सूरदास का जीवन परिचय
पद्यांश 1-
चरन-कमल बंदौ हरि राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे कौं सब कुछ दरसाइ।।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदों तिहिं पाइ।।
शब्दार्थ– चरन-पैर; बंदी-वन्दना करना; हरि राइ-श्रीकृष्ण; पंगु-लंगड़ा, गिरि-पहाड़; लंधै-पार करना; दरसाइ-दिखना; बहिरौ-बहरा, सुनै-सुनना; पुनि-फिर से; रंक-गरीब, धराइ-धारण करना; तिहिं-उस।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के चरणों की वन्दना करते हुए उनकी महिमा का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है।
व्याख्या– भक्त शिरोमणि सूरदास जी श्रीकृष्ण के चरण कमलों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके चरणों की, जो कमल के समान कोमल हैं, वन्दना करता हूँ, इनकी महिमा अपरम्पार है, जिनकी कृपा से लंगड़ा व्यक्ति पर्वतों को लाँघ जाता है, अन्धे व्यक्ति को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरे को सुनाई देने लगता है, गूँगा बोलने लगता है और गरीब व्यक्ति राजा बनकर अपने सिर पर छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि हे कृपालु और दयालु प्रभु! मैं आपके चरणों की बार-बार वन्दना करता हूँ। आपकी कृपा से असम्भव-से-असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं। अतः ऐसे दयालु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने ईश्वर के चरणों की महिमा व्यक्त करते हुए उनके प्रति भक्ति भाव को व्यक्त किया है।
- भाषा– साहित्यिक ब्रज
- रस– भक्ति
- शैली– मुक्तक
- छन्द– गेयात्मक
- गुण– प्रसाद
- शब्द-शक्ति– लक्षणा
- अलंकार–
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘बार-बार’ में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
- अनुप्रास अलंकार ‘सूरदास स्वामी’ में ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- रूपक अलंकार ‘चरण कमल’ में कमलरूपी कोमल चरणों के बारे में बताया गया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
पद्यांश 2-
ज्यौं गूँगै मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातें सूर सगुन-पद गावै।।
शब्दार्थ अबिगत-अज्ञात और निराकार; गति-स्थिति, दशा; अंतरगत-हृदय में; परम स्वाद-अलौकिक आनन्द; अमित-अत्यधिक; तोष-सन्तोष; अगम-जहाँ पहुँचना कठिन हो; अगोचर-इन्द्रियों की गति से परे; निरालंब-बिना किसी आधार के; धावै-दौड़े; तातै-इसलिए; सगुन-सगुण ब्रह्म।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण के कमल-रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति का निरूपण किया है। इन्होंने निर्गुण ब्रह्म की आराधना को अत्यन्त कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को अत्यन्त सुगम और सरल बताया है।
व्याख्या– सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण अथवा निराकार ब्रह्म की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अवर्णनीय है, अनिर्वचनीय है। निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनन्द का वर्णन कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। जिस प्रकार गूँगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है, वह उसका शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकता। उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे मौखिक रूप से (बोलकर) प्रकट नहीं किया जा सकता। यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है और उपासक को उससे असीम सन्तोष भी प्राप्त होता है। मन और वाणी द्वारा उस ईश्वर तक पहुँचा नहीं जा सकता, जो इन्द्रियों से परे है, इसलिए उसे अगम एवं अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानता है। उस निर्गुण ईश्वर का न कोई रूप है न आकृति, न ही हमें उसके गुणों का ज्ञान है, जिससे हम उसे प्राप्त कर सकें। बिना किसी आधार के न जाने उसे कैसे पाया जा सकता है? ऐसी स्थिति में भक्त का मन बिना किसी आधार के न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुँचना असम्भव है। इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद का गान अधिक उचित समझा है।
काव्य सौन्दर्य–
यहाँ कवि ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण ब्रह्म की उपासना को सरल बताया है।
- भाषा– साहित्यिक ब्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– प्रसाद
- रस– भक्ति और शान्त
- छन्द– गीतात्मक
- शब्द-शक्ति- लक्षणा
