ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से- रामधारी सिंह ‘दिनकर’
गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर-
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जीवन परिचय-
गद्यांश 1–
ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है, जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है। M Imp (2020, 18, 15, 13, 11)
प्रश्न–
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
- (ग) ईर्ष्या का अनोखा वरदान क्या है?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।
- (ख) रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कहते हैं कि जो व्यक्ति ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के होते हैं, ईर्ष्या उन्हें एक अद्भुत एवं अनोखा वरदान देती है। यह वरदान है बिना दुःख के दुःख भोगने का। ईर्ष्या जब व्यक्ति की साथी बन जाती है या उसके हृदय में बस जाती है, तब वह व्यक्ति सदैव दुःख का अनुभव करता है। उसके दुःखी अनुभव करने के पीछे कोई कारण नहीं होता है। वह अकारण ही कष्ट भोगता है अर्थात् जिस व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में अन्य व्यक्ति की प्रगति और उन्नति को देख ईर्ष्या भाव जाग्रत हो उठता है, वह जीवनभर सुख प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है। वह स्वयं के समीप विद्यमान असंख्य सुख-साधनों के भोग के पश्चात् भी आनन्दित महसूस नहीं कर पाता है, जिसके पीछे का कारण यह है कि वह दूसरों की वस्तुओं को देखकर ज्वलनशील प्रवृत्ति का बन जाता है।
- लेखक ईर्ष्या और उसके स्वभाव के विषय में कहता है कि इस डंक से उत्पन्न कष्ट और पीड़ा को सहना उचित नहीं हैं। ईर्ष्या की आग में जलना बुरा होता है। ईर्ष्या करने वाला अपनी इस आदत को आसानी से छोड़ नहीं पाता है। दूसरे की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करना उसकी आदत बन जाती है। ईर्ष्या से व्यक्ति को सुख तो मिलता नहीं, अपितु उसे पीड़ा ही सहनी पड़ती है, व्यक्ति अपनी ईर्ष्या करने की आदत से यह पीड़ा झेलने को विवश होता है तथा व्यक्ति अपने पास सब कुछ होते हुए भी कष्ट को सहने तथा वेदना (दुःख) को भोगने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।
- (ग) ईर्ष्या का अनोखा वरदान है- दुःख न होते हुए भी दुःख की पीड़ा भोगना। इसे अनोखा वरदान इसलिए कहा गया है, क्योंकि व्यक्ति के पास जो भी वस्तुएँ हैं, उनका आनन्द उठाने के बजाय वह उन वस्तुओं से दुःखी होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह दूसरों की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करता है और दुःखी होता है।
गद्यांश 2
मगर ऐसा न आज तक हुआ है और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का हास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करे।
V Imp (2019, 17, 15, 12)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) ऐसी कौन-सी बात है, जो न आज तक हुई है और न होगी?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।
- (ख) लेखक कहता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति हमेशा दूसरे व्यक्तियों की निन्दा करके उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करता है और स्वयं को उसके स्थान पर स्थापित करना चाहता है, परन्तु आज तक ऐसा न हुआ है और न भविष्य में ऐसा होगा। ऐसा न होने के पीछे के कारण को बताते हुए लेखक कहता है कि जो व्यक्ति संसार में ऊँचा उठना चाहता है, वह अपने सुकर्मों से ही ऊँचा उठ सकता है। दूसरों की निन्दा करके या दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव रखकर कभी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बन सकता। यदि किसी व्यक्ति का पतन भी होता है तो उसके पीछे निन्दा को दोष दिया जाना भी उचित नहीं है, जबकि उसके पतन के पीछे का कारण उस व्यक्ति के अच्छे गुणों का नष्ट हो जाना होता है, इसलिए लेखक कहता है
कि किसी भी व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक बात यह है कि मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे। ऐसा करने में सफल होने वाले व्यक्ति की उन्नति सुनिश्चित होती है तथा उसकी उन्नति में न तो निन्दा, न ईर्ष्या और न ही किसी अन्य प्रकार के विकार बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। - (ग) दूसरों को नीचा दिखाकर अपने को ऊँचा बनाने और समाज में सम्मानित स्थान पाने की बात न आज तक हुई है और न ही भविष्य में होगी। अपनी उन्नति के लिए सद्गुणों का विकास आवश्यक है।
गद्यांश 3
ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे, जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो विश्व-कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। अगर ज़रा उनके अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय व शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहाँ होता। Imp (2020, 16, 12)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) उपरोक्त गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्ति की मनोदशा कैसी बताई गई है?
