भारतीय संस्कृति – डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर-
गद्यांश 1 –
यह एक नैतिक और आध्यात्मिक स्रोत है, जो अनन्तकाल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण देश में बहता रहा है और कभी-कभी मूर्त रूप होकर हमारे सामने आता रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है कि हमने ऐसे ही मूर्त रूप को अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते भी देखा है और जिसने अमरत्व की याद दिलाकर हमारी सूखी हड्डियों में नई मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नए प्राण फूँके और मुरझाए हुए दिलों को फिर खिला दिया। वह अमरत्व सत्य और अहिंसा का है, जो केवल इसी देश के लिए नहीं, आज मानवमात्र के जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया है। हम इस देश में प्रजातंत्र की स्थापना कर चुके हैं, जिसका अर्थ है, व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता, जिसमें वह अपना पूरा विकास कर सके और साथ ही सामूहिक और सामाजिक एकता भी। V Imp (2022, 20, 15, 13)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(ग) लेखक ने अमरत्व का स्रोत किसे बताया है?
उत्तर–
- (क) सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘भारतीय संस्कृति’ से उधृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और साहित्यकार ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद’ हैं।
- (ख) लेखक कहता है कि भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमृत-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है, जो अनन्तकाल से ही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से समस्त देश में प्रवाहित होता चला आ रहा है। यह कभी-कभी प्रत्यक्ष रूप में किसी-न-किसी महान् पुरुष के रूप में भी जन्म लेता रहा है। यह हम भारतीयों का सौभाग्य है कि हमने अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते हुए महात्मा गाँधी के रूप को प्रत्यक्ष रूप में देखा है। महात्मा गाँधी ने इस संस्कृति को अमरता प्रदान की है। इनके माध्यम से ही भारत को उसकी अमरता का पाठ पुनः पढ़ाया गया है। इन्हीं के मूर्त रूप ने परतन्त्रता के परिणामस्वरूप निराशा से मुरझाए हुए मन में आशारूपी ऊर्जा का संचार किया है। हमारी सूख चुकी हड्डियों को अमृत-तत्त्व की स्मृति दिलाकर उसमें नई मज्जा प्रदान की है। सत्य और अहिंसा के तत्त्वों ने भारत को नव जीवन और ताजगी प्रदान की है।
- (ग) लेखक ने अमरत्व का स्रोत भारतीय संस्कृति को बताया है।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जीवन परिचय –
गद्यांश 2
हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा-तत्त्व पर स्थापित रहा है। जहाँ, जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है। अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है और हिंसा का दूसरा रूप या दूसरा
नाम स्वार्थ है, जो प्रायः भोग के रूप में हमारे सामने आता है। पर हमारी सभ्यता ने तो भोग भी त्याग ही से निकाला है और भोग भी त्याग में ही पाया है। श्रुति कहती है-‘तेन त्यक्तेन, भुञ्जीथाः’। इसी के द्वारा हम व्यक्ति और व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से
ओत-प्रोत है। V Imp (2023, 19, 17, 16)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
- (ग) हमारी सभ्यता की विशेषता क्या रही है?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘भारतीय संस्कृति’ से उधृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और साहित्यकार ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद’ हैं।
- (ख) लेखक कहता है कि अहिंसा तत्त्व हमारी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का मूल तत्त्व है। जहाँ कहीं भी हमारे ग्रन्थों में नैतिक सिद्धान्तों की चर्चा की गई है, वहाँ मन, वचन और कर्म से अहिंसा का उल्लेख अवश्य किया गया है। लेखक के अनुसार, अहिंसा त्याग है। त्याग करना ही अहिंसा है और दूसरे अर्थ में अहिंसा ही त्याग है। अहिंसा और त्याग एक-दूसरे के पूरक हैं। ठीक इसी प्रकार हिंसा का अन्य नाम व रूप स्वार्थ है। यह स्वार्थ ही प्रायः भोग बनकर हमारे सामने आता है। हिंसा ही स्वार्थ है और स्वार्थ का पर्याय हिंसा है। जब मनुष्य स्वार्थ के कारण किसी अन्य को हानि पहुँचाता है, तब हिंसा का जन्म होता है।
- उपनिषद् में भी कहा गया है- ‘संसार का भोग त्याग की भावना से करो।’ एक समाज का दूसरे समाज से तथा एक देश का दूसरे देश से संघर्ष होने के पीछे का कारण भी भोग ही है। यदि हम त्याग की भावना रखते हैं, तो इस संघर्ष को समाप्त कर सकते हैं। आशय यह है कि यदि हमें समाज से सभी विरोध और संघर्षों का समापन करना है, तो हमे अपनी भावनाओं में नैतिक चेतना को इसी तत्त्व से सम्पन्न करना होगा।
- (ग) हमारी सभ्यता की विशेषता है ‘तेन त्यक्तेन, भुञ्जीथाः’ अर्थात् भोग त्याग से ही निकलता है और भोग त्याग में ही पाया जाता है।
गद्यांश 3-
