मैंने आहुति बनकर देखा/हिरोशिमा : सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
पद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर
* मैंने आहूति बनकर देखा *
1. मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरु नन्दन-कानन का फूल बने? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रान्तर का ओछा फूल बने? मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले? मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले? मैं कब कहता हूँ विजय करूँ-मेरा ऊँचा प्रासाद बने? या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुँधली-सी याद बने? पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ? नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ शीर्षक कविता से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य जीवन की सार्थकता बताते हुए कवि स्पष्ट करता है कि दुःख के बीच पीड़ा सहकर अपना मार्ग प्रशस्त करने वाला तथा दूसरों की पीड़ा हरकर उनमें प्रेम का बीज बोने वाला व्यक्ति ही वास्तविक जीवन जीता है।
व्याख्या कवि स्पष्ट कहता है कि वह अपने जीवन में किसी भी प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाने का आकांक्षी नहीं है। वह ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता है कि उसके जीवन का सूखा रेगिस्तान नन्दन कानन अर्थात् देवताओं के वन के समान सदैव खिले रहने वाले पुष्पों से महक उठे, बल्कि वह तो अपने जीवन में दुःखों एवं कष्टों का आकांक्षी है। कवि का मानना है कि जिस प्रकार काँटे की श्रेष्ठता उपवन के तुच्छ फल में परिवर्तित हो जाने में नहीं, वरन् अपने कठोरपन एवं नुकीलेपन में निहित है, उसी प्रकार जीवन की सार्थकता संघर्ष एवं दुःखों से लड़ने में है। कवि कहता है कि उसने कभी ऐसी चाह नहीं की कि वह युद्ध-भूमि से बिना कोई चोट खाए लौट आए, क्योंकि रण में खाई चोटें तो योद्धा का श्रृंगार होती हैं।
कवि सदैव अपने प्यार का प्रतिफल भी नहीं चाहता और न ही वह विश्वविजेता बनना चाहता है। वह दुनिया के वैभव एवं सुविधाओं का भी आकांक्षी नहीं है। कवि अपने जीवन में इतना महान् भी नहीं बनना चाहता है कि लोग हमेशा उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखें, लोग उसे सम्मान एवं आदर के भाव से निहारें। वह यह भी नहीं चाहता है कि उसके जीवन का मार्ग हमेशा प्रशस्त रहे। अर्थात् उसके द्वारा किए गए कार्यों की सदा प्रशंसा ही हो, उसे आलोचना न सहनी पड़े।
सफलता एवं श्रेष्ठता से परिपूर्ण जीवन की भी कवि को कामना नहीं है। कवि की यह भी आकांक्षा नहीं है कि आज उसे जो सबका नेतृत्व करने का सुअवसर प्राप्त है, वह सदा से उसके साथ रहे अर्थात् भविष्य में न छिने ।
वस्तुतः कवि स्वयं को किसी भी ऐसी आदर्श स्थिति से वंचित रखना चाहता है, जिसकी सामान्यतया अधिकांश लोग कामना करते हैं। वह स्वयं को, अपने जीवन को एक ऐसे सामान्य व्यक्ति के जीवन के रूप में जीने के लिए प्रस्तुत करना चाहता है, जो परहित की चिन्ता से व्याकुल हो, जो दूसरों के दुःख को अपना समझकर उसे दूर करने की कोशिश करे, जो अपने देश एवं समाज के हितों की पूर्ति करने में काम कर सके।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
- (i) प्रस्तुत पद्यांश में दुःख को सुख की तरह, असफलता को सफलता की तरह और हार को जीत की तरह स्वीकार कर कार्य-पथ पर अडिग होकर चलने का भाव व्यक्त किया गया है।
- (ii) रस शान्त
कला पक्ष
- भाषा साहित्यिक खड़ीबोली
- छन्द मुक्त
- गुण प्रसाद
- शैली प्रतीकात्मक
- अलंकार अनुप्रास, उपमा एवं रूपक
- शब्द शक्ति अभिधा एवं लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) ‘काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर ‘काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है’ का आशय यह है कि जिस प्रकार काँटे की श्रेष्ठता उपवन के तुच्छ में परिवर्तित हो जाने में नहीं, वरन् अपने कठोरपन और नुकीलेपन में निहित है, उसी प्रकार जीवन की सार्थकता संघर्ष एवं दुःखों से लड़ने में है।
(ii) ‘जीवन-मरु’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर ‘जीवन-मरु’ में रूपक अलंकार है। यहाँ जीवन को सूखा रेगिस्तान कहा गया है।
(iii) मैं किसकी कामना नहीं करता?
