अग्रपूजा खण्डकाव्य
(प्रयागराज, आजमगढ़ एवं मथुरा जिलों के लिए)
‘अग्रपूजा’ की कथावस्तु महाभारत तथा भागवतपुराण से ली गई है। इसके लेखक पण्डित रामबहोरी शुक्ल जी हैं।
प्रश्न 1. ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य की कथा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर– ‘अग्रपूजा’ की कथावस्तु महाभारत तथा भागवतपुराण से ली गई है। इसके लेखक पण्डित रामबहोरी शुक्ल जी हैं। पाण्डवों के विरुद्ध दुयोंधन के द्वारा रचे गए अनेक षड्यन्त्रों में से एक लाक्षागृह का निर्माण भी किया गया था। पाण्डव इन षड्यन्त्रों से बचते हुए ब्राह्मण रूप में द्रौपदी के स्वयंवर सभा में उपस्थित हुए जहाँ अर्जुन ने मत्स्य भेदन करके शर्तानुसार द्रौपदी को प्राप्त किया तथा वहाँ उपस्थित अन्य आक्रमणकारियों एवं राजाओ को परास्त किया। व्यास और कुन्ती के कहने पर द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की पत्नी बनी। पाण्डवों की इस सफलता पर दुर्योधन ने उनके विनाश की बात सोची, किन्तु भीष्म, द्रोण और विदुर की सम्मति से पाण्डवों को धृतराष्ट्र ने आधा राज्य देने का निर्णय किया। दुर्योधन आदि के विरोध करने पर भी उन्होंने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया, युधिष्ठिर अपने भाइयों, माता और पत्नी के साथ ‘खाण्डव’ वन गए, जिसे विश्वकर्मा ने कृष्ण के आदेश से स्वर्गलोक के समान बना दिया तथा उसका नाम ‘इन्द्रप्रस्थ’ रखा गया। धर्मराज कुशलतापूर्वक राज्य कार्य करने लगे। नारद के कहने पर स्त्री विवाद न हो, इसलिए पाण्डव बारी-बारी से एक वर्ष तक द्रौपदी के साथ रहने लगे। इस नियम को भंग करने के फलस्वरूप 12 वर्ष का वनवास अर्जुन को मिला। वनवास की अवधि में भ्रमण करते हुए द्वारका में अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया तथा कृष्ण और सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौटे। अग्निदेव के भोजन हेतु ‘खाण्डव’ वन का दाह करने पर अग्निदेव ने अर्जुन को कपिध्वज रथ तथा वरुण ने गाण्डीव धनुष दिया। अग्निदेव ने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र तथा कौमुदी गदा दिए। खाण्डव-वन दाह के समय ‘मय’ की रक्षा करने पर मय ने अर्जुन को देवदत्त नामक शंख और भीम को भारी गदा प्रदान किया तथा श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए सुन्दर-सा सभा भवन का निर्माण किया।
युधिष्ठिर की प्रसिद्धि एक अच्छे राजा के रूप में तीनों लोकों में फैल गई। तब पाण्डु ने नारद से उन्हें सन्देश दिया कि ये राजसूय यज्ञ करें, जिससे वे पितृलोक में रह सके तथा बाद में स्वर्ग में प्रवेश पा सकें। श्रीकृष्ण ने राजसूय यज्ञ करने के पूर्व सम्म्राट पद पाने के लिए जरासन्ध वध करने की सलाह दी। ब्राह्मण के वेश में कृष्ण, अर्जुन और भीम जरासन्ध के पास पहुँचे तथा मल्लयुद्ध में चतुराई से दोनों टाँगों को चीरते हुए उसे मार डाला तथा जरासन्ध के द्वारा बन्दी किए गए हजारों राजाओं को मुक्त किया। