ममता – जयशंकर प्रसाद
गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर-
गद्यांश 1-
रोहतास दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, सोन नदी के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन सोन नदी के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिए, वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मन्त्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था? V Imp (2022, 14, 12, 10)
प्रश्न–
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) उपरोक्त गद्यांश में हिन्दू-विधवा की स्थिति कैसी बताई गई है?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ– प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित ‘ममता‘ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक ‘जयशंकर प्रसाद‘ हैं।
- (ख) जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि रोहतास दुर्ग (राजप्रासाद) के मुख्य द्वार के पास अपने कक्ष में बैठी हुई ममता सोन नदी के तेज बहाव को देख रही है। लेखक ममता के यौवन और सोन नदी के प्रबल वेग से प्रवाहित होने की तुलना करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सोन नदी अपने तेज बहाव से उफनती हुई बह रही है, उसी प्रकार ममता का यौवन भी पूर्ण रूप से अपने उफान पर है। ममता रोहतास दुर्गपति के मन्त्री की इकलौती पुत्री है, जोकि बाल-विधवा है। रोहतास दुर्गपति के मन्त्री की पुत्री होने के कारण ममता सभी प्रकार के भौतिक सुख-साधनों से सम्पन्न है, परन्तु वह विधवा जीवन के कटु सत्य को अभिशाप रूप में झेलने के लिए विवश है। उसके मन-मस्तिष्क में दुःख रूपी आँधी तथा आँखों से आँसू बह रहे हैं। उसका मन भिन्न-भिन्न प्रकार के विचारों और भावों की आँधी से भरा हुआ है।
- उसकी स्थिति काँटों की शय्या पर सोने वाले व्याकुल व्यक्ति के समान है अर्थात् जिस प्रकार काँटों की शय्या पर सोने वाला व्यक्ति हर समय व्याकुल रहता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के भौतिक सुख-साधनों से परिपूर्ण होते हुए भी ममता का जीवन दुःखदायी प्रतीत होता है। बाल्यावस्था में ही विधवा हो जाने के कारण ही ममता की स्थिति दयनीय हो गई थी। हिन्दू समाज में विधवा स्त्रियों को संसार का सबसे तुच्छ प्राणी माना जाता है। प्रत्येक विधवा स्त्री को विभिन्न प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं तथा समाज में अनेक प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ता है। विधवा का जीवन स्वयं विधवा के लिए भार-सा बन जाता है। ममता भी एक ऐसी ही स्त्री थी, जो सभी प्रकार के भौतिक साधन होते हुए भी असहाय और दयनीय स्थिति का सामना कर रही थी। वह अपने बाल-विधवा जीवन के भार को ढो रही थी, जिससे छुटकारा पाने का हिन्दू समाज में कोई विकल्प ही नहीं है।
- (ग) उपरोक्त गद्यांश में हिन्दू-विधवा की स्थिति को दयनीय, शोचनीय, तुच्छ और उस प्राणी के समान बताया गया है, जिसे कोई आश्रय नहीं देना चाहता है। वह तरह-तरह के दुःख सहने के लिए विवश होती है।
गद्यांश 2–
“हे भगवान । तब के लिए। विपद के लिए! इतना आयोजन ! परमपिता की इच्छा के विरुद्ध इतुना साहस ! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असम्भव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं काँप रही हूँ इसकी चमक आँखों को अन्धा बना रही है।” Imp (2020, 19, 13)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) इस गद्यांश में ममता की किस मनोवृत्ति को स्पष्ट किया गया है?
