कवि बिहारी जी का जीवन-परिचय
पद्यांश 1-
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।
शब्दार्थ- भव-बाधा-सांसारिक बाधाएँ, हरौ-दूर करो, नागरि-चतुरः झाई-परछाई, परै-पड़ने पर, स्यामु-श्रीकृष्ण, हरित-दुति-दुःखों को हरना।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में बिहारी ने राधिकाजी की स्तुति की है। वे उनकी कृपा पाना चाहते हैं और सांसारिक बाधाओं को दूर करना चाहते हैं।
व्याख्या- कवि बिहारी राधिका जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे चतुर राधिके ! तुम मेरी इन संसाररूपी वाधाओं को दूर करो अर्थात् तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम चतुर हो, इसलिए मुझे भी इस संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाओ। जिसके तन की परछाई पड़ने से श्रीकृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं, जिनके शरीर की परछाईं पड़ने से हृदय प्रकाशवान हो उठता है। उसके सारे अज्ञान का अन्धकार दूर हो जाता है। ऐसी चतुर राधा मुझे सांसारिक बाधाओं से दूर करें।
काव्य सौन्दर्य-
‘बिहारी सतसई’ श्रृंगार रस प्रधान रचना है। अतः श्रृंगार की अधिष्ठात्री देवी राधिका जी की स्तुति की गई है।
- भाषा– ब्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– माधुर्य, प्रसाद
- रस– श्रृंगार एवं भक्ति
- छन्द– दोहा
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार ‘हरौ, राधा नागरि’ में ‘र’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- श्लेष अलंकार ‘हरित-दुति’ में कई अर्थों की पुष्टि हो रही है। इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।
पद्यांश 2-
सोहत ओढ़ें पीतु पटु, स्याम सलौनै गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात।।
शब्दार्थ सोहत-सुशोभित होना; पीतु पतु-पीले वस्त्र, सलौने-सुन्दर; सैल-पर्वत; आपतु-प्रकाश, चरयी-पड़ने परः प्रभात-सुबह ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग– प्रस्तुत दोहे में पीले वस्त्र पहने हुए श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का चित्रण किया गया है।
व्याख्या– बिहारी जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के साँवले सलोने शरीर पर पीले रंग के वस्त्र ऐसे लग रहे हैं मानो नीलमणि के पर्वत पर सुबह-सुबह सूर्य की पीली किरणे पड़ रही हों अर्थात् श्रीकृष्ण ने जो पीले रंग के वस्त्र अपने शरीर पर धारण किए हैं, वे नीलमणि के पर्वत पर पड़ रही सूर्य की पीली किरणों के समान लग रहे हैं। उनका यह
सौन्दर्य अवर्णनीय ह
काव्य सौन्दर्य
श्रीकृष्ण के शारीरिक रूप सौन्दर्य का सादृश्य चित्रण है।
- भाषा ब्रज
- शैली मुक्तक
- गुण माधुर्य
- रस श्रृंगार और भक्ति
- छन्द दोहा
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार ‘पीत पटु’, ‘स्याभ सलौने’ और ‘परयौ प्रभात’ में क्रमशः ‘प’, ‘स’ और ‘प’ वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- उत्प्रेक्षा अलंकार ‘मनौ नीलमणि सैल पर’ यहाँ नीलमणि पत्थर की तुलना सूर्य की पीली धूप से की गई है, जिस कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।
पद्यांश 3–
अधर धरत हरि के परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रंग होति ।
शब्दार्थ अघर-नीचे का होंठ, चरत रखना, ओठ होंठ, डीव्-िदृष्टिः पट-पीताम्बर; जोति-ज्योति; होति-होना।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण द्वारा बाँसुरी के होंठ पर रखने से वह हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष के रंगों की हो जाती है। इसी का चित्रण यहाँ किया गया है।