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को चारों दिशाओं में सैन्य बल बढ़ाने के लिए भेजा। उनके प्रयास से सभी राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार की तथा युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गए। इसके बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ होने लगी। इसके लिए चारों दिशाओं में राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया। अर्जुन द्वारका गए और भीम द्रुपद को लाने तथा नकुल कौरवों को आमन्त्रित करने गए। निमन्त्रण पाकर सभी लोग आए तथा सबको उचित जगह पर ठहराया गया। इस यज्ञ में देवता एवं असुर भी आए थे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न करवाने की प्रार्थना की। इसलिए श्रीकृष्ण सम्पूर्ण सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। सभी नर-नारियों ने श्रीकृष्ण के दर्शन किए और अपने को धन्य माना। युधिष्ठिर, कृष्ण के रथ के सारथी बने तथा इन्द्रप्रस्थ में कृष्ण और उनके साथ आए हुए सभी लोगों का यथोचित स्वागत हुआ, जिससे कृष्ण से द्वेष रखने वाले रुक्मी और शिशुपाल बेचैन हो गए।
राजसूय यज्ञ में कार्य को अच्छी तरह से सम्पादित करने के लिए युधिष्ठिर ने अपने सभी सम्बन्धियो की उम्र एवं योग्यता को ध्यान में रखकर काम बाँट दिए थे। श्रीकृष्ण ने भोजन परोसने एवं लोगों के पैर घोने के काम को स्वेच्छा से चुना। सभी ने अपना काम निष्ठापूर्वक किया। सभा वर्णों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सभा में पधारे। जब श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकि सभा में पधारे तो शिशुपाल को छोड़कर सभी उनके स्वागत में खड़े हो गए। भीष्म के द्वारा उठाए गए अग्रपूजा के प्रश्न पर सबने कृष्ण के नाम पर सहमति दी। चेदिराज शिशुपाल ने इस पर आपत्ति की तथा उनकी निन्दा की और अपमान भी किया। भीष्म आदि ने शिशुपाल को रोका। सहदेव ने शिशुपाल को धमकाया तथा श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। श्रीकृष्ण को मारने के लिए दौड़ते हुए शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण ही दिखाई देने लगते हैं। शिशुपाल को कृष्ण ने समझाया कि उन्होंने श्रुतश्रवा बुआ को उसके सौ अपराध को क्षमा करने का वचन दिया है। इसलिए वे मौन हैं, मौन को दुर्बलता न मानकर वह अनुचित व्यवहार न करे, किन्तु शिशुपाल न माना। सौ वचन पूरा होते ही कृष्ण ने शिशुपाल को बचने की चेतावनी देते हुए उस पर सुदर्शन चक्र चला दिया, जिससे उसका सिर, धड़ से अलग हो गया। विधिपूर्वक चलते हुए राजसूय यज्ञ को व्यास धौम्य आदि सोलह ऋषियों ने विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न किया। धर्मराज ने विद्वानों, ब्राह्मणों, राजाओं तथा अन्य अतिथियों का उचित सत्कार किया तथा सम्मानपूर्वक उन्हें विदा किया तथा श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति हृदय से आभार प्रकट किया, क्योंकि उनके बिना यज्ञ सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो पाता।
प्रश्न 2. ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के छः सर्ग
उत्तर – ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य साहित्य महौपाध्याय पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित है। छः सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य की कथावस्तु महाभारत तथा श्रीमद्भागवत पुराण से ली गई है। कवि ने खण्डकाव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण अंश में श्रीकृष्ण की स्तुति करने के बाद खण्डकाव्य की मुख्य सामग्री प्रस्तुत की है,
जिसका कथासार निम्नलिखित है-
प्रथम सर्ग (पूर्वाभास)