उत्तर मैं अर्थात् कवि अपने जीवन में किसी भी प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाने की कामना नहीं करता है।
(iv) दिए गए पद्यांश का शीर्षक और कवि का नाम लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ तथा कवि का नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ है।
2. मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने- फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने। अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला, है- क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है? वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- वे मुदें होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-कारी हाला है मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया – मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है! मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने ! भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने- तेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने !
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ शीर्षक कविता से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि जीवन की वास्तविक सार्थकता कष्टों, विघ्नबाधाओं तथा विरोधी परिस्थितियों के साथ संघर्ष करने में निहित है। साथ ही यहाँ जीवन के कठिन संघर्षों से हार न मानकर, उनसे उत्साहपूर्वक जूझने की प्रेरणा दी जा रही है।
व्याख्या कवि कहता है कि मुझे अपने जनपद अर्थात् अपने क्षेत्र की धूल बन जाना स्वीकार है, भले ही उस धूल का प्रत्येक कण मुझे जीवन में आगे बढ़ने से रोके और मेरे लिए पीड़ादायक बन जाए। इस प्रकार, यहाँ कष्ट सहकर भी मातृभूमि की सेवा करने या उसके काम आ जाने ही चाह व्यक्त की गई है।
कवि का कहना है कि हम अपना कर्त्तव्य समझ कर जिसका पालन पोषण करते हैं, जिस पर अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं, उस श्रम, त्याग और आत्मीयता का प्रतिफल केवल दुःख, उदासी और अश्रु के रूप में कदापि प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् हमें कर्मों के परिणामों की चिन्ता छोड़ सदा कर्त्तव्य-पथ पर चलते रहना चाहिए। अन्ततः परिणाम सकारात्मक ही होता है।
कवि आगे कहता है कि प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने वाले लोग सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते और वे मानसिक रूप से विकृत होते हैं, किन्तु वे लोग भी चेतनाविहीन निर्जीव की भाँति ही हैं, जिनके लिए प्रेम चेतना लुप्त करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं। वास्तव में, प्रेम तो मानवीय चेतना का संचार करने वाली संजीवनी बूटी के समान है।
कवि कहता है कि उसने अनेक बाधाओं एवं कठिनाइयों की आग में जलकर जीवन के अन्तिम रहस्य को समझ लिया है। जब वह स्वयं आहुति बना, तब उसे प्रेमरूपी यज्ञ की ज्वाला का पवित्र कल्याणकारी रूप दिखाई दिया। विभिन्न कठिनाइयों एवं बाधाओं को पार करके ही वह आज विकास एवं प्रगति के इस शिखर पर पहुँचा है। कवि धूल से प्रेरणा लेते हुए कहता है कि जिस प्रकार धूल लोगों के पैरों तले रौन्दी जाती है, फिर भी हार नहीं मानती और उलटे आँधी का रूप धारण कर रौन्दने वालों को ही पीड़ा पहुँचाने लगती है, उसी प्रकार मैं भी जीवन के संघर्षों से पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित होकर उत्साहित होकर आगे की ओर बढ़ता ही जाता हूँ। यहाँ कहने का भाव है कि मुश्किलों का सामना करके ही