व्याख्या एक सखी राधिका जी से कहती है कि श्रीकृष्ण जी ने अपने अधरों पर न बाँसुरी धारण कर रखी है। मुरली को धारण करते ही उनके होंठो की लालिमा, नेत्रों की श्यामता तथा पीताम्बर के पीले रंग की झलक पड़ते ही श्रीकृष्ण के हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष के रंगों में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् लाल, पीला और श्याम रंग मिलने से र बाँसुरी सतरंगी शोभा को धारण कर लेती है।
काव्य सौन्दर्
प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि श्रीकृष्ण के प्रभाव में आने पर एक सामान्य बाँसुरी अनेक रंग धारण कर लेती है।
- भाषा ब्रज
- शैली मुक्तक
- गुण प्रसाद
- रस भक्ति
- छन्द दोहा
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार ‘अधर घरत हरि के परत’ में ‘घ’, ‘र’, ‘त’, ‘ओढ़-डीठि-पट जोति’ में ‘ठ’ और ‘त’, बाँस की बाँसुरी में ‘ब’ और ‘स’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
उपमा अलंकार पद्यांश की दूसरी पंक्ति में बाँसुरी के रंगों की तुलना इन्द्रधनुष के रंगों से की गई है, जिस कारण यहाँ उपमा अलंकार है।
यमक अलंकार ‘अधर धरत’ में ‘अधर’ शब्द के अनेक अर्थ है, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।
- अनुप्रास अलंकार ‘अधर घरत हरि के परत’ में ‘घ’, ‘र’, ‘त’, ‘ओढ़-डीठि-पट जोति’ में ‘ठ’ और ‘त’, बाँस की बाँसुरी में ‘ब’ और ‘स’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 4–
या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहि कोई।
ज्यौं-ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होई।।
शब्दार्थ अनुरागी-प्रेमी, चित्त-मनः गति चाल; समुझे-समझना, चूड़े-डूबता है; स्याम रंग-कृष्ण भक्ति का रंग, उज्जलु-प्रकाशित होना, पवित्र।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबने से मन व चित्त प्रकाशित हो जाते हैं। इसी पवित्र प्रेम का चित्रण कवि ने यहाँ किया है।
व्याख्या कवि का कहना है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यन्त विचित्र है। इसकी दशा को कोई और समझ नहीं सकता। वैसे तो श्रीकृष्ण का वर्ण भी श्याम है, परन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत अर्थात् पवित्र हो जाता है।
काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने स्पष्ट किया है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले श्याम वर्ण की अपेक्षा श्वेत वर्ण में परिवर्तित हो जाते हैं, जो पवित्रता का प्रतीक है।
- भाषा ब्रज
- शैली मुक्तक
- गुण माधुर्य
- रस शान्त
- छन्द्र दोह
- अलंकार
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘ज्यों-ज्यों’ और ‘त्यौ-त्यौं’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
पद्यांश 5
जगतु जनायौ जिहि सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि।
ज्यौं ऑखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि ।।
शब्दार्थ जगतु-संसार, जनायौ ज्ञान कराया; जिहिं-जिसने, सकलु-सम्पूर्ण; जान्यौ नाँहिं-जाना नहीं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी भक्त को समझा रहे हैं कि उस परम् सत्य ईश्वर को जान ले, तभी तेरा कल्याण है। इसी सार्वभौमिक सत्ता का यहाँ वर्णन किया गया है।
व्याख्या कवि विहारी जी कहते हैं कि तू उस ईश्वर को जान ले, जिसने तुझे इस सम्पूर्ण संसार से अवगत कराया है। अभी तक तूने उस हरि (राम) को नहीं जाना है। यह बात ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे आँखों से हम सब कुछ देख लेते हैं, परन्तु आँखें स्वयं अपने आप को नहीं देख पातीं।
काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने इस सत्य का उद्घाटन किया है कि सम्पूर्ण संसार का ज्ञान कराने वाले ईश्वर को हम नहीं जान पाते हैं।
- भाषा ब्रज
- शैली मुक्तक
- गुण प्रसाद
- रस शान्त
- छन्द दोहा
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार ‘जगतु जनायौ जिहिं’ और ‘सकलु सो’ में ‘ज’ और ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 6