इस सर्ग का आरम्भ महाभारत के लाक्षागृह प्रसंग से होता है। दुर्योधन ने पाण्डवों को मारने के लिए अनेक षड्यन्त्र रचे थे, जिनमें एक लाक्षागृह भी था, परन्तु कुन्ती सहित सभी पाण्डव लाक्षागृह से सुरक्षित बच निकले। दुर्योधन इस सत्य से अनजान था। उधर, पाण्डव छद्मवेश में विचरण करते हुए ब्राह्मण रूप में द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित हुए। वहाँ अर्जुन ने शर्तानुसार मत्स्य भेदन कर स्वयंवर जीत लिया। इस पर वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने अर्जुन पर आक्रमण किया, किन्तु भीम और अर्जुन ने उन्हें परास्त कर दिया। महर्षि व्यास और कुन्ती के कहने पर द्रुपद ने पाँचों पाण्डवों से द्रौपदी का विवाह कर दिया और प्रचुर मात्रा में दहेज दिया। इस सारे घटनाक्रम को जानकर दुर्योधन मन-ही-मन जल उठा। हस्तिनापुर आकर उसने शकुनि, कर्ण और भूरिश्रवा से मन्त्रणा की और पाण्डवों का विनाश करने की बात सोची। भूरिश्रवा ने उसे पाण्डवों से मैत्री करने का तथा कर्ण ने उन्हें युद्ध में परास्त करने का सुझाव दिया। धृतराष्ट्र ने भी दुर्योधन को पाण्डवों से दुर्व्यवहार न करने की सलाह दी। दुर्योधन की ओर से चिन्तित होकर धृतराष्ट्र ने भीष्म, द्रोण और विदुर की सम्मति से पाण्डवों को आधा राज्य देना स्वीकार किया और अगले ही दिन विदुर को भेजकर पाण्डवों को हस्तिनापुर बुलवा लिया। दुर्योधन और कर्ण ने इसका विरोध भी किया, परन्तु धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर दिया। युधिष्ठिर ने गुरुजनों से विदा लेकर कुन्ती, पत्नी द्रौपदी एवं सभी भाइयों समेत खाण्डव वन की ओर प्रस्थान किया।
द्वितीय सर्ग (समारम्भ)
उन दिनों खाण्डव वन एक भयानक जंगल था। पाण्डवों के परम हितैषी होने के कारण कृष्ण ने विश्वकर्मा को स्वर्ग लोक के समान सुन्दर नगर का निर्माण करने का आदेश दिया। विश्वकर्मा ने ऐसा ही किया। सुन्दर नगर का निर्माण हुआ और सभी वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कुन्ती की आज्ञा ले पाण्डवों से विदा ली और द्वारका लौट गए। जाते-जाते उन्होंने युधिष्ठिर को प्रजा-हित में शासन करने की सलाह दी। धर्मराज, श्रीकृष्ण के आदेशानुसार कर्त्तव्य परायणता, समरसता, दृढ़ता, उदारता और धर्म के अनुसार राज करने लगे।
उनके राज में सभी सुखी थे और सभी अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते थे। राम-राज्य सदृश उनके राज्य की कीर्ति धरती से लेकर देवलोक और पितृलोक तक फैल गई।
तृतीय सर्ग (आयोजन)
पाण्डवों ने विचार किया कि धन, धरती और नारी के कारण संसार में सदा से संघर्ष होता आया है। कौरव धन और धरती के पीछे पहले से ही पड़े हुए हैं, कहीं द्रौपदी आपस के झगड़े का कारण न बन जाए, इसलिए उन्होंने नारद के कहने पर यह नियम बनाया कि द्रौपदी बारी-बारी से एक-एक वर्ष तक प्रत्येक पाण्डु-पुत्र के साथ रहे और यदि इस दौरान दूसरा पति उन्हें साथ देख ले तो दण्ड स्वरूप उसे बारह वर्ष के लिए वन में रहना पड़ेगा। एक बार एक ब्राह्मण की गायों की रक्षा के लिए अर्जुन को यह नियम भंग करना पड़ा।
इसके कारण उन्हें बारह वर्षों के लिए वन में निवास करने के लिए जाना पड़ा। कई वर्षों तक अनेक स्थलों का भ्रमण करते हुए अर्जुन अन्त में द्वारका पहुँचे। वहाँ कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् सुभद्रा को साथ लेकर अर्जुन कृष्णसहित इन्द्रप्रस्थ लौट आए। वहाँ उन्होंने अग्निदेव के भोजन हेतु खाण्डव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को अवाध गति से चलने वाला कपिध्वज रथ तथा वरुण ने दो अक्षय तूणीर एवं गाण्डीव धनुष उपहार में दिए।
