महादेवी वर्मा का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ
पद्यांश 1-
टूटी है तेरी कब समाधि,
झंझा लौटे शत हार-हार;
सबह चला दृगों से किन्तु नीर !
सुनकर जलते कण की पुकार !
सुख से विरक्त दुःख में समान !
शब्दार्थ-समाधि-तपस्वी, झंझा-आँधी; शत-सौ; दृगों-आँखों, नीर-पानी; जलंते कण की पुकार-धूप से तप्त धूल कणों की व्यथा; विरक्त-वैरागी।
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड के ‘हिमालय’ से शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘सान्ध्य गीत’ से
लिया गया है।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने हिमालय की दृढ़ता का वर्णन किया है, साथ ही उसके प्रति अपनी भावात्मक अनुभूति का वर्णन किया है।
व्याख्या- कवयित्री कहती है कि हे हिमालय ! तुम तो एक तपस्वी की भाँति समाधि लगाकर बैठे हो। तुम्हारी यह समाधि कब टूटी है? आँधी के सैकड़ों झटके तुम्हें लगे, पर वे तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सके। तुम विचलित नहीं हुए। वे स्वयं ही हार मान कर चले गए।
एक ओर तो तुम्हारे अन्दर इतनी दृढ़ता एवं कठोरता है कि कोई भी बाधा तुम्हारे मार्ग की रुकावट नहीं बन सकती और दूसरी ओर तुम इतने सहृदय और भावुक हो कि धूप में जलते हुए कण की पुकार सुनकर तुम्हारे नेत्रों से आँसुओं की धारा फूट पड़ती है। तुम किसी का दुःख नहीं देख सकते। तुम तो एक योगी हो जो सुख से विरक्त रहते हो अर्थात् सुख की कामना नहीं करते। तुम तो सुख और दुःख में समान भाव से स्थित रहते हो और यही भावना तुम्हारी उच्चता की प्रतीक है।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पंक्तियों में हिमालय का मानवीकरण किया गया है। उसे सुख और दुःख में समान रहने वाले योगी के समान बताया है।
- भाषा- खड़ी-बोली हिन्दी
- शैली- गीति
- गुण- माधुर्य
- रस- शान्त
- छन्द- अतुकान्त-मुक्त
- शब्द-शक्ति- लक्षणा
- अलंकार
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार- ‘हार-हार’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
- मानवीकरण अलंकार– इस पद्यांश में ‘समाधि’ शब्द में मानवरूपी प्रस्तुति की गई है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
पद्यांश 2-
मेरे जीवन का आज मूक,
तेरी छाया से हो मिलाप,
तन तेरी साधकता छू ले,
मन ले करुणा की थाह नाप !
उर में पावस दृग में विहान !
शब्दार्थ-मूक-चुप्पी, मिलाप मिलना; साधकता-साधना; थाह-गहराई, उर-हृदय; पावस-वर्षा; दृग-नेत्र विहान प्रातःकाल का सौन्दर्य।
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड के ‘हिमालय’ से शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘सान्ध्य गीत’ से
लिया गया है।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री हिमालय को देखकर उसके गुणों को अपने मन में सहेजने की कामना करती है।
व्याख्या-महादेवी जी कहती हैं कि मैं तो यह कामना करती हूँ कि मैं अपने जीवन के मौन को तुम्हारी छाया में मिला दूँ अर्थात् वह हिमालय के गुणों को अपने आचरण में उतारना चाहती है। वह कामना करती हुई कहती है कि मेरा शरीर भी तुम्हारी तरह कठोर साधना शक्ति से परिपूर्ण हो और मेरा मन इतनी करुणा से भर जाए, जितनी करुणा तुम्हारे हृदय में भरी हुई है। मेरे हृदय में भी वर्षा का निवास है तथा नेत्रों में प्रातःकालीन सौन्दर्य भरा हुआ है अर्थात् मेरे हृदय में करुणा के कारण सरसता बनी रहे। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हिमालय सारे कष्टों को सहन करता है, वैसे ही में भी संकटों से विचलित न होऊँ।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री हिमालय के गुणों को अपनाना चाहती है। वह स्वयं को हिमालय के समान साधना और करुणा से भरना चाहती है।
- भाषा-खड़ी-बोली हिन्दी
- गुण-माधुर्य
- छन्द- अतुकान्त-मुक्त
- शैली-भावात्मक गीति
- रस- शान्त
- शब्द-शक्ति- लक्षणा
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘तन तेरी’ में ‘त’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- मानवीकरण अलंकार-इस पद्यांश में हिमालय का मानवीकरण किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
पद्यांश 3-
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
श्यामल-श्यामल कोमल-कोमल,
लहराता सुरभित केश-पाश! न
भ-गंगा की रजतधार में
धो आई क्या इन्हें रात?
कम्पित हैं तेरे सजल अंग,
सिहरा सा तन हे सद्यस्नात !