दूसरी बात, जो इस सम्बन्ध में विचारणीय है, वह यह है कि संस्कृति अथवा सामूहिक चेतना ही हमारे देश के प्राण हैं। इसी नैतिक चेतना के सूत्र से हमारे नगर और ग्राम, हमारे प्रदेश और सम्प्रदाय, हमारे विभिन्न वर्ग और जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ उनमें सब तरह की विभिन्नताएँ हैं, वहाँ उन सब में यह एकता है। इसी बात को ठीक तरह से पहचान लेने से बापू ने जनसाधारण को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने और तत्पर रहने के लिए इसी नैतिक चेतना का सहारा लिया था। अहिंसा, सेवा और त्याग की बातों से जनसाधारण का हृदय इसीलिए आन्दोलित हो उठा, क्योंकि उन्हीं से तो वह शताब्दियों से प्रभावित और प्रेरित रहा।
V Imp (2023, 17, 13, 11)
प्रश्न-
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का क्या महत्त्व बताया है?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘भारतीय संस्कृति’ से उधृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और साहित्यकार ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद’ हैं।
- (ख) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि विश्व की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गईं, लेकिन हम भारतीयों ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आपको सुरक्षित रखते हुए अपने आध्यात्मिक एवं बौद्धिक गौरव को सुरक्षित बनाए रखा। हम भारतीयों की सामूहिक जागरूकता का नैतिक आधार पहाड़ों से भी मजबूत, समुद्रों से भी गहरा और आकाश से भी अधिक विस्तृत है। लेखक कहते हैं कि सामूहिक चेतना के विषय में दूसरी बात जो विचार करने योग्य है वह यह कि यही संस्कृति अथवा सामूहिक चेतना हमारे भारत देश के प्राण हैं। इस देश के समस्त नगर और ग्राम, सभी प्रदेश और सम्प्रदाय, विभिन्न वर्ग और जातियाँ इसी नैतिक चेतना के सहारे आपस में एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। संस्कृति अथवा सामूहिक चेतना ही विभिन्न नगर और ग्राम, प्रदेश और सम्प्रदाय तथा विभिन्न वर्ग एवं जातियों की एकता का आधार है। इस बात को गाँधीजी ने अच्छी तरह समझा था, इसलिए उन्होंने जनसाधारण को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए, इसी नैतिक चेतना को अपना सम्बल (सहारा) बनाया था।
- (ग) लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का महत्त्व बताते हुए कहा है कि इसी एकता के बल को हथियार बनाकर गाँधी जी, क्रान्ति लाने में सफल हुए, जिससे भारतीयों को गुलामी से मुक्ति मिली थी।
गद्यांश 4
आज विज्ञान मनुष्यों के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दे रहा है, उसका उपयोग एक व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष और दूसरे व्यक्त्ति और समूह के गिराने में होता ही रहेगा इसलिए हमें उस भावना को जाग्रत रखना है और उसे जाग्रत रखने के लिए कुछ ऐसे साधनों को भी हाथ में रखना होगा, जो उस अहिंसात्मक त्याग-भावना को प्रोत्साहित करें और भोग-भावना को दबाए रखें। नैतिक अंकुश के बिना शक्ति मानव के लिए हितकर नहीं होती। वह नैतिक अंकुश यह चेतना या भावना ही दे सकती है। वही उस शक्ति को परिमित भी कर सकती है और उसके उपयोग को नियन्त्रित भी।
M Imp. (2022, 18, 16, 14, 11)
प्रश्न–
- (क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
- (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
- (ग) उपरोक्त अवतरण में लेखक ने मानव को क्या सन्देश दिया है?
उत्तर-
- (क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित पाठ ‘भारतीय संस्कृति’ से उधृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और साहित्यकार ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद’ हैं।
- (ख) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक युग विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने मनुष्य को अद्भुत एवं अतुलनीय शक्ति प्रदान की है, किन्तु विज्ञान से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग मानव द्वारा उचित रूप से नहीं किया जा रहा है। जहाँ एक ओर मनुष्य विज्ञान द्वारा प्रदान की गई शक्ति का प्रयोग अपने तथा अपने समूह के विकास व उत्थान में करता है, वहीं दूसरी ओर दूसरे व्यक्ति एवं दूसरे समूह को गिराने के लिए करता है। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को देखते हुए लेखक कहता है कि हमें कुछ ऐसे साधनों का निर्माण करना होगा, जिससे समाज एवं राष्ट्र में ऐसी भावना जाग्रत हो, जिससे विज्ञान की शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए अहिंसात्मक त्याग की भावना को प्रोत्साहित किया जा सके। लेखक कहता है कि यदि विज्ञान की शक्ति पर नैतिक मूल्यों का नियन्त्रण नहीं लगाया जाएगा, तो यह मानव के लिए हितकारी सिद्ध नहीं हो सकेगा। नैतिक अंकुश (बन्धन) के माध्यम से ही विज्ञान की असीमित शक्ति सीमित हो सकती है और उसका उपयोग विनाश के स्थान पर निर्माण के लिए किया जा सकता है। आशय यह है कि वर्तमान युग में विज्ञान की शक्ति को कल्याणकारी दिशा की ओर अग्रसर करना अत्यन्त आवश्यक व महत्त्वपूर्ण है।
- (ग) उपरोक्त गद्यांश में लेखक ने यह सन्देश दिया है कि नैतिक अंकुश द्वारा उत्पन्न त्याग और अहिंसा की भावना से ही विज्ञान का दुरुपयोग रोका जा सकता है तथा उसकी शक्ति का सदुपयोग ही करना चाहिए।