श्रीकृष्ण को अग्निदेव से सुदर्शन चक्र तथा कौमुदी गदा प्राप्त हुए। उसी समय आग की लपटों से घिरे हुए मय दानव ने सहायता के लिए पुकारा। अर्जुन ने उसे अभय दान देकर बचा लिया। मय दानव ने कृतज्ञता से भरकर सेवा का प्रस्ताव रखा। तब श्रीकृष्ण के कहने पर उसने धर्मराज के लिए एक दिव्य आलौकिक ‘सभा भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को देवदत्त नामक शंख और भीम को एक भारी गदा भी भेंट की। फिर श्रीकृष्ण सभी से आज्ञा लेकर द्वारका लौट गए। मय दानव ने सुन्दर भवन का निर्माण किया। इससे इन्द्रप्रस्थ की सुन्दरता में चार चाँद लग गए। धर्मराज ने धर्म के अनुसार आचरण करते हुए राज्य में सुख और शान्ति की स्थापना की। धर्मराज के सुशासन की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। स्वर्गलोक में पितृगण भी उनसे प्रसन्न हुए। तब पाण्डु ने नारद मुनि के द्वारा युधिष्ठिर को यह सन्देश भिजवाया कि वह राजसूय यज्ञ करे, जिससे कि मैं (पाण्डु) इन्द्रलोक में निवास करूँ, फिर अपनी आयु पूरी करने के बाद स्वर्ग में प्रवेश पा सकूँ।
युधिष्ठिर ने इस पर विचार करते हुए श्रीकृष्ण से विचार-विमर्श किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि आपका राजसूय यज्ञ तभी सफल हो सकता है, जब आप जरासन्ध पर विजय प्राप्त कर ले, क्योंकि सम्म्राट बने बिना राजसूय यज्ञ नहीं किया जा सकता। अतः इसके लिए उसका (जरासन्ध) वध करना आवश्यक है। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर श्रीकृष्ण अर्जुन और भीम को साथ लेकर ब्राह्मण वेश में जरासन्ध के पास पहुँचे और उसे मल्लयुद्ध के लिए ललकारा। जरासन्ध इसके लिए तैयार हो गया। उसने श्रीकृष्ण और अर्जुन को छोड़कर भीम के साथ मल्लयुद्ध करना स्वीकार किया। दोनों के मध्य तेरह दिन तक भयंकर मल्लयुद्ध चला। तेरहवें दिन जरासन्ध को थका हुआ देखकर और कृष्ण का संकेत पाकर भीम ने जरासन्ध का एक पैर दबाकर दूसरा पैर उठाया और उसे बीच में से चीरते हुए उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने जरासन्ध के पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया और जरासन्ध द्वारा बन्दी बनाए गए हज़ारों राजाओं को मुक्त किया। इसके बाद श्रीकृष्ण उन सभी को साथ लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँचे और युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि अब आप विधि-विधानपूर्वक यज्ञ कर सकते हैं।
तत्पश्चात् धर्मराज ने अपने चारों भाइयों भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को सैन्य प्रसार के लिए क्रमशः पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा में भेजा। चारों भाइयों ने सारे राजाओं को अपने अधीन करते हुए सारे भारतवर्ष को युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे ला दिया। यह काम सम्पन्न होने के बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ होने लगीं। चारो दिशाओं में सभी राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया। द्वारका में स्वयं अर्जुन गए। भीम द्रुपद को लेने गए तथा नकुल कौरवों को आमन्त्रित करने पहुँचे। निमन्त्रण पाकर सभी राजा, शूद्र, व्यापारी आदि अपने दल-बल सहित इन्द्रप्रस्थ पधारने लगे। सभी को उचित स्थान पर ठहराया गया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए देवता एवं असुर भी आए हुए थे।
चतुर्थ सर्ग (प्रस्थान)