भीगी अलकों के छोरों से
चूतीं बूँदें कर विविध लास !
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
शब्दार्थ- रूपसि-सुन्दरी; केश-पाश-बालों का समूह: रजतधार-चाँदी की धारा; कम्पित-काँपना; सद्यस्नात तुरन्त स्नान की हुई, अलकों-बाल, लास-आनन्दमय नृत्य।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड के ‘वर्षा सुन्दरी के प्रति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘नीरजा’ से
लिया गया है।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का सुन्दरी के रूप में वर्णन किया गया है। इसमें वर्षा का मानवीकरण किया गया है।
व्याख्या- महादेवी जी कहती हैं कि हे वर्षा रूपी सुन्दरी ! तेरे घने केश रूपी जाल बादलों के समान श्यामल है अर्थात् अत्यन्त कोमल हैं। ये सुगन्ध से भरकर लहरा रहे हैं। वह सुन्दरी से प्रश्न करती हैं कि क्या तू इन केशों को आकाशगंगा की चाँदी के समान श्वेत धारा में धोकर आई है? तेरे अंग भीगे हुए हैं और ठण्ड से काँप रहे हैं। तेरा शरीर ऐसे सिहर रहा है, जैसे कोई महिला अभी-अभी स्नान करके आई हो। तेरे भीगे हुए ‘ वालों की लटों से जल की बूंदें टपक रही है, जो नृत्य करती हुई-सी प्रतीत होती है। हे सुन्दरी ! तेरा यह बादलरूपी बालों का समूह अत्यन्त सुन्दर लग रहा है।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में वर्षा का सुन्दरी के रूप में चित्रण किया गया है।
- भाषा- साहित्यिक खड़ी-बोली
- गुण- माधुर्य
- शैली– चित्रात्मक
- छन्द – अतुकान्त-मुक्त
- रस- श्रृंगार
- अलंकार
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार– ‘श्यामल-श्यामल’ और ‘कोमल-कोमल’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
- रूपक अलंकार- ‘रूपसि तेरा घन-केश-पाश!’ में बादलरूपी घने बालों के समूह का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।
- मानवीकरण अलंकार- पूरे पद्यांश में वर्षा का सुन्दरी के रूप में चित्रण कर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, जिस कारण यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
पद्यांश 4-
सौरभ भीना झीना गीला
लिपटा मृदु अंजन-सा दुकूल;
चल अंचल से झर झर झरते
पथ में जुगनू के स्वर्ण फूल,
दीपक से देता बार-बार तेरा उज्ज्वल चितवन-विलास !
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
शब्दार्थ-सौरभ-सुगन्धः भीना-भरा हुआ; झीत्ता-बारीकः पतला मृदु-कोम्ल; अंजन-सुरमा, काजल, वुकूल रेशमी वस्त्र; चल-हिलते हुए, चलायमान; देता बार-बार जला देता है: चितवन-विलास-दृष्टि-विलास।
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्यखण्ड के ‘वर्षा सुन्दरी के प्रति’ शीर्षक से उधृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘नीरजा’ से लिया गया है।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का सुन्दरी के रूप में सजीव चित्रण किया गया है।
व्याख्या-कवयित्री वर्षा को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हे वर्षारूपी सुन्दरी ! तेरे शरीर पर सुगन्ध से भरा महीन, गीला, कोमल और श्याम वर्ण का रेशमी वस्त्र लिपटा हुआ है, जो आँखों के काजल के समान प्रतीत हो रहा है अर्थात् ये काले बादल इस तरह प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी सुन्दरी के सुगन्धित, कोमल और काले रंग के वस्त्र हों। तेरे चंचल आँचल से रास्ते में जुगनू रूपी स्वर्ण निर्मित फूल झड़ रहे हैं। बादलों में चमकती बिजली तुम्हारी उज्ज्वल दृष्टि है। जब तुम अपनी ऐसी सुन्दर दृष्टि किसी पर डालती हो तो उसके मन में प्रेम के दीपक जगमगाने लगते हैं। हे रूपवती वर्षा सुन्दरी! तेरे ये बादलरूपी घने केश अत्यधिक सुन्दर है।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में वर्षा का मानवीकरण के रूप में वर्णन किया गया है।
- भाषा-साहित्यिक खड़ी-बोली
- शैली-चित्रात्मक
- गुण-माधुर्य
- रस- श्रृंगार
- छन्द- अतुकान्त-मुक्त
- अलंकार
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार- ‘झर-झर’ और ‘बार-बार’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
- उपमा अलंकार- ‘मृदु अंजन-सा दुकूल’ में रेशमी वस्त्र को काजल सा बताया गया है अर्थात् उपमेय में उपमान की समानता है, जिस कारण यहाँ उपमा अलंकार है।
- रूपक अलंकार-‘जुगनू के स्वर्ण फूल’ में तारों का वर्णन स्वर्ण रूपी फूल के समान किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।