नहीं। कवि के शब्दों में देखिए-
“मुखरित हुए विचार, कहा-रानी ने स्वर ऊँचा कर। हमको नहीं डुबा पाएगा यह कष्टों का सागर।।”
निष्कर्ष ‘मेवाड़ मुकुट’ की लक्ष्मी एक स्नेहमयी माँ और सद्गृहिणी हैं। भीषण कष्टों में रहकर भी उसे अपने पति महाराणा प्रताप और उनके स्वातन्त्र्य-संघर्ष में अपार आस्था है। उनका मानना है कि मेवाड़ अवश्य ही स्वतन्त्र होगा।
प्रश्न 6. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर ‘दौलत’ का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर ‘दौलत’ की चारित्रिक विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
उत्तर – दौलत अकबर की पुत्री है, जो झूठे, दम्भी, भोग विषयक राजसुखों से घृणा करती है। इस कारण वह राजमहल को छोड़कर महाराणा प्रताप के पास चली आती है, जिसे राणा प्रताप अपनी धर्मपुत्री बना लेते हैं। प्रस्तुत खण्डकाव्य के अध्ययन के उपरान्त हम उसके चरित्र का चित्रण इस प्रकार कर सकते हैं-
- भोगी जीवन से घृणा दौलत अपने पिता अकबर के भोग-विलास युक्त जीवन से घृणा करती है। वह मानती है कि आगरा का राजमहल वैभव, भोग और रंगरलियों के कारण दूषित है। वहाँ छल-कपट, द्वेष, दम्भ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। पारस्परिक स्नेह न होने के कारण वहाँ सभी एक-दूसरे के प्रति षड्यन्त्ररत् रहते हैं। इन सभी कारणों से वह राजमहल का जीवन त्याग देती है और राणा प्रताप के पास आकर उनका स्नेह पाने से शान्ति का अनुभव करती है।
- प्रकृति प्रेमी दौलत को प्राकृतिक सुन्दरता विशेष रूप से पसन्द है। उसे वन्य-जीवन का एकान्त वातावरण लुभाता है। वह वन में अपार सुख-शान्ति का अनुभव करती है।
- महाराणा प्रताप के प्रति श्रद्धा हालाँकि दौलत राणा के शत्रु की पुत्री है, फिर भी राणा उसे पुत्री का प्रेम देते हैं। वे अपने पुत्र अमर और दौलत में कोई भेदभाव नहीं रखते। उन्होंने अपने हृदय में यह बात कभी नहीं आने दी कि दौलत उनके चिर शत्रु अकबर की पुत्री है। इन सबके कारण दौलत के हृदय में राणा प्रताप के प्रति अगाध श्रद्धा है और वह उन्हें अपना पिता मानती है।
- रानी लक्ष्मी के प्रति प्रेम दौलत रानी लक्ष्मी से प्रेम करती है। वह उन्हें अपनी माता मानती है। लक्ष्मी को चिन्तित देखकर वह कहती है-
“माँ किस चिन्ता में एकाकी बैठी हो तुम चुपचाप इधर ? खोए-खोए से पिता अकेले सहते क्यों सन्ताप उधर ? क्यों आज तुम्हारी आँखों में फिर छलके अश्रु? बताओ माँ, दुःख अपना दे दो मुझे, स्वयं को और न अधिक सताओ माँ।”
- शक्तिसिंह के लिए प्रेम दौलत राणा प्रताप के अनुज शक्तिसिंह से प्रेम करती है। इसलिए वह वन में आई है। वह जानती है कि शक्तिसिंह कायर पुरुष है, लेकिन फिर भी वह उसके रूप पर मुग्ध है। वह चाहती थी कि राणा से इस विषय में बात करे, लेकिन राणा जी पहले से ही चिन्ता में रहते हैं, इस कारण वह उनसे इस विषय में बात नहीं कर पाती।
अतः दौलत में नार्योचित गुण होते हुए भी वह प्रकृति प्रेमी व त्यागी है और उसमें अच्छे व्यक्तित्व को पहचानने के उत्कर्ष गुण भी हैं।