अर्जुन के द्वारा राजसूय यज्ञ में भाग लेने का निमन्त्रण पाकर यदुकुल अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से एकान्त में प्रार्थना की कि पाण्डव कुल की लाज आपके हाथ में है। आप ही इस यज्ञ को सफलतापूर्वक पूरा करवा सकते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की चिन्ता को समझा और विचार किया कि उनका पूर्ण सुसज्जित सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ जाना उचित रहेगा, क्योंकि कुछ असन्तुष्ट राजा मिलकर उपद्रव कर सकते हैं। द्वारकापुरी में इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारियाँ पूरे मनोयोग से होने लगीं। उचित समय पर श्रीकृष्ण, इन्द्रप्रस्थ पहुँच गए। श्रीकृष्ण जहाँ से भी गुजर रहे थे वहाँ नर-नारियो की भीड़ उनके दर्शन हेतु एकत्रित हो जाती। उनकी शोभा देखकर सभी धन्य हो जाते हैं, जब श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ पहुँचे तो युधिष्ठिर ने स्वयं आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उनके रथ के सारथी बने। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण और उनके साथ आए सभी व्यक्तियों का यथोचित सत्कार हुआ। पाण्डवों की श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा देखकर रुक्मी और शिशुपाल बेचैन हो गए। वे दोनों श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे।
पंचम सर्ग / राजसूय-यज्ञ (अग्रपूजा)
धर्मराज युधिष्ठिर ने पहले ही अपने सम्बन्धियों में काम बाँट दिए थे। भीम, दुःशासन, दुर्योधन, विदुर, अर्जुन, संजय, अश्वत्थामा, नकुल, सहदेव, कर्ण,, भीष्म, द्रोण आदि को उनकी उम्र एवं योग्यता को ध्यान में रखकर काम दिए गए थे। श्रीकृष्ण ने भोजन परोसने एवं ब्राह्मणों के पैर धोने का कार्य स्वेच्छा से चुना। सभी ने अपना-अपना काम पूरी निष्ठा से किया। फिर सभी वर्षों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सभा में पधारे। जब श्रीकृष्ण बलराम और सात्यकि सहित सभा में आए तो सभी उनके सत्कार में स्वतः ही खड़े हो गए, केवल शिशुपाल ही बैठा रहा। जब भीष्म ने अग्र-पूजा का प्रश्न उठाया तो सबने सहर्ष श्रीकृष्ण के नाम पर सहमति दी। इस पर चेदिराज शिशुपाल ने आपत्ति प्रकट की। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की निन्दा की और भरी सभा में उनका अपमान किया। सहदेव, भीष्म और भीम ने शिशुपाल को रोकने का प्रयास किया।
भीष्म ने शास्त्रों का हवाला देकर श्रीकृष्ण को ही अग्रपूजा के लिए उपयुक्त व्यक्ति बताया। इस पर शिशुपाल फिर बड़बड़ाया, किन्तु सहदेव ने उसे धमकाते हुए कहा कि
‘अति हो गई, सहा अब तक अकथनीय तेरा बकवाद,
लूँगा खींच जीभ यदि आगे, किया एक भी अब अपवाद। पूजनीय श्रीकृष्ण प्रथम है देखें करता कौन अमान्य।”
और श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। इस पर शिशुपाल उनको मारने दौड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण शान्त भाव से बैठे रहे। शिशुपाल को चारों ओर श्रीकृष्ण ही दिखाई दे रहे थे। अतः वह चारों ओर घूम-घूमकर उन्हें मारने का प्रयास करने लगा। सभी पागलों के समान उसकी क्रिया देखकर कुछ समझ न पाए। श्रीकृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा कि तू मेरा छोटा भाई है और मैंने श्रुतश्रवा बुआ को तेरे. सौ अपराध क्षमा करने का वचन भी दिया है। यह सोचकर ही में अब तक मौन हूँ, परन्तु मेरे मौन को मेरी दुर्बलता समझना तेरी भूल है। अतः तुम यह अनुचित व्यवहार मत करो, लेकिन शिशुपाल ने फिर उनकी निन्दा की। उसके सौ अपराध ‘पूरे हो चुके थे। श्रीकृष्ण ने उसे बचने की चेतावनी देते हुए अपना सुदर्शन चक्रं छोड़ दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। धर्मराज ने आदरपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार करवाकर शिशुपाल के पुत्र को चेदिराज बनाया।