सफलता को प्राप्त किया जा सकता है। कवि की चाह है कि उसका संघर्षपूर्ण जीवन चुनौती देने की पुकार बन जाए। जीवन में मिली असफलता उसके लिए तलवार की धार बनकर सफलता की राह को काँटों रहित बना दे और जीवनरूपी कठिन संग्राम में रह-रह कर रुक जाना ही उसका प्रहर बन जाए। इस प्रकार, यहाँ कवि जीवन की बाधाओं व असफलताओं को ही अपनी शक्ति बनाकर और उनसे प्रेरणा लेकर सफलता प्राप्त करने के लिए संकल्पित दिखता है।
अन्ततः कवि ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करता हुआ कहता है कि मैं अपनी हार, असफलता सहित अपना सारा संसार ही तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा तुम्हें आहुति रूप में समर्पित की गई सारी वस्तुएँ अग्नि बनकर मेरे जीवनरूपी यज्ञ को पूर्ण करने में सहायक बन जाएँ। साथ ही साथ मेरा यह मौन प्रेम तेरी पुकार की तरह ही अति प्रभावशाली होकर परम विस्तार को प्राप्त कर ले।
काव्य सौन्दर्य
कला पक्ष
- भाषा साहित्यिक खड़ीबोली
- छन्द मुक्त
- गुण प्रसाद एवं ओज
- शैली प्रतीकात्मक
- अलंकार उपमा, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास
- शब्द शक्ति लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक काव्यांजलि में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
(ii) ‘कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर ‘कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ’ पंक्ति का भाव यह है कि जिस प्रकार धूल लोगों के पैरों तले रौंदी जाती है, फिर भी हार नहीं मानती और उल्टे आँधी का रूप धारण कर रौंदने वाले को पीड़ा पहुँचाने लगती है, उसी प्रकार कवि अपने जीवन के संघर्षों से पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित एवं उत्साहित होकर आगे की ओर बढ़ता ही जाता है।
(iii) प्रेम की वास्तविक अनुभूति से कैसे लोग अनभिज्ञ रह जाते हैं?
उत्तर प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने वाले लोग सकारात्मक दृष्टिकोण के नहीं होते, अपितु वे मानसिक रूप से विकृत होते हैं, किन्तु वे लोग भी चेतना विहीन निर्जीव की भाँति ही हैं। जिनके लिए प्रेम की चेतना लुप्त करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं।
(4) “इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने।” प्रस्तुत पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति में ‘पग’ शब्द की पुनरावृत्ति हुई है, अतः यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
हिरोशिमा
3. एक दिन सहसा सूरज निकला अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक; धूप बरसी, पर अन्तरिक्ष से नहीं फटी मिट्टी से। छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन, सब ओर पड़ी-वह सूरज नहीं उगा था पूरब में, वह बरसा सहसा बीचो-बीच नगर के; काल-सूर्य के रथ के पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए हों दसों दिशा में ! कुछ क्षण का वह उदय-अस्त ! केवल एक प्रज्वलित क्षण की दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी फिर ।।
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘हिरोशिमा’ शीर्षक कविता से उधृत है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का भीषण चित्र प्रस्तुत किया है।
व्याख्या कवि कहता है कि एक दिन सूर्य अचानक निकल आया, पर वह आकाश में नहीं, बल्कि हिरोशिमा नगर के एक चौक पर निकला था। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर आकाश से धूप की वर्षा होने लगती है अर्थात् धूप चारों ओर फैल जाती है, उसी प्रकार उस दिन वहाँ की फटी हुई मिट्टी धूप बरसा रही थी।
