पद्यांश 1
पुर तें निकसी रघुबीर-बधू,
धरि धीर दए मग में डग द्वै।
झलकी भरि भाल कनी जल की,
पुट सूखि गए मधुराधर वै।।
फिरि बूझति है- “चलनो अब केतिक,
पर्णकुटी करिहौ कित है?”
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।।
शब्दार्थ– पुर-महुल, निकसी निकली; मग रास्ताः द्वै-दो; मरि-पूरेः भाल-माथाः कनी-कण, बूँदः पुट कोमलः मधुराधर होंठ, फिरि-फिर; दूझति-पूछती; केतिक कितना; पर्णकुटी पत्तों की झोंपड़ी, तिय-पत्नी; आतुरता व्याकुलता; चारु सुन्दर; च्यै प्रवाहित होने लगे।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण वन में जा रहे हैं। सुकोमल शरीर वाली सीता जी चलते-चलते थक गई हैं, उनकी व्याकुलता का अत्यन्त मार्मिक वर्णन यहाँ किया गया है।
व्याख्या– कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम, लक्ष्मण तथा अपनी सुकोमल प्रिया (पत्नी) के साथ महल से निकले तो उन्होंने बहुत धैर्य से मार्ग में दो कदम रखे। सीता जी थोड़ी ही दूर चली थी कि उनके माथे पर पसीने की बूँदें आ गईं तथा सुकोमल होंठ बुरी तरह से सूख गए। तभी वे श्रीराम से पूछती हैं कि अभी हमें कितनी दूर और चलना है और हम अपनी पर्णकुटी (झोपड़ी) कहाँ बनाएँगे? पत्नी (सीता जी) की इस दशा व व्याकुलता को देखकर श्रीराम जी की आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर वे द्रवीभूत हो गए।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवि तुलसीदास जी ने वन मार्ग पर जाते समय सीता जी की थकान भरी स्थिति को देख श्रीराम की व्याकुलता प्रस्तुत की है।
- भाषा– ब्रज
- गुण– प्रसाद और माधुर्य
- शैली– चित्रात्मक और मुक्तक
- छन्द– सवैया
- रस – श्रृंगार
- शब्द-शक्ति-लक्षणा एवं व्यंजना
- अलंकार-
- अनुप्रास अलंकार- ‘रघुबीर बघू’, ‘भरि भाल’ ‘पर्णकुटी करिहौ’
और ‘अँखिया अति’ में क्रमशः ‘व’, ‘भ’ ‘क’ और ‘अ’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
स्वभावोक्ति अलंकार-‘झलकी भरी भाल कनी जल की पुट सूखि गए मधुराघर वै’ में यथावत स्वाभाविक स्थिति का वर्णन किया गया है, इसलिए यहाँ स्वभावोक्ति अलंकार है।
- अनुप्रास अलंकार- ‘रघुबीर बघू’, ‘भरि भाल’ ‘पर्णकुटी करिहौ’
पद्यांश 2
रानी में जानी अजानी महा,
पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है।
राजहु काज अकाज न जान्यो,
कह्यो तिय को जिन कान कियो है।।
ऐसी मनोहर मूरति ये,
बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है?।
आँखिन में, सखि ! राखिबे जोग,
इन्हें किमि कै बनवास दियो है? ।
शब्दार्थ– रानी कैकेयी; अजानी अज्ञानी; पबि-वज्रः पाहन पत्थर, काज अकाजू-उचित और अनुचितः जान्यो-जानती, तिय–पत्नी; कान कियो है-कहा मान लिया है; जोग-योगः किमि-क्यों।
सन्दर्भ– पूर्ववत्।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर प्रतिक्रिया का वर्णन किया है।