षष्ठ ‘सर्ग (उपसंहार)
जो भाग्य में लिखा होता है, वह होकर रहता है। चेदिराज की मृत्यु के बाद राजसूय यज्ञ विधिपूर्वक चलता रहा। व्यास, घौम्य आदि सोलह ऋषियों ने इस यज्ञ को विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न किया। धर्मराज ने विद्वानो, ब्राह्मणों, राजाओं तथा अन्य अतिथियों का उचित सत्कार किया और सम्मानपूर्वक उन्हें विदा किया। ब्राह्मणों ने उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद दिया। अन्त में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति हृदय से आभार प्रकट किया, क्योंकि उनके बिना इस यज्ञ का सुचारु रूप से सम्पन्न होना असम्भव था।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 3. ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर– पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र नायक श्रीकृष्ण हैं। यद्यपि महाभारत से सम्वन्धित होने के कारण इस खण्डकाव्य में पाण्डवों और कौरवों की उपस्थिति अवश्य है, परन्तु सम्पूर्ण काव्य का केन्द्रबिन्दु श्रीकृष्ण हैं। उनके चरित्र को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- अद्वितीय सौन्दर्यशाली एवं आकर्षक श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अद्भुत था। उनके सौन्दर्य का आकर्षण ऐसा था कि नगर के सब नर-नारी उनकी एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ते थे। उनके चन्द्र समान सलोने मुखमण्डल की आभा एवं सुन्दरता सभी को परम आनन्दित करती थी। जैसे ही कृष्ण लोगों की नज़रों से ओझल हो जाते थे, वैसे ही सभी उदास हो जाते। उनके रूप सौन्दर्य के बारे में एक साधारण स्त्री ने कहा है- “देखा सुना न पढ़ा कही भी. ऐसा अनुपम रूप अनिन्द। ऐसी मृदु मुसकान न देखी, सचमुच गाविन्द सम गोविन्द ।।”
- वीर एवं शक्तिसम्पन्न श्रीकृष्ण परमवीर है और असाधारण रूप से शक्तिवान है। उन्होंने बचपन में ही पृतना, वकासुर, वृषभासुर, व्योमासुर, मुष्टिक, चाणूर, कंस आदि का संहार कर लोगों को इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी। उन्होंने कालिया नाग को भी दण्ड दिया था। जरासन्ध के वध की योजना भी श्रीकृष्ण की ही थी। अन्त में ये दुष्ट शिशुपाल का वध भी करते हैं। शिशुपाल का वध करने से पूर्व कृष्ण उसे बचने की चेतावनी भी देते हैं, परन्तु उनका प्रहार इतना तीव्र गति से हुआ कि शिशुपाल स्वयं को बचा नहीं पाया।
- पाण्डवों के शुभचिन्तक श्रीकृष्ण पाण्डवों के सबसे बड़े हितैषी एवं शुर्भाचन्तक थे। पाण्डवों के सभी शुभ कार्यों में वह उनका पूरा साथ देते हैं तथा उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं का निवारण भी वही करते हैं। इन्द्रप्रस्थ को वसाने में श्रीकृष्ण ने ही पाण्डवों की मदद की थी। जरासन्ध-वध करवाने के कारण राजसूय यज्ञ की सफलता का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कोई बाधा न आए, इसलिए वह सुसज्जित सेना सहित इन्द्रप्रस्थ पहुंचते हैं। अतः वह पाण्डवों के सबसे बड़े सहयोगी एवं शुभचिन्तकः थे।