वस्तुतः यहाँ कवि ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का उल्लेख किया है। नगर के जिस स्थान पर बम गिराया गया था, वहाँ की भूमि बड़े-से-गड्ढे में परिवर्तित हो गई थी, जिसे कविता में ‘फटी मिट्टी’ कहा गया है। बम विस्फोट के दुष्परिणामस्वरूप उस स्थान से काफी अधिक मात्रा में विषैली गैसें निकल रही थीं। उन गैसों के साथ निकले ताप से समस्त प्रकृति झुलस रही थी। विस्फोट के दौरान निकली विकिरणें मानव के अस्तित्व को मिटा रही थीं। प्रस्तुत पद्यांश में इन्हीं सब बातों का प्रतीकात्मक वर्णन किया गया है।
हिरोशिमा पर किए गए परमाणु विस्फोट का उल्लेख करते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार आकाश में सूरज के उदित होने पर पूरी धरती पर मानव की छाया बनने लगती है, उसी प्रकार उस दिन भी हर तरफ मानवों की छविओं से पूरा वातावरण पटा हुआ था, पर वे छवियाँ दिशाहीन होकर यूँ ही धरती पर चारों ओर बिखरी पड़ी थीं। उस दिन का सूर्य प्रतिदिन की तरह पूरव दिशा से नहीं निकला था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देख ऐसा आभास हो रहा था, जैसे काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर उदित हुआ हो और उसके पहियों के डण्डे टूट-टूट कर इधर-उधर दसों दिशाओं में जा बिखरे हो। परमाणु विस्फोट के रूप में सूर्य के उदित होने और उसके अस्त होने के वे दृश्य क्षणिक थे अर्थात् वे प्राकृतिक सूर्योदय और सूर्यास्त की तरह धीरे-धीरे निश्चित समयानुसार आगे बढ़ने की प्रक्रिया के बन्धन में बंधे न थे और न ही उन दोनों दृश्यों के मध्य दिनभर का फासला ही था। यहाँ परमाणु विस्फोट के सन्दर्भ में सूर्य के उदित होने का अर्थ है विस्फोट के दौरान अत्यधिक मात्रा में प्रकाश और ताप का निकलना और सूर्य के अस्त होने का अर्थ है विस्फोट के बाद अत्यधिक मात्रा में निकले घुओं के कारण वातावरण में उत्पन्न अँधेरा।
कवि कहता है कि एक साथ सूर्योदय और सूर्यास्त का आभास दिलाने वाला मानवीय गतिविधियों के दुष्परिणाम स्वरूप उत्पन्न दोपहर का वह ज्वलन्त क्षण अपने ताप से वहाँ के दृश्यों को भी सोख लेने वाला था अर्थात् परमाणु विस्फोट रूपी वह सूर्य अपने हानिकारक प्रभाव से सब कुछ जला कर राख कर देने वाला था।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
- (i) यहाँ परमाणु विस्फोट की भीषण घटना को सूर्योदय से सम्बन्धित कर कवि ने अपने हृदय की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है।
- (ii) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से परमाणु विस्फोट का उल्लेख कर, विज्ञान को अभिशाप के रूप में दर्शाया गया है।
- (iii) रस भयानक
कला पक्ष
- भाषा खड़ीबोली शैली प्रतीकात्मक
- छन्द मुक्त
- अलंकार अनुप्रास, रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा रूपकातिशयोक्ति एवं अन्त्यानुप्रास
- गुण ओज
- शब्द शक्ति लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार और रचना का नाम बताइए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हैं तथा रचना का नाम ‘हिरोशिमा’ है।
(ii) हिरोशिमा नगर में परमाणु बम विस्फोट के परिणाम क्या हुए?
उत्तर हिरोशिमा नगर के जिस स्थान पर बम गिराया गया था, वहाँ की भूमि बड़े-बड़े गड्ढों में परिवर्तित हो गई थी, जिसे फटी मिट्टी कहा गया है। वहाँ बहुत अधिक मात्रा में विषैली गैसें निकल रही थीं और उनसे निकलने वाले ताप से समस्त प्रकृति झुलस रही थी। विस्फोट के दौरान निकली विकिरणें मानव के अस्तित्व को मिटा रही थीं।
(iii) “काल-सूर्य के रथ के पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए हों” पंक्ति से कवि का क्या आशय है?