उत्तर–
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित ‘ममता’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ हैं।
- (ख) जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि चाँदी के दस थालों में लाए गए ढेर सारे सोने को देखकर ममता चकित होकर अपने पिता से कहती है कि हे भगवान ! उस समय के लिए जब आपका मन्त्रित्व न रहेगा, उन विपदा भरे दिनों के लिए इतना सारा आयोजन अभी से ही, यह अच्छा नहीं है। रिश्वत में लिया गया इतना सारा सोना लेकर आपने ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कार्य और उसका अपमान किया है। यदि ईश्वर की इच्छा से हमें दुःख मिलने वाला है, तो हमें उसे सहने के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। पिताजी ! मन्त्रित्व न रहने पर भी हमें पेट भरने के लिए कम-से-कम भीख तो मिल ही जाएगी। इस रिश्वत की अपेक्षा तो भीख माँगकर जीवित रहना अधिक उचित है। इस पृथ्वी पर उस समय भी बहुत से हिन्दू ऐसे होंगे, जो हम ब्राह्मणों को दो मुट्ठी अनाज भीख में दे देंगे।
- पिताजी, इस रिश्वत के सोने को वापस कर दीजिए। इनकी चमक मेरी आँखों को कष्ट दे रही है। मैं आपके ऐसे ईश्वर विरुद्ध कार्य से कॉप रही हैं।
- (ग) ममता बाल-विधवा थी, जो ब्राह्मण जाति से सम्बन्ध रखती थी। ईश्वर और भाग्य में उसकी प्रबल आस्था थी। वह सुख-दुःख दोनों को ही ईश्वर की इच्छा मानती थी। आने वाले कुसमय के लिए रिश्वत के रूप में धन एकत्र करने को वह ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध मानती थी। इस प्रकार गद्यांश में ममता की भाग्यवादी, करुणामयी, निर्लोभी तथा ईश्वरवादी मनोवृत्ति को स्पष्ट किया गया है।
गद्यांश 3–
काशी के उत्तर में धर्मचक्र विहार मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति का खण्डहर था। भग्न चूड़ा, तृण गुल्मों से ढके हुए प्राचीन, ईंटों के ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म की चन्द्रिका में अपने को शीतल कर रही थी। जहाँ पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्तूप के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोंपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी
“अनन्याश्चिन्तयन्तो मा ये जनाः पर्युपासते-” (2023, 11)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) धर्मचक्र कहाँ स्थित था?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित ‘ममता’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ हैं।
- (ख) प्रसाद जी कहते हैं कि काशी के उत्तर में अनेक बौद्ध स्मारक हैं। इन स्मारकों को मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की शान बढ़ाने के लिए बनवाया गया था।
- ये स्मारक अब टूट-फूट चुके हैं। इनकी टूटी-फूटी चोटियाँ, दीवारें, कंगूरे खण्डहर बन गए हैं। इन पर झाड़ियाँ उग आई हैं, पत्ते बिखरे हैं। इन खण्डहरों को देखकर ऐसा लगता है मानो ईंट के ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्पकला की आत्मा ग्रीष्म ऋतु की चाँदनी से स्वयं को शीतलता प्रदान कर रही थी।
- (ग) धर्मचक्न काशी नगर के उत्तर में स्थित है, जिसे भगवान गौतम बुद्ध ने सारनाथ नामक स्थान पर स्थापित किया था।
गद्यांश 4–
अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुककर कहा- “मैं नहीं जानती कि वह शहंशाह था या साधारण मुगलः पर एक दिन इसी झोंपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था। मैं आजीवन अपनी झोंपड़ी खो जाने के डर से भयभीत रही। भगवान ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूँ। अब तुम इसका मकान बनाओ या महल मैं अपने चिर-विश्राम-गृह में जाती हूँ।” V Imp (2023, 19, 12, 10)
प्रश्न-
- (क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) वह आजीवन क्यों भयभीत रही?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित ‘ममता’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ हैं।
- (ख) प्रसाद जी कहते हैं कि मरणासन्न पड़ी ममता ने अश्वारोही सैनिक को अपने पास बुलाया और कहा कि किसी समय इस झोंपड़ी में रात बिताने वाले व्यक्ति ने एक सैनिक को यहाँ घर बनवाने के लिए कहा था। मैं इस झोंपड़ी को खोने के भय से पूरी ज़िन्दगी डरती रही, क्योंकि इस झोंपड़ी के साथ उसके जीवन की बहुत-सी यादें जुड़ी हुई थीं। मैं जब तक ज़िन्दा रही, तब तक ईश्वर ने इसे बचाए रखने की मेरी प्रार्थना सुन ली। अब मैं यह दुनिया छोड़कर जा रही हूँ। अब तुम चाहे मकान बनवाओ या महल। मैं तो मृत्यु की गोद में चिर-विश्राम करने जा रही हूँ, जहाँ मुझे अनन्त काल तक विश्राम मिलेगा।
- (ग) ममता आजीवन इसलिए भयभीत रही, क्योंकि पता नहीं कब उसकी झोंपड़ी को गिराकर महल बनाने का आदेश दे दिया जाए और उसके सामने रहने की समस्या आ जाए। वह जीवनभर अपनी झोंपड़ी छोड़ना नहीं चाहते थी।