व्याख्या– श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन में जा रहे हैं, उन्हें देखकर गाँव की स्त्रियाँ आपस में वार्तालाप कर रही हैं। एक स्त्री दूसरी से कहती है कि मुझे यह ज्ञात हो गया है कि रानी कैकेयी बड़ी अज्ञानी है। वह पत्थर से भी अधिक कठोर हृदय वाली नारी है, क्योंकि उन्हें इन तीनों को वनवास देते समय तनिक भी दया नहीं आई।
दूसरी ओर वे राजा दशरथ को भी बुद्धिहीन समझकर कहती हैं कि राजा दशरथ ने उचित अनुचित का भी विचार नहीं कियां, उन्होंने भी पत्नी का कहा माना और उन्हें वन भेज दिया। ये तीनों तो इतने सुन्दर और मनोहर हैं कि इनसे बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे? हे सखी! ये तीनों तो आँखों में बसाने योग्य हैं। इनको अपने से दूर नहीं किया जा सकता। इन्हें किस कारण वनवास दे दिया गया है? ये तो सदैव अपने सामने रखने योग्य हैं।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से रानी कैकेयी की कठोरता तथा राजा दशरथ को राज-काज न जानने वाला बताया है।
भाषा– व्रज
गुण– माधुर्य
छन्द– सवैय
रस – श्रृंगार और करुण
शब्द-शक्ति-
अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना
अलंकार–
अनुप्रास अलंकार- ‘पबि पाहन’, ‘कान कियो’, ‘मनोहर मूरति’ और ‘सखि राखिबे’ में क्रमशः ‘प’, ‘क’, ‘म’ और ‘ख’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 3
सीस जटा, उर बाहु बिसाल,
बिलोचन लाल, तिरीछी सी भीहै।
तून सरासन बान धरे,
तुलसी बन-मारग में सुठि सोहै।।
सादर बारहि बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहै।
पूछति ग्राम बधू सिय सों ‘कहौ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?’।।
शब्दार्थ– सीस-सर; उर-वक्षस्थल; बाहु-भुजाएँ; विसाल-विशाल; तिरीछी-तिरछी; तून-तरकश; बान-बाण, तीर, सरासन-धनुष, सुठि-अच्छी तरह, वारहिं बार-बार-बार सुभाय सुशोभित; रावरे-तुम्हारे।
सन्दर्भ– पूर्ववत्।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन को जा रहे हैं। मार्ग में ग्रामीण स्त्रियाँ उत्सुकतावश सीता जी से प्रश्न पूछती हैं। वे श्रीराम जी के बारे में जानना चाहती है। वे उनसे परिहास भी करती हैं।
व्याख्या– गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से पूछती हैं कि जिनके सिर पर जटाएँ हैं, जिनकी भुजाएँ और हृदय विशाल है, लाल नेत्र हैं, तिरछी भौहे हैं, जिन्होंने तरकश, वाण और धनुष सँभाल रखे हैं, जो वन मार्ग में अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं, जो बार-बार आदर और रुचि या प्रेमपूर्ण चित्त के साथ तुम्हारी ओर देखते हैं, उनका यह सौन्दर्य हमारे मन को मोहित कर रहा है। ग्रामीण स्त्रियों सीता जी से प्रश्न पूछती है कि हे सखी! बताओ तो सही, ये साँवले से मनमोहक तुम्हारे कौन हैं?
