कहानी के तत्त्व
कहानी के तत्त्वों के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों ने कहानी के पाँच तत्त्व स्वीकार किए हैं, कुछ के अनुसार छह तत्त्व होने चाहिए और कुछ के अनुसार इनकी संख्या आठ होनी बताई गई है। मुख्य रूप से कहानी के छह तत्त्व स्वीकार किए जा सकते है, शेष तत्त्वों का समावेश भी इन्हीं के अन्तर्गत हो जाता है।
कहानी के ये छह तत्त्व इस प्रकार हैं-
- कथावस्तु अथवा कथानक,
- पात्र और चरित्र-चित्रण,
- संवाद अथवा कथोपकथन,
- भाषा- शैली,
- देश-काल और वातावरण,
- उद्देश्य।
कुछ विद्वानों ने कहानी के शीर्षक को भी एक पृथक् तत्त्व माना है, किन्तु हमारे विचार से शीर्षक, कथानक का ही एक अंग है, कहानी के उपर्युक्त प्रमुख तत्त्वों का विवेचन इस प्रकार है
कथावस्तु-
जिस घटनाक्रम या कथा के आधार पर कहानी की रचना की जाती है, उसे उस कहानी की कथावस्तु कहा जाता है। कथावस्तु की श्रेष्ठता का आधार उसके – (i) संक्षिप्तता, (ii) सरलता, (iii) सरसता, (iv) गठन सम्बन्धी सुसम्बद्धता, (v) जिज्ञासामूलकता, (vi) प्रभावोत्पादकता, (vii) शीर्षक आदि गुणों को बताया जाता है। कथावस्तु की श्रेष्ठता सम्पूर्ण कहानी को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती है। इसके अतिरिक्त कहानी का उपयुक्त शीर्षक भी कथावस्तु के प्रभाव एवं उद्देश्य पर प्रकाश डालता है।
किसी कहानी के विकासक्रम के चार आधार सुनिश्चित किए गए हैं- (i) आरम्भ, (ii) मध्य, (iii) चरम सीमा, (iv) कहानी का अन्त। विकासक्रम की सुसम्बद्धता ही कहानी का सुसंगठन कहलाती है।
कहानियों की कथावस्तु को कहानी कला के अनुसार चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। ये वर्ग हैं- (i) घटनाप्रधान कथावस्तु, (ii) चरित्रप्रधान कथावस्तु, (iii) भावप्रधान कथावस्तु, (iv) वातावरण या दृश्यप्रधान कथावस्तु।
पात्र और चरित्र-चित्रण-
कहानी की रचना पात्रों, उनके जीवन की घटनाओं, उनके विचारों और भावनाओं आदि के आधार पर की जाती है। कहानी का आकार छोटा होता है, इसलिए उसमें पात्रों की संख्या अधिक नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही कहानीकार को विभिन्न पात्रों की स्थिति के अनुसार उनकी चारित्रिक विशेषताओं के विकास का भी ध्यान रखना चाहिए। कहानी के पात्रों को उनको स्थिति के अनुसार निम्नलिखित रूपों में भी वर्गीकृत किया जा सकता है-
- मुख्य पात्र और गौण पात्र।
- स्थिर पात्र और गतिशील पात्र।
- ऐतिहासिक पात्र और काल्पनिक पात्र।
- व्यक्ति पात्र और वर्ग पात्र।
संवाद अथवा कथोपकथन-
कहानी के पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप को कथोपकथन या संवाद की संज्ञा दी जाती है, कहानी के संवाद संक्षिप्त, सरस गतिपूर्ण तथा पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उदघाटन करनेवाले होने चाहिए। स्वगत और लम्बे संवाद, कहानी के लघु कलेवर के लिए उचित नहीं होते।
भाषा शैली –
भाषा हमारी अभिव्यक्ति का सर्वप्रमुख माध्यम है। भाषा के अभाव में कहानी की रचना कर पाना असम्भव है। कहानीकार को कहानी में देश-काल, पात्र और परिस्थिति के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग करना चाहिए। कहानी को सार्वजनिक बनाने के लिए भाषा का जन-सामान्य की समझ में आने योग्य होना आवश्यक है लोक– प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियाँ भाषा की अभिव्यंजना, शक्ति को बढ़ाते हैं। अत: इन्हें कहानी की भाषा में उचित स्थान मिलना चाहिए। अभिव्यक्ति को सहज और स्वाभाविक बनाने के लिए लोक-प्रचलित शब्दों को भी कहानी की भाषा में स्थान दिया जा सकता है।
किसी भी रचना को शैली रचनाकार के व्यक्तित्व के अनुरूप होती है। अतः इस संसार में जितने भी कहानीकार हैं, स्वाभाविक रूप से उतनी ही शैलियाँ भी होंगी; क्योंकि एक व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के समान कभी नहीं हो सकता।
देश-काल और वातावरण-
व्यक्ति-विशेष और घटना-विशेष कहानी में वर्णित काल से सम्बन्धित होते हैं। कहानी में जब किसी पात्र अथवा घटना का चित्रण; देश और काल के आधार पर किया जाता है तभी वह प्रभावकारी बन पाती है। इसलिए कथानक तथा उसमें निहित मूल संवेदना का उसके घटनाक्रम से सम्बन्धित काल की सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि परिस्थितियों से सम्बद्ध होना अनिवार्य है। निष्कर्षतः कहानी देश-काल की परिस्थितियों की पृष्ठभूमि के आधार पर ही पाठकों पर अपना अभीष्ट प्रभाव छोड़ने में सक्षम हो सकती है। यद्यपि कहानी में कहानीकार को इतनी सुविधा प्राप्त नहीं होती कि वह लम्बी-चौड़ी भूमिका या पृष्ठभूमि के माध्यम से वातावरण का यथावत् चित्र प्रस्तुत कर सके, तथापि वह अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न करने के लिए समुचित वातावरण की सृष्टि करता है।
उद्देश्य-
मनुष्य का कोई भी कार्य निष्प्रयोजन नहीं होता। प्रत्येक कार्य के पीछे उसका कोई-न-कोई उद्देश्य निहित रहता है। कहानीकार भी कहानी की रचना किसी उद्देश्य को दृष्टि में रखकर ही करता है। ये उद्देश्प कहानीकार के व्यक्तित्व और रुचि के अनुरूप होते हैं। कभी वह मनोरंजन के लिए कहानी की रचना करता है तो कभी लोकमंगल की साधना के लिए; कभी किसी सामाजिक विकृति के निराकरण के लिए तो कभी किसी दार्शनिक गुत्थी को सुलझाने के लिए। तात्पर्य यह है कि कहानीकार अपनी रुचि और ज्ञान के अनुरूप पहले एक विषय और उद्देश्य का चयन करता है, तत्पश्चात् अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह अन्य उपकरण खोज लेता है।
एक उत्तम कहानी के तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
कहानी के प्रमुख तत्त्वों का उल्लेख कीजिए तथा कथोपकथन को संक्षेप में सोदाहरण समझाइए।