उत्तर–
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।
- (ख) ईर्ष्यालु व्यक्ति के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक कहता है कि जिस व्यक्ति के मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है, सबसे पहले ईर्ष्या उसी को जलाती है। ईर्ष्या से उत्पन्न दुःख सबसे पहले उसी को भुगतना पड़ता है। यह ईर्ष्या का काम है। ऐसे लोग अपने दुःख को सुनाने के लिए दूसरों को खोजते रहते हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति हर जगह सरलता से मिल जाते हैं। वे ईर्ष्या की जीती-जागती मूर्ति होते हैं।
- (ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति इस मनोदशा में रहता है कि कब उसके दुःखों को सुनने वाला कोई मिले और वह अपना दुःख-पुराण बाँचना शुरू कर दे। सुनने वाला मिलते ही ईर्ष्यालु बड़ी होशियारी से दूसरों की निन्दा की एक-एक बात बढ़ा-चढ़ाकर इस प्रकार बताता है मानो संसार के कल्याण का सर्वश्रेष्ठ कार्य वही है।
गद्यांश 4
चिन्ता को लोग चिता कहते हैं, जिसे किसी प्रचण्ड चिन्ता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की ज़िन्दगी ही खराब हो जाती है, किन्तु ईर्ष्या शायद चिन्ता से भी बदतर चीज़ है, क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुण्ठित बना डालती है। मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्वत इसके कि हमें अपने गुणों को कुण्ठित बनाकर जीना पड़े। चिन्ता-दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईर्ष्या से जला-भुना आदमी ज़हर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।
Imp (2018, 17, 11)
प्रश्न–
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
- (ग) चिन्ता को लोग चिता क्यों कहते हैं?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।
- (ख) लेखक चिन्ता की तुलना चिता से करते हुए कहता है कि चिन्ता व्यक्ति को उसी प्रकार जलाती है, जैसे चिता। चिता मृत शरीर को जलाती है, परन्तु चिन्ता जीवित व्यक्ति को धीरे-धीरे जलाती है, जिस व्यक्ति को चिन्ता ने जकड़ लिया, उसका जीवन कष्टदायक हो जाता है। व्यक्ति का जीवन दुःखमय बन जाता है, क्योंकि वह हर समय चिन्ता में घुलता रहता है।
- लेखक कहता है कि मृत्यु को फिर भी श्रेष्ठ कहा जा सकता है। ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है, जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो गए हों उसके जीने से अच्छा है मर जाना। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। व्यक्ति के पास सारे सुख-साधन हों और वह ईर्ष्या के कारण उनसे लाभान्वित न हो सके ऐसे व्यक्ति पर समाज दया नहीं करता है। हाँ चिन्ता से ग्रस्त व्यक्ति पर समाज ज़रूर दया करता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता है। उसके विचार और कार्य से दूसरों का अहित नहीं होता है। इसके विपरीत ईर्ष्यालु व्यक्ति ज़हर की पोटली के समान होता है, जिसके विचारों और कार्यों से समाज का वातावरण दूषित होता जाता है।
- (ग) चिन्ता को लोग चिता इसलिए कहते हैं, क्योंकि चिता व्यक्ति के मृत शरीर को जलाती है और चिन्ता भी व्यक्ति को जलाने का ही कार्य करती है। वह व्यक्ति के जीवित शरीर अर्थात् जीवन को तिल-तिल कर जलाती है। अतः चिन्ता, चिता से भयंकर है। चिन्ता किसी व्यक्ति को चिता से भी अधिक हानि पहुँचाती है।