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार ‘अगम-अगोचर’ और ‘मन-बानी’ में क्रमशः ‘अ’, ‘ग’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- दृष्टान्त अलंकार ‘ज्यों गूँगै मीठे फल’ में उदाहरण अर्थात् मीठे फल के माध्यम से मानव हृदय के भाव को प्रकट किया गया है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है।
पद्यांश 3
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद के आँगन, बिम्ब पकरिबे धावत।।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह को, कर सौं पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।।
कनक-भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति ।।
शब्दार्थ-मनिमय-मणि से युक्त; कनक-सोना; विम्ब-परछाई; पकरिबैं- पकड़ना, किलकि-खिलखिलाना, राजत-सुशोभितः दतियाँ-छोटे-छोटे दाँतः पुनि-पुनि-वार-बार अवगाहत-दिखलाना; राजति-सजाना; निरखि-निहारना; अँचरा-आँचल, तर-नीचे।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मणियुक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।
व्याख्या– कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल मनोवृत्तियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं। नन्द द्वारा बनाए मणियों से युक्त आँगन में श्रीकृष्ण अपनी परछाई देख उसे पकड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं। कभी तो अपनी परछाईं देखकर हँसने लगते हैं और कभी उसे पकड़ना चाहते हैं, जब श्रीकृष्ण किलकारी मारते हुए हँसते हैं, तो उनके आगे के दो दाँत बार-बार दिखाई देने लगते हैं, जो अत्यन्त सुशोभित लग रहे हैं।
श्रीकृष्ण के हाथ-पैरों की छाया उस पृथ्वी रूपी सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत हो रही है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया हो अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ-पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछ रहा हो।
श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती हैं और बाबा नन्द को बार-बार वहाँ बुलाती हैं। उसके पश्चात् माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक श्रीकृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती हैं।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।
- भाषा– ब्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– प्रसाद और माधुर्य
- रस– वात्सल्य
- छन्द– गीतात्मक
- शब्द-शक्ति- लक्षणा
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार– ‘किलकत कान्ह’ और ‘प्रतिपद प्रतिमनि’ में क्रमशः ‘क’, ‘प’ तथा ‘त’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार– ‘पुनि-पुनि’ और ‘करि-करि’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
- उपमा अलंकार- ‘कनक-भूमि’ और ‘कमल बैठकी’ अर्थात् स्वर्ण रूपी फर्श और कमल जैसा आसन में उपमेय-उपमान की समानता प्रकट की गई है, इसलिए उपमा अलंकार है।
पद्यांश 4
मैं अपनी सब गाइ चरैहौं।
प्रात होत बल कै संग जैहौं, तेरे कहैं न रैहौं।।
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैंकहुँ डर नहिं लागत।
आजु न सोवों नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत।।
और ग्वाल सब गाइ चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौं।
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैहाँ।।
शब्दार्थ- गाइ गाय, चरैहाँ चराना, प्रात-सुबहः बल-बलराम; जैहाँ-जाना; बैंकहुँ-तनिक भीः दुहाई शपथ; रैनि-रातः दैहाँ दूँगी।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग -प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के स्वाभाविक बालहठ का चित्रण किया है, जिसमें वे अपने ग्वाल सखाओं के साथ अपनी गायों को चराने के लिए वन में जाने की हठ कर रहे हैं।
व्याख्या– बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि हे माता! मैं भी अपनी गायों को चराने वन जाऊँगा। प्रातःकाल होते ही मैं भैया बलराम के साथ वन में जाऊँगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में न रुकूँगा, क्योंकि वन में ग्वाल सखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता। आज मैं नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि में रातभर नहीं सोऊँगा, जागता रहूँगा। हे माता ! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाएँ और मैं घर में बैठा रहूँ। ये सुनकर माता यशोदा ने कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र ! अब तुम सो जाओ, सुबह होने पर मैं तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य भेज दूँगी।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने श्रीकृष्ण के बाल मनोविज्ञान का स्वाभाविक चित्रण किया है।