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पद्यांश में ग्रामीण स्त्रियों की उत्सुकता का सहज चित्रण हुआ है।
भाषा– ब्रज
शैली– मुक्तक
गुण– माधुर्य
रस – श्रृंगार
छन्द – सवैया
शब्द-शक्ति– व्यंजना
अलंकार-
अनुप्रास अलंकार- ‘बाहु विसाल’, ‘बिलोचन लाल’, ‘सरासन बान’, ‘सादर बारहिं’ और ‘सावरे से सखि’ में क्रमशः ‘ब’, ‘ल’, ‘न’, ‘र’ और ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 4
दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला,
धरहु धरनि धरि धीर न डोला ।
रामु चहहिं संकर धनु तोरा,
होहु सजग सुनि आयसु मोरा ।।
चाप समीप रामु जब आए,
नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ।।
सब कर संसउ अरु अग्यानू,
मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।।
भृगुपति केरि गरव गरुआई,
सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ।।
सिय कर सोचु जनक पछितावा,
रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ।।
संभुचाप बड़ बोहितु पाई,
चढ़े जाइ सब संगु बनाई ।।
राम बाहुबल सिंधु अपारू,
चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू ।।
शब्दार्थ-दिसिकुजरङ्ख-दिग्गज; कमठ-कच्छप; अहि-सर्प, शेषनाग; कोला-वाराह; चहहि चाहते हैं; तोरा-तोड़ना, सजग सावधान, आयसु-आज्ञाः भृगुपति-परशुराम, केरि-के; मुनिबरन्ह-श्रेष्ठ मुनिः दावा- दावानल; संगु – एक साथ
सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण जी ने धरती को धारण करने वाले कच्छप, शेषनाग और वाराह को आगाह किया है कि श्रीराम धनुष को तोड़ने वाले हैं, इसलिए आप सभी पृथ्वी को भली-भाँति सँभालकर रखना तथा परशुराम श्रेष्ठ मुनि, सीता जी, जनक तथा रानियाँ सभी की चिन्ता का कारण शिव-धनुष को बताया गया है। इसी रोमांचक दृश्यं का वर्णन यहाँ किया गया है।
व्याख्या– लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे दिग्गजों ! हे कच्छप । हे शेषनाग ! हे वाराह ! आप सभी धैर्य धारण करें तथा पृथ्वी को सँभालकर रखें, क्योंकि श्रीराम इस शिव-धनुष को तोड़ने जा रहे हैं, इसलिए आप सब मेरी इस आज्ञा को सुनकर सतर्क हो जाइए। जब श्रीराम धनुष के पास गए, तब वहाँ उपस्थित नर-नारी अपने पुण्यों को मनाने लगे, क्योकि सभी को श्रीराम के धनुष तोड़ने पर शंका तथा अज्ञान है कि श्रीराम इस धनुष को तोड़ पाएँगे या नहीं। सभा में उपस्थित नीच अहंकारी राजाओं को भी यही लग रहा है कि श्रीराम धनुष नहीं तोड़ पाएँगे, क्योंकि जब हमसे यह धनुष नहीं टूटा तो राम से कैसे टूटेगा?
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि परशुराम के गर्व की गुरुता, सभी देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों का भय, सीता जी की चिन्ता, राजा जनक का पछतावा और उनकी रानियों के दारुण दुःख का दावानल, ये सभी शिवजी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर उसमें सब एक साथ चढ़ गए हैं।
ये सभी श्रीराम के बाहुबलरूपी अपार समुंद्र को पार करना चाहते है, परन्तु उनके पास कोई नाविक नहीं है अर्थात् परशुराम का घमण्ड, श्रेष्ठ मुनियों और देवताओं का भय, सीता जी की चिन्ता, राजा जनक के पश्चाताप व उनकी रानियों का दुःख व चिन्ता का कारण यह शिव-धनुष है।
सभी अपनी-अपनी चिन्ताओं से मुक्त होना चाहते हैं। यह तभी सम्भव होगा, जब शिव-धनुष को राम द्वारा तोड़ा जाएगा। ये सभी इन दुःखों से मुक्त हो सकते हैं, यदि ये श्रीराम के अनन्त बाहुबल को जान लें, परन्तु इनके पास कोई केवट नहीं है, जो इन्हें इस अपार समुद्र को पार करा सके अर्थात् श्रीराम के बाहुबल के विषय में बता सके।
काव्य सौन्दर्य–
- भाषा-अवधी
- गुण-ओज और प्रसाद
- छन्द– दोहा-चौपाई
- शैली– प्रवन्ध
- रस– वीर और शान्त
- शब्द-शक्ति– अभिधा और लक्षणा
- अलंकार– अनुप्रास अलंकार- ‘धरहु धरनि’, ‘सजग सुनि’, ‘नर नारिन्ह’, ‘सुर सुकृत’, ‘अरु अग्मानु’ और ‘मंद महीपन्ह’ में ‘ध’, ‘र’, ‘स’, ‘न’, ‘स’, ‘अ’ और ‘म’ वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।