धनुष-भंग, वन-पथ पर -पद्यांशों की सन्दर्भ-सहित व्याख्या । Class 10

पुर तें निकसी रघुबीर-बधू,
धरि धीर दए मग में डग द्वै।
झलकी भरि भाल कनी जल की,
पुट सूखि गए मधुराधर वै।।
फिरि बूझति है- “चलनो अब केतिक,
पर्णकुटी करिहौ कित है?”
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।।
रानी में जानी अजानी महा,
पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है।
राजहु काज अकाज न जान्यो,
कह्यो तिय को जिन कान कियो है।।
ऐसी मनोहर मूरति ये,
बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है?।
आँखिन में, सखि ! राखिबे जोग,
इन्हें किमि कै बनवास दियो है? ।
सीस जटा, उर बाहु बिसाल,
बिलोचन लाल, तिरीछी सी भीहै।
तून सरासन बान धरे,
तुलसी बन-मारग में सुठि सोहै।।
सादर बारहि बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहै।
पूछति ग्राम बधू सिय सों ‘कहौ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?’।।
दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला,
धरहु धरनि धरि धीर न डोला ।
रामु चहहिं संकर धनु तोरा,
होहु सजग सुनि आयसु मोरा ।।
चाप समीप रामु जब आए,
नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ।।
सब कर संसउ अरु अग्यानू,
मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।।
भृगुपति केरि गरव गरुआई,
सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ।।
सिय कर सोचु जनक पछितावा,
रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ।।
संभुचाप बड़ बोहितु पाई,
चढ़े जाइ सब संगु बनाई ।।
राम बाहुबल सिंधु अपारू,
चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू ।।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top