- भाषा– व्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– माधुर्य
- रस– वात्सल्य
- छन्द– गेय पद
- अलंकार
- अनुप्रास अलंकार– ‘रैनि रहैगौ’, ‘ग्वाल बाल’ और ‘सूर स्याम’ में क्रमशः ‘र’, ‘ल’ और ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 5
मैया हौं न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइँ पिराइ।
जी न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौहँ दिवाइ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ।
मैं पठवति अपने लरिका कौ, आवै मन बहराइ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ।।
शब्दार्थ -हों-मैं, सिगरे-सभी; पिराइ दुखते हैं: पत्याहि-विश्वास हो; सौंहूँ- सौगन्धः रिसाइ-गुस्सा, पठवत्ति-भेजती हूँ; लरिका-पुत्र, बेटा, ताहि-उसे; रिंगाइ घुमाकर।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में माता यशोदा ने श्रीकृष्ण द्वारा हठ किए जाने पर उन्हें वन भेज दिया, किन्तु वन में ग्वाल सखाओं ने उन्हें परेशान किया तथा प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण घर लौटकर माता यशोदा से उनकी शिकायत करते हैं।
व्याख्या- श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता ! अब मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं, इधर से उधर दौड़ते-दौड़ते मेरे पैरो में दर्द होने लगता है। हे माता! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपनी सौगन्ध दिलाकर बलराम भैया से पूछ लो। यह सुनकर माता यशोदा क्रोधित होकर ग्वालों को गाली देने लगती हैं। सूरदास जी कहते है कि माता यशोदा कहती है कि मैं अपने पुत्र को वन में इसलिए भेजती हूँ कि उसका मन बहल जाए। मेरा कृष्ण अभी बहुत छोटा है, ये ग्वाले उसे इधर-उधर दौड़ाकर मार डालेंगे।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण व माता यशोदा का स्थितिवश व्यवहार का यथार्थपरक चित्रण किया है।
- भाषा– ब्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– माधुर्य
- छन्द– गेय पद
- रस– वात्सल्य
- शब्द-शक्ति– अभिधा
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार– ‘मोसौं मेरे’, ‘पाइँ पिराई’, ‘ग्वालनि गारी’ और ‘सूर स्याम’ में क्रमशः ‘म’, ‘प’ तथा ‘इ’, ‘ग’ और’स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
पद्यांश 6
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृन्दाबन गोकुल बन उपबन, संघन कुंज की छाँही।
प्रात समय मात जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत ।।
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
सूरदास धनि-धनि ब्रजबासी, जिनसौं हित जदु-जात।
शब्दार्थ– मोहिं मुझेः विसरतू विस्मृतः नाहीं-नहीं; सघन गहन; कुंज-छोटे वृक्षों का समूहः दह्य। दही; सिरात बीत जाना; धनि-धनि-धन्य होना; जिनसों-जिन पर; जदु-जात श्रीकृष्ण।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की मनोदशा का चित्रण किया है। उद्धव ने मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण को वहाँ की सारी स्थिति बताई, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गए।
व्याख्या- श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव ! मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। मैं सबको भुलाने का बहुत प्रयत्न करता हूँ, पर ऐसा करना मेरे लिए सम्भव नहीं हो • पाता। वृन्दावन और गोकुल, वन, उपवन सभी मुझे बहुत याद आते हैं। वहाँ के कुंजो की घनी छाँव भी मुझसे भुलाए नहीं भूलती। प्रातःकाल माता यशोदा और नन्द बाबा मुझे देखकर हर्षित होते तथा अत्यन्त सुख का अनुभव करते थे। माता यशोदा मक्खन, रोटी और दही मुझे बड़े प्रेम से खिलाती थीं। गोपियाँ और ग्वाल-बालों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे और सारा दिन हँसते-खेलते हुए व्यतीत होता था। ये सभी बातें मुझे बहुत याद आती हैं।
सूरदास जी ब्रजवासियों की सराहना करते हुए कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं उनके हित की चिन्ता करते हैं और इनका प्रतिक्षण ध्यान करते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा हितैषी और कौन मिल सकता है।
काव्य सौन्दर्य–