जप, माला, छापा तिलक, सरै न एकौ कामु ।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचे राँचै रामु ।।
शब्दार्थ जप-जपना; छापा तिलक-टीका लगाना, सरै-सिद्ध होता है; एकौकामु-एक भी काम; मन-काँचै कच्चे मनवाला; नाचै-भटकना; साँचे राँचै रामु राम तो सच्ची भक्ति से अनुरक्त होते हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी ने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाह्याडम्बरों को निरर्थक बताया है। इन झूठे दिखावों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसके लिए तो सच्चे मन की आवश्यकता है।
व्याख्या कवि का कथन है कि बाहरी दिखावा करने से अर्थात् जप करने से, दिखावे के लिए माला गले में धारण करने से, तरह-तरह के तिलक लगाने से, राम-नाम के छापे वाले वस्त्र पहनने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो पाता, इन सबसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारा मन ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं करेगा तब तक उस ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर तो तभी प्रसन्न होंगे, जब सच्चे मन से उनकी उपासना की जाएगी। ईश्वर को पाने के लिए दिखावे की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर तो केवल सच्चे मन की भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।
काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने ईश्वर को पाने के लिए झूठे दिखावों व बाह्याडम्बरों को व्यर्थ बताया है।
- भाषा साहित्यिक व्रज
- शैली मुक्तक
- गुण प्रसाद
- रस शान्त
- छन्द दोहा
- अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘राँचै रामु’ में ‘र’ वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 7
दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यों न बढ़े दुःख-दंदु।
अधिक अँधेरौ जग करत, मिलि मावस रबि चंदु ।।
शब्दार्थ दुसह-असहय, दुराज-दो राजाओं का राज्य, द्वैधशासन, प्रजानु-प्रजा; दंदु-द्वन्द्व, संघर्ष, मावस-अमावस्या।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में बिहारी जी ने नीतिपरक मत दिया है कि जिस राज्य में दो राजाओं का स्वामित्व होता है, वहाँ प्रजा का दुःख भी दोगुना होता है
व्याख्या जिस राज्य में दो राजाओं का शासन होता है, उस राज्य की प्रजा का दुःख दोगुना क्यों न बढ़ेगा, क्योंकि दो राजाओं के भिन्न-भिन्न मन्तव्य, उनके आदेश, नियमों व नीतियों के बीच प्रजा ऐसे पिसती है जैसे दो पाटों के बीच आटा। जिस प्रकार अमावस्या की तिथि को सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि पर मिलकर संसार में और अधिक अँधेरा कर देते हैं, उसी प्रकार दो राजाओं का एक ही राज्य पर शासन • करना, प्रजा के लिए दोहरे दुःख का कारण बन जाता है।
काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने स्पष्ट किया है कि एक ही राजा के स्वामित्व में प्रजा का सुख निहित है।
- भाषा ब्रज
- शैली मुक्तक
- गुण प्रसाद
- रस शान्त
- छन्द दोहा
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार ‘दुसह दुराज’, ‘अधिक अँधेरी’ और ‘मिलि मावस’ में क्रमशः ‘द’, ‘अ’, ‘ध’ और ‘म’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से
यहाँ अनुप्रास अलंकार है। - श्लेष अलंकार ‘दुसह’ और ‘दंदु’ में अनेक अर्थ व्याप्त हैं, इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।
- दृष्टान्त अलंकार ‘रवि चंदु’ में उपमेय और उपमान का बिम्ब-प्रतिबिम्व भाव प्रकट हुआ है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है।
- अनुप्रास अलंकार ‘दुसह दुराज’, ‘अधिक अँधेरी’ और ‘मिलि मावस’ में क्रमशः ‘द’, ‘अ’, ‘ध’ और ‘म’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से
Niti byakhya