- विनम्र एवं शिष्टाचारी श्रीकृष्ण जितने महान् एवं शक्तिशाली है, उतने ही विनम्र है। उनमें अभिमान लेश-मात्र भी नहीं है। वह जब भी अपने बड़ों से मिलते हैं, तो उनके चरण स्पर्श करते हैं तथा छोटों को प्रेम से गले लगाते हैं। वह स्वभाव से अत्यन्त विनम्र हैं। उनकी विनम्रता तब स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, जब वह राजसूय यज्ञ के प्रथम दिन स्वेच्छा से ब्राह्मणों के चरण धोने जैसा तुच्छ कार्य स्वयं के लिए चुनते हैं। अग्रपूजा का पात्र होते हुए भी वह दूसरों के मान-सम्मान एवं सत्कार का पूरा ध्यान रखते हैं।
- सहनशील एवं धैर्यवान सहनशीलता और वैर्य श्रीकृष्ण के चरित्र के अभिन्न गुण है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपना नियन्त्रण नहीं खोते। अपनी बुआ को दिए गए वचन के कारण वह शिशुपाल की अशिष्टता को सहन करते हैं। जव शिशुपाल शिष्टाचार की सभी सीमाएं तोड़ देता है और उसका अपराध अक्षम्य हो जाता है, तभी वह उसे दण्ड देते हैं।
- सर्वगुण सम्पन्न दिव्य योगी पुरुष श्रीकृष्ण सभी लौकिक एवं अलौकिक गुणों से सम्पन्न है। सज्जनों के लिए वह पुष्प के समान कोमल है, तो दुष्टों के संहारक हैं। उनका हृदय दया, करुणा, ममता, प्रेम आदि का अगाध सागर है। वह धर्म और मर्यादा का पालन करने वाले हैं।
“शील सुजनता विनय प्रेम के, केशव है प्रत्यक्ष शरीर, मिटा अनीति धर्म-मर्यादा, स्थापन करते है यदुवीर।”
आध्यात्मिक ज्ञान के सन्दर्भ में वह भगवान विष्णु के सदृश ही ज्ञानी है अर्थात् वह जीवन के हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ है। उनकी समता करने का साहस किसी में नहीं है और न ही उनको जानना समझना सरल है। ऊपर से वह सांसारिक कार्यों में व्यस्त दिखाई देते है, परन्तु उनके जैसा अनासक्त कर्मयोगी अन्य और कोई नहीं है।
इस प्रकार, श्रीकृष्ण के चरित्र में सभी मानवीय एवं दिव्य गुणों का समावेश है। उनके गुणों और विशेषताओं का वर्णन जितना भी करो, कम ही है। अतः इस खण्डकाव्य में वह मानव नहीं, अपितु महामानव के रूप में हमारे सामने आए है।
प्रश्न 4. ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण/ चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर – पण्डित रामवहोरी शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘अग्रपूजा’ में युधिष्ठिर श्रीकृष्ण के बाद दूसरे प्रमुख पात्र है। वह पाण्डवों में ज्येष्ठ हैं। उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित है-
- धर्मपालक एवं न्यायप्रिय राजा युधिष्ठिर धर्म और न्याय की साकार मूर्ति है। वह सदा धर्म-युक्त कार्य करते है तथा न्यायपूर्वक शासन करते है। इसी कारण कह न केवल अपनी प्रजा में सोकप्रिय है, अपितु उनकी कीर्ति देवलेोक और पितृलोक में भी फैल गई है। उनकी प्रशंसा में नारद कहते हैं- “बोल उठे गदगद वाणी से. ‘धर्मराज, जीवन तव धन्य. धरणी में सत्कर्म-निरत जन, नहीं दीखता तुम सा अन्य।”
- अत्यन्त विनम्र और आज्ञाकारी युधिष्ठिर स्वभाव से अत्यन्त विनम्र है। वह वट्टों की आज्ञा का पालन करते हैं। वह खाण्डव-वन के रूप मे मिले हुए उजड़े राज्य को पाने पर भी तनिक भी क्रोध नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब वह श्रीकृष्ण को पहली बार इन्द्रप्रस्थ से विदा करते है. तो स्वयं उनके रथ के सारथी बनते हैं। जब श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रप्रस्थ पधारते हैं, तो भी वह आगे बढ़कर उनका स्वागत करते है और फिर उनके रथ के सारथी बनते हैं। वह श्रीकृष्ण से बड़े हैं, परन्तु फिर भी उन्हें इस प्रकार उनका सम्मान करना बुरा नही लगता है। वस्तुतः युधिष्ठिर विनम्र और आज्ञाकारी होने के साथ-साथ कृतज्ञ भी हैं।