प्रस्तुत पद्यांश में श्रीकृष्ण साधारण मनुष्य की भाँति अपने प्रियजनों को याद कर द्रवित हो रहे हैं। यद्यपि उनका व्यक्तित्व अलौकिक है फिर भी ब्रज की स्मृतियाँ उन्हें व्याकुल कर देती हैं।
- भाषा– ब्रज
- गुण– माधुर्य
- रस– श्रृंगार
- छन्द– गेयात्मक
- शब्द-शक्ति-अभिधा और व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘ब्रज विसरत’, ‘गोपी ग्वाल’ और ‘अति हित’ में क्रमशः ‘ब’, ‘ग’ और ‘त’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रासअलंकार है।
- पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार- ‘धनि-धनि’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
पद्यांश 7-
ऊधौ मन न भए दस बीस।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस।।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।।
तुम ती सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारें नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ।।
शब्दार्थ– भए-होना; हुती-हुआ करता था; गयौ चला गया; अवराधै – आराधना; इस ईश्वरः इंद्री इन्द्रियाँ: सिथिल कमजोर केसव श्रीकृष्णः ज्यों-जैसे; देही-शरीरः सीस-सिर, आसा आशा; लगि लगी रहना, स्वासा-साँस; जीवहिं-जीवनः कोटि-करोड़ वरीस वर्ष जोग-योग।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश ‘भ्रमरगीत’ का एक अंश है। श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं और गोपियाँ उनको याद कर-कर के अत्यन्त व्याकुल है। श्रीकृष्ण उद्धव को गोपियों के पास भेजते हैं। वह ज्ञान और योग का सन्देश लेकर ब्रज में पहुँचते हैं, लेकिन वे उनके इस सन्देश को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ बताती हैं, क्योंकि वे श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य की आराधना नहीं कर सकती हैं।
व्याख्या– गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे दस-बीस मन नहीं हैं। हमारे पास तो एक ही मन था, वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया। अब हम किस मन से तुम्हारे द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्म की आराधना करे? अर्थात् जब मन ही नहीं है तो किस प्रकार हम तुम्हारे द्वारा बताए गए धर्म का पालन करे। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ शिथिल (कमजोर) हो गई है अर्थात् शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं। इस समय इनकी स्थिति ठीक वैसी ही हो गई है, जैसी बिना सिर के प्राणी की हो जाती है। श्रीकृष्ण के बिना हम निष्प्राण हो गई हैं। हमे हमेशा उनके आने की आशा बनी रहती है। इसी कारण हमारे शरीर में श्वास चल रही है। इसी आशा में हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह सकती हैं।
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! आप तो श्रीकृष्ण के मित्र हैं और सभी प्रकार के योग विद्या के स्वामी हैं, सम्पूर्ण योग विद्या तथा मिलन के उपायों को जानने वाले हैं। आप ही श्रीकृष्ण से हमारा मिलन करा सकते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने स्पष्ट रूप से उद्धव को बता दिया कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण के बिना उनका कोई और आराध्य नहीं है। उनके अतिरिक्त वे और किसी की आराधना नहीं कर सकती।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने श्रीकृष्ण के विरह में विचलित गोपियों की शारीरिक व मानसिक स्थिति का चित्रण किया है।
- भाषा– ब्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– माधुर्य
- रस– श्रृंगार (वियोग)
- छन्द– गेय पद
- शब्द-शक्ति- व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘दस बीस’, ‘स्याम सँग’ और ‘नंद-नंदन’ में क्रमशः ‘स’, ‘स’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
उपमा अलंकार- ‘ज्यों देही बिनु सीस’ अर्थात् बिना सिर के प्राणी के रूप में मानवीय वेदना का वर्णन किया गया है। इसलिए उपमा अलंकार है। - श्लेष अलंकार- ‘ज्यों देही बिनु सीस’ में ‘ज्यों’ वाचक शब्द का प्रयोग किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।
- अनुप्रास अलंकार- ‘दस बीस’, ‘स्याम सँग’ और ‘नंद-नंदन’ में क्रमशः ‘स’, ‘स’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- भाव साम्य– इसी प्रकार का भाव व्यक्त करते हुए तुलसीदास ने भी कहा है “एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास । एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास।”
पद्यांश 8-
निरगुन कौन देस कौ बासी ?