उत्तर परमाणु विस्फोट के पश्चात् सूर्य का उदय प्रतिदिन की तरह पूर्व दिशा से नहीं हुआ था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देखकर ऐसा आभास हो रहा था जैसे काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर उदित हुआ हो और उसके पहियों के डण्डे टूट-टूटकर इधर-उधर दसों दिशाओं में जा बिखरे हों।
(iv) ‘दसो दिशा में कुछ क्षण का वह उदय-अस्त’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति में ‘द’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
4. छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन सब ओर पड़ीं-वह सूरज नहीं उगा था पूरब में, वह बरसा सहसा बीचों-बीच नगर के; काल-सूर्य के रथ के पहियों के ज्यों अरे टूट कर बिखर गए हों दसों दिशा में कुछ क्षण का वह उदय-अस्त।केवल एक प्रज्वलित क्षण की दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी।
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘हिरोशिमा’ शीर्षक कविता से उधृत है।
प्रसंग – में द्वित्तीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का भीषण चित्र प्रस्तुत किया है।
व्याख्या हिरोशिमा पर किए गए परमाणु विस्फोट का उल्लेख करते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार आकाश में सूरज के उदित होने पर पूरी धरती पर मानव की छाया बनने लगती है, उसी प्रकार उस दिन भी हर तरफ मानवों की छवियों से पूरा वातावरण पटा हुआ था, पर वे छवियाँ दिशाहीन होकर यूँ ही धरती पर चारों ओर बिखरी पड़ी थी। उस दिन का सूर्य प्रतिदिन की तरह पूरब दिशा से नहीं निकला था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देख ऐसा आभास हो रहा था, जैसे काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर उदित हुआ हो और उसके पहियों के डण्डे टूट-टूट कर इधर-उधर दसों दिशाओं में जा बिखरे हों।
परमाणु विस्फोट के रूप में सूर्य के उदित होने और उसके अस्त होने के वे दृश्य क्षणिक थे अर्थात् वे प्राकृतिक सूर्योदय और सूर्यास्त की तरह धीरे-धीरे निश्चित समयानुसार आगे बढ़ने की प्रक्रिया के बन्धन में बंधे न थे और न ही उन दोनों दृश्यों के मध्य दिनभर का फासला ही था। यहाँ परमाणु विस्फोट के सन्दर्भ में सूर्य के उदित होने का अर्थ है विस्फोट के दौरान अत्यधिक मात्रा में प्रकाश और ताप का निकलना और सूर्य के अस्त होने का अर्थ है विस्फोट के बाद अत्यधिक मात्रा में निकले धुआँ के कारण वातावरण में उत्पन्न अँधेरा। 11
कवि कहता है कि एक साथ सूर्योदय और सूर्यास्त का आभास दिलाने वाला मानवीय गतिविधियों के दुष्परिणाम स्वरूप उत्पन्न दोपहर का वह ज्वलन्त क्षण अपने ताप से वहाँ के दृश्यों को भी सोख लेने वाला था अर्थात् परमाणु विस्फोट रूपी वह सूर्य अपने हानिकारक प्रभाव से सब कुछ जला कर राख कर देने वाला था।
काव्य-सौन्दर्य
भाव पक्ष
- (1) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से परमाणु विस्फोट का उल्लेख कर, विज्ञान को अभिशाप के रूप में दर्शाया गया है।
- (ii) रस भयानक
कला पक्ष
- भाषा खड़ीबोली
- छन्द मुक्त
- गुण ओज
- शैली प्रतीकात्मक
- अलंकार अनुप्रास, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं उपमा
- शब्द शक्ति लक्षणा
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(1) वह सूर्य किस दिशा में उदित हुआ था?
उत्तर वह सूर्य प्रतिदिन की तरह पूर्व दिशा से उदित नहीं हुआ था, बल्कि उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था।
(ii) दस दिशाएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर दस दिशाएँ इस प्रकार हैं- उर्ध्व, ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और अघो।
(iii) ‘काल-सूर्य के रथ’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर ‘काल-सूर्य के रथ’ में रूपक अलंकार है। यहाँ उपमेय सूर्य तथा उपमान काल को एक रूप कह दिए जाने के कारण रूपक अलंकार है।
(iv) मानव जन की छायाएँ किस दिशा में पड़ीं?
उत्तर मानव जन की छायाएँ दिशाहीन होकर सब ओर पड़ी हुई थीं अर्थात् परमाणु विस्फोट के कारण हर तरफ मानवों की छविओं (प्रतिबिम्बों) से पूरा वातावरण पटा हुआ था और वे यूँ ही धरती पर चारों ओर बिखरी पड़ी थीं।
(v) पाठ और उसके रचयिता का नाम लिखिए।
उत्तर पाठ का नाम ‘हिरोशिमा’ तथा लेखक का नाम ‘सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय’ है।