- उदारवादी युधिष्ठिर जैसा उदारवादी चरित्र महाभारत में अन्य कोई नहीं है। वह उसी रूप में इस खण्डकाव्य में प्रस्तुत किए गए है। उनके मन में घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि जैसे दुर्विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। बार बार उनका एवं उनके भाइयों का अहित करने वाले कौरवों को वह अपना शत्रु नहीं मानते। जरासन्ध एवं शिशुपाल के वघ के पश्चात् वह उनके पुत्रों को ही राजा बनाते हैं। पूरे भारतवर्ष को वह एकता के सूत्र में बाँधना चाहते है, परन्तु किसी के राज्य पर अन्यायपूर्वक अधिकार करना उनके चरित्र की विशेषता नहीं है। वस्तुतः धर्मराज युधिष्ठिर परम विनीत एवं सहिष्णु है। उनमें वह सारे गुण हैं, जो एक राजा में होने चाहिए। उनका चरित्र आज भी प्रेरणादायी है।
प्रश्न 5. ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर – चेदिराज शिशुपाल श्रीकृष्ण की बुआ श्रुतश्रवा का पुत्र था। वह इस खण्डकाव्य का प्रमुख प्रतिनायक है। उसके वरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है-
- अशिष्टाचारी शिशुपाल चेदि राज्य का राजा है, परन्तु राजा होने के बावजूद भी उसे सामान्य शिष्टाचार का ज्ञान नहीं है। वह छोटों और बड़ों सभी से अपमान करने वाली भाषा में बात करता है। वह न केवल अपने बड़े भाई कृष्ण का भरी सभा में अपमान करता है, वरन् भीष्म जैसे आदरणीय पुरुष को भी ‘लगता सठिया गए भीष्म है’, कहकर उनका उपहास उड़ाता है। वह सहदेव से भी कहता है-
“कैसी बात लड़कपन की यह कही यहाँ तुमने सहदेव ? छोटे मुंह से बड़ी बात है. कहना उचित नहीं नरदेव।”
- श्रीकृष्ण का निन्दक एवं शत्रु यद्यपि शिशुपाल और श्रीकृष्ण के मध्य भाई-भाई का सम्बन्ध था, परन्तु फिर भी शिशुपाल, श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा निन्दक एवं शत्रु था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन रुक्मिणी पहले ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थी। अतः श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी से विधि-विधानपूर्वक विवाह किया। इसी प्रसंग के कारण शिशुपाल कृष्ण का शत्रु वन गया था। वह भरी सभा में श्रीकृष्ण को अहीर, गोपाल, कृतघ्न, मामा का हत्यारा, रणछोड़, मायावी, कपटी आदि कहकर उनकी निन्दा एवं अपमान करता है।
- अभिमानी एवं क्रोधी शिशुपाल स्वभाव से क्रोधी एवं अभिमानी भी है। वह स्वय पर अभिमान करता है तथा दूसरों को अकारण ही अपमानित करता है। भरी सभा में जब वह श्रीकृष्ण को दुर्वचन कहता है तो सहदेव, भीम, भीष्म और स्वयं श्रीकृष्ण भी उसे समझाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु वह समझने के स्थान पर और भी क्रोधित हो जाता है और फिर श्रीकृष्ण को भला-बुरा कहने लगता है। यही उसकी मृत्यु का कारण बनता है।
- ईर्ष्या एवं द्वेष-भाव रखने वाला वह श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मानता है, इसलिए उनसे ईर्ष्या करता है। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण के आदर-सत्कार को देखकर वह जल-भुनकर राख हो जाता है। श्रीकृष्ण का मान-सम्मान होते देखकर वह मन-ही-मन उनसे द्वेष करने लगता है। वस्तुतः इस खण्डकाव्य में शिशुपाल के चरित्र के दोषों को ही उजागर किया गया है। उसमें कोई भी ऐसा गुण नहीं है, जिसकी प्रशंसा की जाए। खलनायक की भूमिका में वह उपयुक्त है, परन्तु खलनायकों की भाँति उसकी परिणिति भी दुःखद होती है।