मधुकर कहि समुझाइ सौह दै, बूझतिं साँच न हाँसी ।।
को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी?
पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी।
सुनत मौन हवै रह्यौ बाबरौ, सूर सबै मति नासी ।।
शब्दार्थ– निरगुन-निराकार, निर्गुण; देस-देश; वासी-निवासी; मधुकर – भँवरा; समुझाइ समझाओ, सौह-सौगन्ध: दै-देना; साँच-सत्य; हाँसी-हँसी करना; को है-कौन है। जनक-पिता । जननी माता। नारि-नारी। बरम-रंग, वर्ण; भेष-वेश, किहिं किसके; अभिलापी इच्छुकः पायेगी-पाओगे; पुनि-फल; गॉसी-छल-कपटः सुनत सुनकर मीन-चुप है- हो गए; रह्यौ रह गए: वांवरी-पागल होना; सबै साराः मत्ति विवेकः नासी-समाप्त हो गया।
सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उधृत है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खण्डन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मण्डन किया है।
व्याख्या– गोपियाँ भ्रमर की अन्योक्ति के माध्यम से उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव ! ये निर्गुण ब्रह्म किस देश के निवासी हैं? हम तुम्हें सौगन्ध देकर पूछती हैं, कि तुम हमें सच-सच बताओ, हम कोई हँसी-मजाक नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कौन उसका पिता है, कौन माता है, कौन स्त्री है और कौन उसकी दासी है? उसका रंग-रूप कैसा है, उसकी वेशभूषा कैसी है? तथा वह किस रस की इच्छा रखने वाला है?
गोपियाँ, उद्धव को चेतावनी देते हुए कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। गोपियाँ कहती हैं कि यदि तुम हमसे कपट करोगे तो उसका परिणाम तुम्हें अवश्य भुगतना पड़ेगा। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के इस प्रकार व्यंग्यात्मक तर्कपूर्ण प्रश्नों को सुनकर उद्धव स्तब्ध हो गए। वह उनके प्रश्नों का कुछ उत्तर न दे सके। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो उनका सारा ज्ञान समाप्त हो गया हो। गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य से ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया अर्थात् उद्धव का सारा ज्ञान अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।
काव्य सौन्दर्य-
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गोपियों द्वारा निर्गुण ब्रह्म का उपहास अत्यन्त व्यंग्यात्मक तथा तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है।
- भाषा– ब्रज
- शैली– मुक्तक
- गुण– माधुर्य
- छन्द– गेय पद
- रस– वियोग श्रृंगार एवं हास्य
- शब्द-शक्ति– व्यंजना
- अलंकार–
- अनुप्रास अलंकार- ‘समुझाई सौंह’, ‘कैसो किहिं’, ‘पावैगो पुनि’ और ‘सुनत मौन’ में क्रमशः ‘स’, ‘क’, ‘प’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
- अन्योक्ति अलंकार- मधुकर अर्थात् भ्रमर के रूप में उद्धव की तुलना की गई है, जिस कारण अन्योक्ति अलंकार है।
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